Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 372
________________ उत्पादव्ययध्रौव्यय ३५७ १. भेद व लक्षण २ तीनो एक सत्के ही अश है इसलिए उत्पादादिकमें नवीनरूपसे परिणत उस सत् की अवस्थाका नाम उत्पाद है। (और भी-दे परिणाम) ३ वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नही है २ उत्पादके भेद ४ कथंचित् नित्यता व अनित्यता तथा समन्वय स.सि ५/७/२७३/५ द्विविध उत्पाद स्वनिमित्त परप्रत्ययश्व ।-उत्पाद * वस्तु जिस अपेक्षासे नित्य है उसी अपेक्षासे अनित्य दो प्रकारका है-स्वनिमित्तक उत्पाद और पर प्रत्यय उत्पाद । (रा ___ नही है -दे. अनेकान्त वा ५/७/३/४४६।१४) ५ उत्पादिकमे परस्पर भेद व अभेदका समन्वय । सा /मू १११ एत्र विह सहावे दवं दव्यस्थपज्ज यत्थेहि । सदसम्भा वणिबद्ध प्रादुब्भाव सदा लभदि। ऐसा (पूर्वोक्त) द्रव्य स्वभाव में ६ उत्पादादिकमे समय भेद नही है द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों के द्वारा सदा सम्बद्ध और ७ उत्पादादिकमे समयके भेदाभेद विषयक समन्वय असद्भावसम्बद्ध उत्पादको सदा प्राप्त करता है । (पंव/पू२०१) ३ द्रव्य गुण पर्याय तीनों त्रिलक्षणात्मक हैं ३ स्वनिमित्तक उत्पाद स मि, ५/७/२७३/५ स्वनिमित्तम्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागम१ सम्पूर्ण द्रव्य परिणमन करता है द्रव्याश नहीं प्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट् स्थानपतितया बृया हान्या च २ द्रव्य जिस समय जैसा परिणमन करता है, उम प्रवर्तमानाना स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । स्वनिमित्तक ___ समय वैसा ही होता है उत्पाद यथा-प्रत्येक द्रव्यमें आगम प्रमाणसे अन्तर अगुरुल घुगुण स्वीकार किये गये है। जिनका छह स्थान पतित हानि और वृद्धिक ३ उत्पाद व्यय द्रव्याशमे नही पर्यायाशमे होते है द्वारा वतन होता रहता है । अत' इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से ४ उत्पाद व्ययको द्रव्यका अंश कहनेका कारण होता है । (रा वा ५/७,३/४४६/१४) ५ पर्याय भी कथचित् ध्रुव है ४ परप्रत्यय उत्पाद ६ द्रव्य गुण पर्याय भी तीनो सत् है स. सि ५/७/२७३/७ परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगाहनहेतुत्वा रक्षणे क्षणे तेषां भेदात्तवेतुत्वमपि भिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो ७ पर्याय सर्वथा सत् नही है बिनाशश्च व्यवह्रियते। - परप्रत्यय भी उत्पाद और व्यय होता है। ८ लोकाकाशमे भी तीनो पाये जाते है यथा- ये धर्मादिक द्रव्य क्रमसे अश्चादिकी गति, स्थिति और अव९ धर्मादि द्रव्योंमे परिणमन है पर परिस्पन्द नही गाहनमें कारण है। 1कि इन गति आदि कमें क्षण क्षण में अन्तर पडता है, इसलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए। इस प्रकार १० मुक्त आत्माओमे भी तीनो देखे जा सकते है धर्मादिक द्रव्योमें परप्रत्ययकी अपेक्षा उत्पाद और व्ययका व्यवहार किया जाता है । (रा. वा ५/७/३/४४६/१६) १भेद व लक्षण ५ सदुत्पाद १ उत्पाद सामान्यका लक्षण प्र सा./त प्र. ११२ द्रव्यस्थ पर्यायभूताया व्यतिरेकव्यक्ते. प्रादुर्भाव' स सि.५/३०/५चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत् उभय- तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तरप्रच्यवनाद द्रव्यमनन्यदेव । निमित्तवशाद भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद मृत्पिण्डरय घटपर्याय ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्स सदुत्पाद 1 =द्रव्यके जो पर्यायभूत बत् । =चेतन व अचेतन दोनों ही द्रव्य अपनी जातिको कभी नहीं व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पादहोता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिछोडते। फिर भी अन्तरग और बहिरंग निमित्तके वशसे प्रति समय का अच्युतत्व हानेसे द्रव्य अनन्य ही है। इसलिए अनन्यत्वके द्वारा जा नवोन अवस्थाको प्राप्ति होता है उसे उत्पाद कहते है। (रा वा/ द्रव्यका सदुत्पाद निश्चित होता है । (५ ध/पू २०१) १/३०/१/५६४/३२) ६ असदुत्पाद प्र. सात प्रा.६५ उत्पाद प्रादुर्भाव। यथा खलू तरीयमुपात्तमलिना प्र सा /त.प्र ११३ पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्त'. काल वस्थ प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमान तेनोत्पादेन लक्ष्यते। न च तेन एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भवन्त्यसन्त एव। रश्च पर्यायाण स्वरूपभेदमुपवजति, स्वरूपत एव तथावधित्वमवलम्बते । तथा द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूत क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भाव द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरड्गसाधनसंनिधिसद्भावे तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्ते । पूर्व मसत्त्वात्पर्याया अन्य विचित्रबहुतरावस्थान स्वरूपकतृ करणसामर्थ्य स्वभावेनान्तरङ्गसाधन एव । तत पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्यासदुत्पाद । तामुपागतेनानुग्रहोतमुत्तरावस्थयोत्पद्ममान तेनोत्पादेनलक्ष्यते। जैसे -- पर्याये पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति के काल मे ही सत होनेसे उससे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धानेपर निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता अन्य कालोमे असत हो है। और पर्यायोंका द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति हुआ उस उत्सादमे लक्षित होता है किन्तु उसका उस उत्पादके साथ के साथ गुंथा हुआ जो क्रमानुपाती स्व काल में उत्पाद होता है, उसमें स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है, उसी प्रकार जिसने पूर्व पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्त्व होनेसे पर्याय अन्य अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भो, जो कि उचित बहिरग साधनोके है। इसलिए पर्यायोकी अन्यताके द्वारा द्रव्यका असदुत्पाद निश्चित सान्निध्यके सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुत-सी अवस्थाएं करता है होता है। वह अन्तरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्य रूप स्वभावसे अनुगृहीत होनेपर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, वह ७ व्ययका लक्षण उत्पादसे लक्षित होता है। स.सि.५/३००/५ पूर्व भावविगमन व्यय. । यथा घटोत्पत्तौ पिण्डाकृतिप.ध/पू. २०१ तत्रोत्पादोऽवस्था प्रत्यग्रं परिणतस्य तस्य सत' । सद- य॑य । -पूर्व अवस्थाके त्यागको व्यय कहते है। जैसे घटकी सद्भावनिबद्ध तदतद्भावत्वन्नयादेशात । - सत-तद्भाव और अतद्भाव- उत्पत्ति होनेपर पिण्डरूप आकारका त्याग हो जाता है। (रा.वा./ को विषय करनेवाले नयकी अपेक्षासे सद्भाव तथा असद्भावसे युक्त है। ५/३०/२/४६५/१) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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