Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 364
________________ ईर्यापथकर्म ३४९ ईर्यापथकर्म स. सि. ६/४/३२१/१ ईरणमोर्या योगो गतिरित्यर्थ । तदद्वारकं कर्म ईर्यापथम् । - ईर्याकी व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी इसका अर्थ गति है । जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथकर्म है । रा वा ६/४/७/५०८/१८ ईरण मीर्या योगगति।। उपशान्तक्षीणक्षाययो सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाइ बन्धाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनन्तरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते। -ईर्या की व्युत्पत्ति ईरण होती है, उसका अर्थ गति है।६। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवलोके योगसे आये हुए कर्म कषायोका चेप न होनेसे सुखी दीवारपर पड़े हुए पत्थरकी तरह द्वितीय क्षणमें ही झड जाते है, बन्धते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रब कहलाता है। (त सा ४/७) ध. १३/५,४,२४/४७/१० ईर्या योग स पन्था मार्ग हेतु यस्य कर्मण तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव ज बज्झई तमीरियावहकम्म त्ति भणिदं होदि। ध १३/४,४,२४/५१११ बधमागयपरमाण विदियसमए चेव णिस्सेस णिज्ज रति त्ति महत्रयं । ईर्याका अर्थ योग है । वह जिस कामणि शरीर का पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथम कहलाता है। योगमात्रके कारण जो कर्म बन्धता है वह ईर्यापथकर्म है, यह उक्त कथनका तासर्य है। बन्धको प्राप्त हुए म परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते है, इसलिए ईर्यापथ कर्मस्कन्ध महान व्ययवाले कहे गये है। २ नारकियोके तथा सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त ईर्यापथ कर्म नही होता ध १३/५,४.३९/११-६२/५ आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि णस्थि, णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभा वादो । मुहमसापराइएसु इरियावथक्म्म पिणत्थि, सक्साएसु तदसभवादो। -अध कर्म, ईर्यापथकर्म, और तपकर्म नहीं होते. क्योंकि नारकियोके औदारिक शरीरका उदय और पाँच महावत नहीं होते। सुश्मसापराय संयत जोवोके ईर्यापथकर्म नहीं होता, क्योकि कषाय सहित जोकोका ईर्यापथकर्म नहीं हो सकता। ३. ईर्यापथ कर्ममे वर्ण रसादिकी अपेक्षा विशेषताएँ ध, १३/५,४, २४॥२-४/४८ अप्प बादर मवुअ बहुअ बहुक्रन च सुकिल चेव । मद महब्वयं पि य सादभहियं च त कम्म ।२। गहिदमगहिद च तहा बद्धमबद्ध च पुट्ठमपुछ च। उदिदाणुदिद वेदिदमवेदिद चेव त जाणे ।३। णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदी रिदं चेत्र होदि णायव्व अणुदीरिदं त्ति य पुणो इरियावलक्रवण एद ।।। ध. १३/१,४२४/४६-५०/१२ इरियावहकम्मक्खधा कक्खडादिगुणेण अबोहा मउअफासगुणेण सहिया चेव बधमागच्छति त्ति इरियावहकम्म म उअत्ति भण्णदे। सकसायजीववेयणीयसमयपबद्धादा पदेसे हि सखेजगुणत्तं दटूठूण बहुअमिदि भण्णदे। पारगलपदेसेसु चिरकालावट्ठाण णिबधणणिद्धगुणपडिवक्ख गुणेण पडिग्गयित्तादो न्हुवरवं ।.. इरियावहकम्मस्स कम्मरवधा सुअंधा सच्छाया त्ति जाणावणफलो। इरियावहकम्मवंधा पंचवण्णा ण होति, हंसधवला चेव होंति त्ति जाणावणहूं सुक्किल णिद्दे सो कदो. इरियावहकम्मवरवं धा रसेण सकरादो अहियमहुरत्तजुत्ता त्ति जाणावण8 मंदणिद्देसो क्दो । वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मन्द है, अर्थात् मधुर, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक साता रूप है ।२। उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनूदित, और वेदित होकर भी अवेदित जानना ।३। वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है, और उदी रित होकर भी अनुदो रित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है ।४। (इसे अल्प व बादर कहनेका कारण-दे. अगला शीर्षक) ईर्यापथकर्म स्कन्ध कर्कशादि गुणोसे रहित है, वह मदु स्पर्शगुणसे संयुक्त होकर ही बन्धको प्राप्त होता है। इसलिए इसे मदु' कहा गया है। कषाय सहित जीवके वेदनोय कर्मके समयबद्धसे यहाँ बंधनेवाला समय प्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा सख्यात गुणा होता है इसलिए ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा। ईर्यापथकर्म स्कन्ध रूक्ष है, क्योकि पुद्गल प्रदेशोमें चिरकाल तक अवस्थानका कारण स्निग्ध गुणका प्रतिपक्षीभूत गुण उसमें स्वीकार किया गया है । ईर्यापथकर्म के स्कन्ध अच्छी गन्धवाले और अच्छी कान्तिवाले होते है, यह जताना च शब्दका फल है। ईर्यापथकर्म स्कन्ध पाँचवर्णवाले नहीं होते, किन्तु इसके समान धवल वर्ण वाले ही होते है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें शुक्ल पदका निर्देश किया है। ईर्यापथकर्म रसकी अपेक्षा शक्करसे भी अधिक माधुर्ययुक्त होते है । इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें मन्द पदका निर्देश किया है। (गृह तअगृहीत, बन्ध अबन्ध, स्पृष्ट अस्पृष्ट कहनेका कारण-दे शीर्षक स ४, १२, निर्जरित कहनेका कारण -दे. शीर्षक स , उदीरित कहनेका कारण-दे, शीर्षक सं.६) ४. ईपिथकर्ममे बन्धकी अपेक्षा विशेषता ध. १३/५,४,२४/४८/१० कसायाभावेण ट्ठिदिवधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयविदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छ तस्स जोगेणागदपोग्गलवंधस्स द्विदिविरहिदएगसमए वट्टमाणस्स कालणिबधण अप्पत्त दसणादो इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिद । उप्पण्ण विदियादिसमयाणमवट्ठाणववएसुवल भादो। ण उप्पत्तिसमओ अवट्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्पस गादो।. अट्ठण्णं कम्माण समयबद्धपदेसेहितो इरियावहसमयपद्धस्स पदेसा संखेजगुणा होति, सादं मोतूण अण्णे सिंबंधाभावादो। तेण ढुकमाणकम्मक्खंधेहि थूल मिदि बादर भणिदं । • कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। सकसायजीववेयणीयसमपमद्धदो पदेसे हि सखेज्जगुणत्तं दट्ठूणबहअमिदि भण्णदे। ध. १३/५.४,२४/५१-५२/१० इरिवह कम्म गहिदं पि तण्ण गहिदं । कुदो। सरागकम्मगहणमेव अणंतरससारफल णिवत्तणसत्तिविरहादो।.. बद्धपि तण्ण बद्ध' चेव; विदियसमए चेव णिज्जवल भादो पुठं पि तण्ण पुट्ठ चेव, इरियावहबधस्स सतसहावेण जिणिदम्मि अवद्वाणाभावादो। = कषायका अभाव होनेसे स्थिति बन्धके अयोग्य है । कर्म रूपसे परिणत होनेके दूसरे समयमें ही अर्म भावको प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है, ऐसे योगके निमित्त से आये हुए पुद्गल स्कन्धमें काल निमित्तक असपत्व देखा जाता है। इसलिए ईर्यापथकर्म अल्प है।.. क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोकी अवस्थान सज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान नही कहा जा सकता है। क्योंकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आ जायेगा। आठो कर्मोके समयबद्भ प्रदेशोसे ईर्यापथकमके समय प्रबद्ध प्रदेश संख्यात गुणे होते है, क्योकि यहाँ साता वेदनीयके सिवाय अन्य कर्मोंका बन्ध नहीं होता। इसलिए ईर्यापथ रूपसे जो कर्म आते है, वे स्थूल है, अत उन्हे 'बादर' कहा है। कषायका अभाव होने से अनुभाग बन्ध नहीं पाया जाता है। कषाय सहित जीवके वेदनीय कर्मके समयप्रबद्धसे यहाँ बन्धनेवाला समयप्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा संख्यात गुणा होता है । ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा है। गृहीत होकर भी वह गृहात नहीं है, क्योंकि वह सरागी के द्वारा ग्रहण किये गये कर्म के समान ससारको उत्पन्न करने. वाली शक्तिसे रहित है । बद्ध होकर भी बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समयमें ही उनकी निर्जरा देखी जाती है. स्पृष्ट होकर भी स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बन्धका सत्त्व रूपसे जिनेन्द्र भगवानके अवस्थान नहीं पाया जाता है। (और भी-दे. ईर्यापथ ३/१) ५ ईर्यापथकर्ममे निर्जराकी अपेक्षा विशेषता घ. १३/५,४ २४/४१,५४/१ बंधमागयपरमाणू विदियसमए च णिस्सेसं णिज्जर ति त्ति महव्वयं ॥..णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिद, सकषाय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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