Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 336
________________ इतिहास ३२१ ६ दिगम्बर जैनभासी संघ आचार्यने भिक्षार्थ उठनेको भावना व्यक्तकी जिसे श्रावकोंने स्वीकार नहीं किया। तम वे उस नगरको छोडकर अग्रोहाचले गए और वहाँके लोगोंको जन धर्ममें दीक्षित करके एक नये सघकी स्थापना कर दी। द्वितीय दृष्टि द.सा./. ३१, ३८, ३६-आसी कुमारसैणो णदियडे विणयसेणदिविख यो। सपणासभंजणेण य अगहिय प्रण दिक्खओ जादो ।३३। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरण पत्तस्सा दियवरगामे कट्ठो संघो मुणेयब्बो ॥३८॥ दियडे बरगामे कुमारसेणोय सत्थ विण्णाणी। कट्ठो दसणभट्ठो जादो सल्लेहणाकाले ३६। आ विनयसेनके द्वारा दीक्षित आ. कुमारसेन जिन्होंने संन्यास मरणकी प्रतिज्ञाको भग करके पुन गुरुसे दोक्षा नहीं ली, और सस्लेखनाके अवसरपर,विक्रम की मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात्, नन्दितट ग्राममें काष्ठा संघी हो गये। द. सा/मू. ३७ सो समणसघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तो व समो रुद्दो कट्ठसंघ परवेदी ।३७) --मुनिसघसे वर्जित, समय मिध्यादृष्टि, उपशम भावको छोड देने वाले और रौद्र परिणामी कुमार सेनने काष्ठा संघकी प्ररूपणा की। स्वरूप द. सा /मू ३४-३६ परिवज्जिऊण पिच्छं चमर चित्तूण मोहकलिएगा। उम्मग्ग संकलिय बागडविसएमु सम्वेमु ।३४। इत्थीणं गुण दिवा खुल्लयलोयस्स वीर चरियत्तं । कक्कसकेसग्गहण छठं च गुणव्यद णाम ।३। आयमसत्यपुराणं पायच्छित्त च अण्णहा किपि । विरइत्ता मिच्छत्तं पट्टियं मढनोएसु ॥३६। - मयूर पिच्छीको त्यागकर तथा चंवरो गायकी पूंछको ग्रहण करके उस अज्ञानीने सारे बागड प्रान्तमें उन्मार्गका प्रचार किया ।३४। उसने स्त्रियों को शरीक्षा देनेका, क्षुल्लकों को बोर्याचारका, मुनियों को कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका और रात्रि भोजन नामक छठे गुगवत (अणुवत) का विधान किया ।३५॥ इसके सिवाय इसने अपने आगम शास्त्र पुराण और प्रायश्चित्त विषयक ग्रन्थों को कुछ और ही प्रकार रचकर मूवं लोगों में मिथ्यात्वका प्रचार किया।३६॥ दे ऊपर शीर्षक ६/१ में हरि भद्रमूरि कृत षट्दर्शन का उद्धरण-वन्दना करने वाले को धर्म वृद्धि कहता है । स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सवस्त्र मुक्ति नहीं मानता। निन्दनीय द.स./मू ३७ सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तोवसमो रुद्दो कट्ठ सघं परूवेदि।३७) -मुनिसंघसे महिष्कृत, समयमिथ्यावृष्टि, उपशम भाव को छोड देने वाले और रौद्र परिणामी कुमारसेनने काष्ठा सघको प्ररूपणाकी। सेनसंघ पट्टावली २६ (ती ४/४२६ पर उद्धृत)- 'दारसंघ संशयतमो निमग्नाशाधर मुलसंघोपदेश - काष्ठा सधके संशय रूपी अन्ध कारमें डूबे हुओंको आशा प्रदान करने वाले मूल संघके उपदेशसे । दे. सा/४५ प्रेमी जी-मूलसघसे पार्थक्य होते हुए भी यह इतना निन्दनीय नहीं है कि इसे रौद्र परिणामी आदि कहा जा सके। पट्टावलीकारने इसका सम्बन्ध गौतमके साथ जोडा है (दे आगे शोषक ७) विविध गच्छ आ सुरेन्द्रकीर्ति-काष्ठासंघो भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुरा'। तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुता क्षितौ ॥ श्रीनन्दितटसज्ञाश्च माथुरो मागडाभिध । लाडमागड इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले। - पृथिवी पर प्रसिद्ध काष्ठा संध को नर सुर तथा असुर सब जानते हैं। इसके चार गच्छ पृथिवीपर शोभितमुनेजाते हैं-नन्दितटगच्छ,माथुर गच्छ, बागड गच्छ,और लाडवागडगच्छ । (इनमें से नंदितट गच्छ तो स्वयं इस संघ का ही अबान्तर नाम है जो नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होनेके कारण इसे प्राप्त हो गया है। माथुर गच्छ जैनाभासी माथुर सघके नामसे प्रसिद्ध है जिसका परिचय आगे दिया जानेवाला है। बागड देशमें उत्पन्न होनेवाली इसकी एक शाखाका नाम बागड गच्छ है और लाडबागड देश में प्रसिद्ध व प्रचारित होनेवाली शाखाका नाम लाडनागड गच्छ है। इसकी एक छोटीसी गूर्वावली भी उपलब्ध है जो आगे शीर्षक ७ के अन्तर्गत दी जाने वाली है। काल निर्णय यद्यपि संघकी उत्पत्ति लोहाचार्य तृ और कुमारसेन दोनोसे बताई गई है और संन्यास मरण की प्रतिज्ञा भग करनेवाली कथा भी दोनों के साथ निबद्ध है, तथापि देवसेनाचार्य की कुमारसेन वाली द्वितीय मान्यता अधिक सगत है, क्योंकि लोहाचार्य के साथ इसका माक्षाव सम्बन्ध माननेपर इसके कालकी संगति बैठनी सम्भव नहीं है । इसलिये भले हो लोहाचायज के साथ इसका परम्परा सम्बन्ध रहा आवे परन्तु इसका साक्षात सम्बन्ध कुमारसेन के साथ ही है। इसकी उत्पत्तिके कालके विषय में मतभेद है। आ देवसेनके अनुसार वह वि ७५३ है और प्रेमीजी के अनुसार वि (द सा./ प्र. ३१) । इसका समन्वय इस प्रकार किया जा सकता है कि इस सघ की जो पट्टाबली आगे दी जाने वालो है उसमें कुमारसेन नामके दो आचार्योका उल्लेख है । एकका नाम लोहाचार्यके पश्चात राहवे नम्बर पर आता है और दूसरेका ४०वें नम्बरपर । बहुत सम्भव है कि पहले का समय वि.७५३ हो और दूसरेका वि.६५५ । देवसेनाचार्यकी अपेक्षा इसकी उत्पत्ति कुमारसेन प्रथमके कालमें हुई नमकि प्रद्युम्न चारित्रके जिस प्रशस्ति पाठके आकार पर प्रेमीजी ने अपना सम्धान प्रारम्भ किया है उसमें कुमारसेन द्वितीयका उल्लेख किया गया है क्योंकि इस नामके पश्चात हेमचन्द्र आदिके जो नाम प्रशस्तिमें लिये गए हैं वे सब ज्योंके त्या इस पट्टावलोमें कुमारसेन द्वितीयके पश्चाद निमद्ध किये गये हैं। अग्रोक्त माथुर सब अनुसार भी इस सघका काल वि.७५३ ही सिद्ध होता है, क्योंकि द.सा ग्रन्थमें उसकी उत्पत्ति इसके २०० वर्ष पश्चात बताई गई है। इसका काल ६५५ माननेपर वह वि.११४५प्राप्त होता है, जम कि उक्त ग्रन्यकी रचना ही वि.६६० में होना सिद्ध है। उसमें ११५५ की घटनाका उल्लेख कैसे सम्भव हो सकता है। ५. माथुर संघ जैसाकि पहले कहा गया है यह काष्ठा सघकी ही एक शाखा या गच्छ है जो उसके २०० वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुआ है। मथुरा नगरी में उत्पन्न होने के कारणहो इसका यह नाम पड़ गया है। पौछीका सर्वथा निषेध करनेके कारण यह निष्पिच्छक संघके नामसे प्रसिद्ध है। द पा/मू ४०,४२ तत्तो दुमएतीदे म राए माहुराण गुरुणाहो। णामेण रामसेणो णिपिच्छ वणियं तेण ।४०। सम्मतपयडिमिच्छतं काय जंजिणिंद बिबेसु । अप्पपरणि िमु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ४१॥ एसो मम होउ गुरू अवरोणरिथ त्ति चित्तपरियरण । सगगुरुकुलाहिमाणो इयरेसु वि भगकरण च ।४२।- इस (काष्ठा सघ) के २०० वर्ष पश्चात अथाव वि.६५३ में मथुरा नगरीमें माथुरसघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने नि पिच्छक रहनेका उपदेश दिया, उसने पीछीका सर्वथा निषेध कर दिया ।४२। उसने अपने और पराये प्रतिष्ठित क्येि हुये जिनबिम्बों की ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भावसे पूजा बन्दना करने, मेरा यह गुरु है दूसरा नहीं इस प्रकारके भाव रखने, अपने गुरुकुल (सघ) का अभिमान करने और दूसरे गुरुकुलोंका मान भंग करने रूप सम्यक्त्व प्रकृति मिथ्यालका उपदेश दिया। द. पाटी ११/११/१८ निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्तं च ढाढसीगाथासु-पिच्छे ण हु सम्मत्त करगहिए मोरचमरडंबरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि झायव्यो । सेयंबरो य २१ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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