________________
इतिहास
३२२
७ पट्टावलिय तथा गुर्वावलिरे
आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभावभावियप्पा लहेय मोक्रव ण सदेहो ।२। निष्पिच्छिक मयूर आदिकी पिच्छीको नही मानते । ढाढसी गाथामें कहा भी है-मोर पख या चमरगायके बालोकी पिछी हाथ में लेनेसे सम्यक्त्व नहीं है। आत्माको आत्मा ही तारता है, इसलिए आत्मा ध्याने योग्य है ।। श्वेत वस्त्र पहने हो या दिगम्बर हो, बुद्ध हो या कोई अन्य हो, समभावसे भायी गयी
आत्मा ही मोक्ष प्राप्त करती है,इसमें सन्देह नहीं है ।२। द. सा //४४ प्रेमी जी 'माथुरसधे मूलतोऽपि पिच्छिंका नादृता ।
- माथुरसबमें पोछीका आदर सर्वथा नही किया जाता। दे. शीर्षक/६/१ में हरिभद्र सुरिकृत षट्दर्शनका उद्धरण-बन्दमा करने बालेको धर्मवृद्धि कहता है। स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति सवस्त्र मुक्ति नहीं मानता।
७. पदावलिये तथा गर्वावलियें १. मूलसंघ विभाजन
मूल संघकी पट्टावली पहले दे दी गई (दें. शीर्षक १/२) जिसमें वीर-निर्वाणके ६८३ वर्ष पश्चात तक की श्रुतधर परम्पराका उल्लेख किया गया और यह भी बताया गया कि आ अहंबलीके द्वारा यह मूल संघ अनेक अवान्तर संघो में विभाजित हो गया था . आगे चलने पर ये अत्रान्तर सध भी शाखाओं तथा उपशाखाओमें विभक्त होते हुए विस्तारको प्राप्त हो गए। इसका यह विभक्तिकरण किस क्रमसे हुआ, यह बात नोचे चित्रित करनेका प्रयास किया गया है ।
अगांशधारियोकी परम्परामें लोहाचार्य २ (बी.नि ५१५-५६५)
अर्ह बलि (वी.नि. ५६५-५६३)
गुणधर
धरसेन
माघनन्दि
पुष्पदन्त (५६३-६३३)
मन्दिसंघ बलात्कार गण (दे. आगे पृथक् पट्टावली)
आर्यमथु (६००-६५०)
भूतबली (५६३-६८३)
जिन चन्द्र (६४५-६५४)
नागहस्ति (६२०-६८७)
यतिवृषभ (६५०-७००)
(६५४-७०६)
शाखा १ गृद्धपिच्छ उमास्वामी (वी नि ७०६-७७०)
(ई. १७६-२४३)
शाखा २ वादिराज समन्तभद्र (वि,श २-३) (ई १२०-१८५)
काल निर्णय जैसाकि ऊपर कहा गया है, द सा ए० के अनुसार इसकी उत्पत्ति
काष्ठास घमे २०० वर्ष पश्चात हुई थी तदनुसार इसका काल ७५३+ २०० - वि ६५३ (वि श १०) प्राप्त होता है । परन्तु इसके प्रवर्तकका नाम वहां रामसेन बताया गया है जबकि काष्ठासघकी गुर्वावली में वि. ६५३के आसपास रामसेन नाम के कोई आचार्य प्राप्त नहीं होते है। अमित गति द्वि.(वि १०५०-१०७३) कृत सुभाषितरत्नसन्दोहमे अवश्य इम नाम का उल्लेख प्राप्त होता है। इसीका लेकर प्रेमोजी अमित गति वि को इसका प्रवर्तक मानकर काष्ठासंघको वि. १५३ में स्थापित करते है, जिसका निराकरण पहले किया जा चुका है।
६.भिल्लक संघद सा /मू ४५-४६ दक्विदेसे विझे' पुक्कलए बीरचंदमुणिणाहो । अट्ठारसएतीदे भिल्लयसघ परूवेदि ।४५॥ सोणियगच्छं किच्चा पडिकमण तह य भिण्णकिरियाओ। वण्णाचार विवाई जिमग्ग सुट्छु गिहणेदि ।४६। -दक्षिणदेशमें विन्ध्य पर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द नामका मुनिपत्ति विक्रम राज्यकी मृत्यु के १८०० वर्ष बीतने के पश्चात भिसलक सघको चलायेगा ।४५१ वह अपना एकअन्नग गच्छ बनाकर जुदा ही प्रतिक्रमण विधि बनायेगा । भिन्न क्रियाओ का उपदेश देगा और वर्णाचारका विवाद खड़ा करेगा। इस
तरह वह सच्चे जैनधर्म का नाश करेगा। द.सा/प्र.५ प्रेमीजो-उपयुक्त गाथाओमें ग्रन्थकर्ता (श्री देवसेनाचा)
ने जो भविष्य वाणी की है वह ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योकि वि. १८०० को आज २०० वर्ष बीत चुके है, परन्तु इस नामसे किसी संघ की उत्पत्ति सुनने में नहीं आई है। अत भिल्लक नामका कोई भी संघ आज तक नहीं हुआ है।
७ अन्य संघ तथा शाखायें जैसा कि उस संघका परिचय देते हुए कहा गया है, प्रत्येक जैनाभासी संघकी अनेकानेक शाखाये या गच्छ है, जिसमें से कुछ ये है-१ गोप्य सध यापनीय सघका अपर नाम है। द्राविडसबके अन्तर्गत चार शाखाये प्रसिद्ध है, २. नन्दि अन्वय गच्छ, ३, उरुकुल गण, ४. एरि गित्तर गण, और ५. मूलितल गच्छ । इस प्रकार काष्ठास घमें भी गच्छ है,६ नन्दितट गच्छ वास्तव में काष्ठासघ को कोई शाखा न होकर नन्दितट ग्राममें उत्पन्न होने के कारण स्वय इसका अपना हो अपर नाम है। मथुरामें उत्पन्न होनेवाली इस संघकी एक शाखा ७.माथुर गच्छ के नाममे प्रसिद्ध है, जिसका परिचय माथुर सघ के नामसे दिया जा चुका है । काष्ठासघकी दो शाखाये ८.बागड गच्छ और ह.लाडबागड गच्छ के नामसे प्रसिद्ध है जिनके ये नाम उस देश में उत्पन्न होने के कारण पड़ गए है।
सिहनन्दि न.१ ई श. २ बलाकपिच्छ लोहाचार्य३ पात्रके सरी ई. श६-७ (ई २२०-२३१)
वक्रग्रीव
बज्रनन्दि नं २वि श६ नन्दिसंघ नदिसघ सुमतिदेव ई. श.७-८ देशीय गण बलात्कारगण (दे. शीर्षक (दे. शीर्षक कुमारसेन ७/१) ७/२ ) (काष्ठासंघी) वि. ७५३
चिन्तामणि वद्धदेव (चूडामणि) महेश्वर मुनि
(ती./४/३८२ पर उद्धृत मल्लिषेण प्रशस्तिसे)
पुष्पसेन
अकलंक भट्ट प. कैलाशचन्द = ई. ६२०-६८० पं महेन्द्रकुमार ई.७२० ७८०
महोदेव ई ६६५-७०५
वादीभ सिह (ओडय देव) ई. ७७०-८६०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org