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इतिहास
६. दिगम्बर जैनाभासी संघ
ऐसा करने पर क्यों कि वी. नि. ४८८ में विक्रम राज्य मानकर की गई आ इन्द्वनन्दिकी काल गणना वी, 'नि ४८८+११७-६०५ होकर शक संवत्के साथ ऐक्य को प्राप्त हो जाती है. इसलिए कुन्दकुन्द से आगे वाले सभी के कालोमें ११७ वर्षकी वृद्धि करते जानेकी बजाये उनकी गणना पट्टावली में शक सक्तकी अपेक्षा से कर दी गई है। (विशेष दे परिशिष्ट ४)।
३. देशीय गण कन्दकन्द प्राप्त होने पर नन्दिसघ दो शाखाओमें विभक्त हो गया। एक तो उमास्वामीकी आम्नायकी ओर चली गई और दूसरीसमन्तभद्र की ओर जिस में आगे जाकर अक्लंक भट्ट हुए। उमास्वामीकी आम्नाय पुन दो शाखाओं में विभक्त हो गई। एक तो बलात्कारगण की मूल शाखा जिसके अध्यक्ष गोलाचार्य तृ हुए और दूसरीबलाकपिच्छको शाखा जो देशीय गणके नामसे प्रसिद्ध हुई। यह गण पुन. तीन शाखाओं में विभक्त हुआ, गुणनन्दि शाखा, गोलाचार्य शारखा और नयकीर्ति शाखा । (विशेष दे, शीर्षक ७/१,५) । ३. अन्य संघ आचार्य अर्ह बलोके द्वारा स्थापित चार प्रसिद्ध सघोमें से नन्दिसंध का परिचय देनेके पश्चात अब सिंहसघ आदि तोनका कथन प्राप्त होता है। सिंहकी गुफा पर वर्षा योग धारण करने वाले आचार्यकी अध्यक्षतामें जिस सध का गठन हुआ उसका नाम सिह संघ पडा । इसी प्रकार देव दत्ता नामक गणिकाके नगरमें वर्षा योग धारण करनेवाले तपस्वीके द्वारा गठिन सघ देव संघ कहलाया और तृणतल में वर्षा योग धारण करने वाले जिनसेन का नाम वृषभ पड़ गया था उनके द्वारा गठित सघ वृषभ संघ कहलाया इसका ही दूसरा नाम सेन सघ है। इसकी एक छोटी-सी गुर्वावली उपलब्ध है जो आगे दी जानेवाली है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने जिस सघको महिमान्वित किया उसका नाम पचस्तूप संघ है इसीमे आगे जाकर जैनाभासी काष्ठा सघ के प्रवर्तक श्री कुमारसेन जी हुए। हरिवंश पुराणके रचयिता श्री जिनसेनाचार्य जिस संघमें हुए बह पुन्नाट सघ के नामसे प्रसिद्ध है। इसकी एक पट्टावली है जो आगे दी जाने वाली है। ६ दिगम्बर जैनाभासी सघ
१ सामान्य परिचयनीतिसार (तो म आ/४/३५८ पर उद्धत)-पूर्व श्री मूल संघस्तदनु सितपट. काष्ठस्ततो हि तावामुदादिगच्छा पुनरजनि ततो यापुनीसघ एकः । मूल संघमें पहले (भद्रबाहू प्रथमके कालमें) श्वेताम्बर सध उत्पन्न हुआ था (दे, श्वेताम्बर)। तत्पश्चात (किसी काल में) काष्ठा संघ हुआ जो पीछे अनेको गच्छोमे विभक्त हो गया। उसके कुछ ही काल पश्चात् यापुनी सघ हुआ। नोतिसार (द पा /टो ११में उद्धृत)-गोपुच्छकश्वेतवासा द्रविडो यापनीय निश्पिच्छश्चति चैते पञ्च जैनाभासा प्रकीर्तिता । गोपुच्छ (काष्ठा सघ), श्वेताम्बर, द्रविड, यापनीय और निश्पिच्छ (माथुर
सघ) ये गांच जैनाभासी कहे गये है। हरिभद्र सूरोकृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ गुणरत्नकृत टोका-"दिगम्बरा
पुनर्नाग्न्यलिगा पाणिपात्रश्व । ते चतुर्धा, काष्ठसंध-मूलसंघ-माथुरसघ गोप्यसघ भेदात् । आद्यास्त्रयोऽपि सघा वन्द्यमाना धर्मवृद्धि भणन्ति गोप्यास्तु बन्धमाना धर्मलाभ भण ति । स्त्रोणा मुक्ति केवलीना भुक्ति सनतस्यापि सचीवरस्य मुक्ति च न मन्वते। सवेषां च भिक्षाटने भोजने च द्वात्रिंशदन्तराया मलाश्च चतुर्दश वर्ननीया। शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्वश्वेताम्बरैस्तुत्यम् । नास्ति तेषा मिथ शास्त्रेषु तर्केषु परो भेद.। = दिगम्बर नग्न रहते है और हाथमें भोजन करते है । इनके चार भेद है, काष्ठासघ, मूलस घ, माथुरसघ और गोप्य (यापनीय) संघ । पहलेके तीन (काष्ठा, मल तथा माथुर) वन्दना
करनेवालेको धर्मवृद्धि कहते हैं और स्त्री मुक्ति, केवलि भुक्ति तथा सवतोंके सद्भभावमें भी सवस्त्र मुक्ति नहीं मानते है । चारोहीसंघों के साधु भिक्षाटनमें तथा भोजनमें ३२ अन्तराय और १४ मलोको टालते है। इसके सिवाय शेष आचार (अनुदिष्टाहार, शून्यवासआदि तथा देव गुरुके विषयमें (मन्दिर तथा मूर्तिपूजा आदिके विषयमें) सब श्वेताम्बरों के तुल्य है । इन दोनीके शास्त्रोमें तथा तोंमे (सचेलता,स्त्रीमुक्ति और कवलि भुक्तिको छोड़कर) अन्य कोई भेद नहीं है द.सा/४० प्रेमी जी-ये सघ वर्तमानमें प्राय ला हो चके है । गोपच्छकी पिच्छिका धारण करने वाले कतिपय भट्टारको के रूपमें केवल काष्ठा संघका ही कोई अन्तिम अवशेष कहीं कहीं देखनेमे आता है। २ यापनीय संघ
१ उत्पत्ति तथा काल भद्रमाहुचारित्र ४/१५४-ततो यापनसंघोऽभूत्तेषी कापथवर्तिनाम् । -
उन श्वेताम्बरियोमें से कापथवर्ती यापनीय सब उत्पन्न हुआ। द सा./मू २६ कल्लाणे वरणयरे सत्तसए पच उत्तरे जादे । जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ।२६ - कल्याण नामक नगरमें विक्रमकी मृत्यु के ७०५ वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतनेपर) श्रीकलश नामक श्वेताम्बर साघुसे यापनीय संघका सद्भाव हुआ।
२ मान्यताये द, पा/टी, ११/११/१५-यापनीयास्तु वेसरा इबोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च बाचयन्ति, स्त्रीणा तद्भवे मोक्ष, केवलिजिनाना कवलाहार, परशासने सग्रन्थाना मोक्ष च कथयन्ति। -यापनीय संघ (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) दोनोको मानते है। रत्नत्रयको पूजते है, (श्वेताम्बरोके) करु पसूत्रको बाँचते है. (श्वेताम्बरियोकी भौति) स्त्रियोका उसी भवसे मुक्त होना केवलियोका कवलाहार ग्रहण करना तथा अन्य मतावलम्बियोको और परिग्रहधारियों को
भी मोक्ष होना मानते है । हरिभद्र सूरि कृत षट् दर्शन समुच्चयकी आ. गुणरत्न कृत टीका
गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभ भणन्ति । स्त्रीणां मुक्ति केवलिणा भुक्ति च मन्यन्ते। गोप्या यापनीया इत्युच्यन्ते । सर्वेषा च भिक्षाटने भोजने च द्वान्तिशदन्तरायामलाश्च चतुर्दश वर्जनीया । शेषमाचारे गुरौ च देवे च सर्व श्वेताम्बरै स्तुत्यम् । = गोप्य संघ वाले साधु वन्दना करनेवालेको धर्मलाभ कहते है । स्त्रीमुक्ति तथा केबलिभुक्ति भी मानते है। गोप्यसघको यापनीय भी कहते है। सभी (अर्थात् काष्ठा सघ आदिके साथ यापनीय संघ भी) भिक्षाटनमें
और भोजनमे ३२ अन्तराय और १४ मलोको टालते है। इनके सिवाय शेष आचारमे (महावतादिमे) और देव गुरुके विषयमे (मूर्ति पूजा आदिक विषयमे) सत्र (यापनीय भी) श्वेताम्बरके तुल्य है।
३ जैनाभासत्व उक्त सर्व कथनपरसे यह स्पष्ट है कि यहसंघ श्वेताम्बर मतमे से उत्पन्न हुआ है और श्वेताम्बर तथा दिगम्बरके मिश्रण रूप है । इसलिये जैनाभास कहना युक्ति सगत है ।
४ काल निर्णय इसके समयके सम्बन्धमे कुछ विवाद है क्योकि दर्शनसार ग्रन्थकी दो
प्रतियाँ उपलब्ध है । एकमे वि.७०५ लिखा है और दूसरेमे वि.२०१॥ प्रेमीजीके अनुसार वि.२०५ युक्त है क्योंकि आ. शाकटायन और पाल्य कीर्ति जो इसी सपके आचार्य माने गये हैउन्होने स्त्री मुक्ति
और केवलभुक्ति' नामक एक ग्रन्थ रचा है जिसका समय वि. ७०५ से बहुत पहले है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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