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इतिहास
३१७
४. दिगम्बर मूल संघ
दृष्टि
दृष्टि २
दृष्टि
नं.३
विशेष
नं.
नाम
नोट
ज्ञान
वर्ष ।
समुदितावी नि.सं.. | काल
वर्ष
अंगधारी ५२ (५०)/ ५१५-५६५ १ अंगधारी | ५६५-५८५
२८ लोहाचार्य २६ विनयदत्त ३० श्रीदत्त न.१
| शिवदत्त ३२/ अहंदत्त
. समकालीन है
-२० वर्ष-
श्रुतावतारकी मूल पट्टावली में इन चारोंका नाम नहीं है । (ध १/प्र. २४/H.L. Jain) । एकसाथ उल्लेख होनेसे समकालीन है। इनका समुदित काल २०वर्ष माना जा सकता है (मुख्तार साहब) गुरु परम्परासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है (दे, परिशिष्ट २) आचार्य काल । सध विघटनके पश्चावसे समाधिसरण तक (विशेष दे. परिशिष्ट २)
३३, अर्ह दलि
(गुप्तिगुप्त)
→
अगांशधर अथवा पूर्व विद
५६५-५७५ / १० ५७५-५६३१८
३४ माघनन्दि
इन नामों का उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। जोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है।
१
५६३-६१४ | "
४
११८ वर्ष
५७५-५७६ ५७६-६१४
३. धरसेन
नन्दि स पके पट्ट पर। पट्ट भ्रष्ट हो जानेके पश्चात समाधिमरण तक। (विशेष दे परिशिष्ट २) अहं लीके समकालीन थे। वी नि.६३३ में समाधि । (विशेष दे. परिशिष्ट २) धरसेनाचायके पादमूलमें ज्ञान प्राप्त करके इन दोनोने षट् खण्डागमकी रचना की (विशेष दे. परिशिष्ट २)
३०
५६३-६३३
६३३-६६३
३६ पुष्पदन्त
६६३-६८३
३७ भूतबलि
३. पट्टावली का समन्वयध, १/प्र./H L.Jain/पृष्ठ संख्या-प्रत्येक आचार्य के कालका पृथकपृथक् निर्देश होनेसे द्वितीय दृष्टि प्रथमकी अपेक्षा अधिक ग्राह्य है ।२८। इसके अन्य भी अनेक हेतु है । यथा-(१) प्रथम दृष्टिमें नक्षत्रादि पाँच एकादशांग धारियोका २२० वर्ष समुदित काल बहुत अधिक है ।२६। (२) प. जुगल किशोरजीके अनुसार विनयदत्तादि चार आचार्योंका समुदित काल २० वर्ष और अहवाल तथा माघनन्दिका १०-१० वर्ष कल्पित कर लिया जाये तो प्रथम दृष्टिसे धरसेनाचार्यका काल वी.नि. ७२३ के पश्चात हो जाता है, जबकि आगे इनका समय बी नि ५६५-६३३ सिद्ध किया गया है ।२४। (३) सम्भवत' मूलसंघका विभक्तिकरण हो जानेके कारण प्रथम दृष्टिकारने अहहलो आदिका नाम वी.नि के पश्चातवाली ६८३ वर्षकी गणनामें नहीं रखा है, परन्तु जैसा कि परिशिष्ट २ में सिद्ध किया गया है इनकी सत्ता ६८३वर्ष के भीतर अवश्य है ।२८. इसलिये द्वितीय दृष्टि ने इन नामोका भी संग्रहकर लिया है। परन्तु यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इनके कालकी जो स्थापना यहाँ की गई है उसमें पट्टपरम्परा या गुरु शिष्य परम्पराकी कोई अपेक्षा नहीं है, क्योकि लोहाचार्य के पश्चात् वी नि ५७४ में अर्हवली के द्वारा सघका विभक्तिकरण हो जानेपर मूल सघकी सत्ता समाप्त हो जाती है (दे. परिशिष्ट २ में 'अर्ह वली')। ऐसी स्थितिमें यह सहज सिद्ध हो जाता है कि इनकी काल गणना पूर्वावधिकी बजाय उत्तरावधिको अर्थाव उनके समाधिमरणको लक्ष्य में रखकर की गई है। वस्तुत' इनमें कोई पौर्वापर्य नही है। पहले पहले वालेको उत्तराधि ही आगे आगे वालेकी पूर्वावधि बन गई है। यही कारण है कि सारणीमें निर्दिष्ट कालों के साथ इनके जीवन वृत्तोकी सगति ठीक ठोक परित नहीं होती है। (४) दृष्टि न,३ में जैन इतिहासकारोने इनका सुयुक्तियुक्त काल निर्धारित किया है जिसका विचार परिशिष्ट २ के अन्तर्गत विस्तारके साथ किया गया है। (२) एक चतुर्थ दृष्टि भी
प्राप्त है । वह यह कि द्वितीय दृष्टिका प्रतिपादन करनेवाले श्रुतवतार में प्राप्त एक श्लोक (दे, परिशिष्ट ४) के अनुसार यशोभद्र तथा भद्रबाहू द्वि. के मध्य ४-५ आचार्य और भी है जिनका ज्ञान श्रुतावतारके कर्ता श्री इन्द्रनन्दिको नहीं है। इनका समुदित काल ११८ वर्ष मान लिया जाय तो द्वि दृष्टिसे भी लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष पूरे हो जाने चाहिए। (पं.स./प्र./H L.Jan), (स सि / ७८/पं. फूलचन्द)। परतु इस दृष्टिको विद्वानोका समर्थन प्राप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर अर्हवली आदिका काल उनके जीवन वृत्तोसे बहुत आगे चला जाता है।
४. मूल संघका विघटन जैसा कि उपर्युक्त सारणी में दर्शाया गया है भगवान् वीरके निर्वाणके
पश्चात गौतम गणधरसे लेकर अर्ह बली तक उनका मूलसघ अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा । आ० अर्ह बलीने पचवर्षीय युगप्रतिक्रमणके अवसर परमहिमानगर जिला सतारामें एक महान यतिसम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके साधु सम्मिलित हुए। उस समय उन साधुओंमें अपने अपने शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपातकी बू देखकर उन्होने मूलसंघकी सत्ता समाप्त करके उसे पृथक् पृथक् नामोवाले अनेक अवान्तर सपोमें विभाजित कर दिया जिसमे से कुछके नाम ये है-१. नन्दि, २. वृषभ ३. सिह, ४ देव, ५ काष्ठा. ६. वीर, ७. अपराजित, ८. पचस्तूप, ६. सेन, १०.भद्र, ११. गुणधर, १२ गुप्त, १३. सिंह, १४. चन्द्र इत्यादि (ध १/प्र.१४ HI. Jain) ।
इनके अतिरिक्त भी अनेको अवान्तर संध भी भिन्न भिन्न समयोंपर परिस्थितिवश उत्पन्न हाते रहे। धीरे धीरेइनमें से कुछ संघो में शिथिलाचार आता चला गया. जिनके कारण वे जैनाभासी कहलाने लगे (इनमें छ प्रसिद्ध है-१.श्वेताम्बर, २. गोपुच्छ या काष्ठा, ३. द्रविड, ४, यापनीय या गोप्य, ५ निष्पिच्छ या माथुर और ६. भिल्लक
५ श्रुत तीर्थको उत्पत्ति - घ.४/१.४४/१३० चोइसपइण्णयाणमगबज्माणं च सावणमास-बहुलपक्रव-जुगादिपडिवयपुब्यदिवसे जेण रयणा कदा तेणिदभूदिभडारओ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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