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इतिहास
वंशका नाम सामान्य विशेष
७ गुप्त वंश
-
सामान्य प्रारम्भिक
अवस्था में
चन्द्रगुप्त
समुद्रगुप्त
चन्द्रगुप्त
दिव्य
स्कन्द गुप्त
कुमार गुप्त
भानु गुप्त
इतिहास
ईसवी वर्ष
जैन शास्त्र | २३१ इतिहास
३२०-४६० १४०
३२०-३३०
३३० - ३७५
३७५-४१३
४१३-४३५ वी. नि
६४-६६२
४३३४६० ४६०-५०७
१०
४५
३८
२२
२५ ४७
८. कल्की तथा हून वंश *
जैन शास्त्रका कल्की वश
I
वी० नि० | वर्ष/
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६५८-१०७३ ११५
१५८-१००० ४२
३१५
आगमकारों व इतिहासकारोकी अपेक्षा इस वंशको पूर्वावधिके सन्बन्धमें समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. २०१ - ३२० तक यह कुछ प्रारम्भिक अवस्थामें रहा
1
इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करनेके उपलक्ष्य में गुप्त सम्बत् चलाया। इसका विवाह लिच्छित्र जातिकी एक कन्याके साथ हुआ था । यह विद्वानोका बडा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबारका ही रत्न था ।
इतिहासका ना
इसके समय हूनशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्दगुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. ४३७ में जबकि गुप्त संवत् ११७ था यही राजा राज्य करता था। (कपा, १ / / ५४/६५ / पं. महेन्द्र )
नाम
सामान्य
विशेष घटनायें
इस वंशकी अखण्ड स्थिति वास्तव में स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात, हूनोके आक्रमण के द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयो । यही कारण है कि आगमकारोंने इस वशको अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वोनि ६६८) तक ही स्वोकार को है। कुमारगुप्तके काल में भी हूनो के अनेको आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्य का बहुभाग उनके हाथमें चला गया और भानुगुप्त के समय में तो यह कमजोर हो गया कि ई. ५०० में हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब व मालबा पर अधिकार जमा लिया । तथा तोरमाणके पुत्र मिहरपालने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया।
नाम सामान्य इन्द्र शिशुपाल
१०००-१०३३ ३३,
तोरमाण
चतुर्मुख १०३३-१०५५ ४०
मिहिरकुल
१०५४-१००३।
विष्णु यशोधर्म आगमसारोका काकी वश हो इतिहासकारोका
है, स्पो
कि यह एक बर्बर जगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे । आगम व इतिहास दोनो की अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओपर स्कन्द गुप्त के समय से ई० ४३२ से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। विशेषर्षक २५३)
नोट - जैनागममे प्राय सभी मूल शास्त्रोमे इस राज्य वंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दा है- एक तो राजा 'कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना । यद्यपि अन्य राज्य वंशोका कोई उल्लेख आगममे नहीं है, परन्तु मूल परम्परा के पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र रचयिताओं का विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओ का परिचय भी होना आवश्यक है । इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वशोका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्योंके साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है ।
ईसवी वर्ष ४३१- ५४६ ११५ ४३१-४७३ | ४२ ४७३-५०६ | ३३ ४०६-५२०२ ५२८ ५४६ १८
४. राष्ट्रकूट वंश (प्रमाण के लिए -- दे. वह वह नाम) सामान्य - जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य के साथ है जो भारत के इतिहास में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार हो राजाओं का नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्ण तृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपने से पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्त में था । इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पोछेले बडाते-बढाते इन्होने लाट शव अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला दिया था।
४. दिगम्बर मूलसंघ
१. जगतुङ्ग - राष्ट्रकूट व शके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्ष के पिता और इन्द्रराजके बडे भाई थे अत' राज्य के अधिकारी यही हुए। बडे प्रतापी ये इनके समय पहले साट देश में 'यात्रु-भयंकर कृष्णराज प्रथम नाम अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे । इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे । राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश 'श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. ७१६-७३५ (ई ७६४-८१३) निश्चित किया गया है । २. अमोघवर्ष - इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये । जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय
के 5 पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये । कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे । ध ुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढाईकर दी । अपने पेरे भाई कर्कराम (जग छोटे भाईराजका पुत्र) की सहायताते उसे जीत लिया। इनका काल वि. ८७११३५ ( ई. ८१४-८७८) निश्चित है । ३. अकालवर्ष - वत्सराज से अनन्त देश जीतकर दयाकृष्ण प्रथमपुत्र राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये । अमोघवर्ष के पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई, ८७८-११२ निश्चित है । ४ कृष्णराज तृतीय प्रकाश पुत्र और कृष्ण तृतीयक उपाधिको प्राप्त
४ दिगम्बर मूल संघ
१ मूलसंघ
भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल सघ १६२ वर्षके अन्तरासमे होने वाले गौराम से लेकर अन्तिम भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समय में अवन्ती देशमें पडनेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य मे इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओमे विभाजित हो गया
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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