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इतिहास
वशका नाम सामान्य / विशेष
५. शक वंश
सामान्य प्रारम्भिक अवस्था में
१. पुष्यमित्र २५५ - २८५ २७२-२४२
२. चक्षु मित्र | २८५-३४५२४२-१८२ (वसुमित्र ) अग्रिमित्र
(भानुमित्र)
प्रबल अवस्था में
गर्द भिल्ल
(गन्धर्व)
नरवाहन ( नमः सेन)
६. भृत्य वश (कुशान वश)
सामान्य
प्रारम्भिकअवस्थामें
वंशका नाम सामान्य विशेष प्रबल स्थितिमे
गौतम
जैन शास्त्र ति प ४/१५०७
वीि
शवान (सातकर्षि)
कनिष्क
२५४-४८५ २७२- ४२ २३० २५५-३४५२७२-१८२
३४५-४४५ १८२-८२ १००
अन्य सरदार ४४५-५६६ ई. पू. ८२ - १२१
ई. २६ ३६-७६ ४०
२६६-६०६
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२८५-३४५ २४२ - १८२
४८५-७२७ पू. ४२
ई. २००
४८५ ५६६ | पू. ४२ई.
लोक इतिहास ईसपी वर्ष
४०-७४ ३४ ७४-१२० ४६. वी नि
वर्ष
६०१-६४७ १२०-१६२ ४२
अन्य राजा १६२-२०१ ३६ अवस्थामै २०१-३२० १९६
६०
३०
६०
६०
२४२
८१
लोक इतिहास
पं.पू.
वर्ष
१८५-१२०
अनुमानत. १-१-१४१
६५
४०
१४९.०२२१
३१४
८०-१२० ४०
४०-३२० २८०
३. ऐतिहासिक राज्यवंश
विशेष घटनाये
यह वास्तव में कोई एक अखण्ड वंश न था, बल्कि छोटे-छोटे सरदार थे, जिनका राज्य मगध देशको सीमाओ पर बिखरा हुआ था । यद्यपि विक्रम वशका राज्य वी. नि. ४७० में समाप्त हुआ है, परन्तु क्योंकि चन्द्रगुटके कालमे हो इन्होंने छोटी-छोटी रियासतों पर अधि कार कर लिया था, इसलिए इनका काल वी. नि. २५५ से प्रारम्भ करने में कोई विरोध नही आता ।
वसुमित्र और अग्निमित्र समकालीन थे, तथा पृथक्-पृथक् प्रान्तों में राज्य करते थे ।
यद्यपि गर्द भिल्ल व नरवाहनका काल यहाँ ई. पू १४२ - ८२ दिया है, पर यह ठीक नही है, क्योंकि आगे राजा शालिवाहन द्वारा वी. नि. ६०५ (ई ७६) में नरवाहनका परास्त किया जाना सिद्ध है । अत. मानना होगा कि अवश्य ही इन दोनोके बीच कोई अन्य सरदार रहे होगे, जिनका उल्लेख नही किया गया है। यदि इनके मध्य में या ६ सेरवार और भी मान लिए जायें तो नरवाहनकी अन्तिम अवधि ई. १२० को स्पर्श कर जायेगी और इस प्रकार इतिहासकारो के समय साथ भी इसका मेल खा जायेगा और शालिवाहन के समय के साथ भी ।
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इतिहासकारों को कुशान जाति ही आगमकारोका भृत्य वंश है क्योंकि दोनोंका कथन लगभग मिलता है। दोनो ही शको पर विजय पानेवाले थे । उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनोंने समान समय ही कोका नाश किया है। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनो ही समान पराक्रमी शासक थे। दोनोका ही साम्राज्य विस्तृत था कुशान जाति एक महिष्कृत चीनी जाति थी जिसे ई. पू. दूसरी शताब्दीमे देशसे निकाल दिया गया था । वहाँ से चलकर बखतियार
काबुल के मार्ग ईपू ४९ के लगभग भारतमे प्रवेश कर गये। यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रदेशा पर इन्होने अधिकार कर लिया था परन्तु ई. ४० में उत्तरी पंजाब पर अधिकार कर लेनेके पश्चात् ही इनकी सत्ता प्रगट हुई। यही कारण है कि आगम व इतिहासको मान्यताओ में इस वशकी पूर्वावधि सम्बन्ध में ८० वर्षका अन्तर है।
विशेष घटनायें
ई. ४० में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शको के साथ टक्कर लेने लगी । इस वशके दूसरे राजा गौतमीपुत्र सातकर्णी (शालिवाहन) ने शको अन्तिम राजा नरवाहनको बी. नि. ६०६ ( ई. ७६) में परास्त करके शक संवत्को स्थापना की। (क.पा./१/१/५३/६४ / महेन्द्र |
राजा कनिष्क इस वंशका तीसरा राजा था, जिसने शकोवा मुलच्छेद करके भारतमें एकछत्र विशाल राज्यकी स्थापना की।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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कनिष्क के पश्चात् भी इस जातिका एक्छत्र शासन ई २०१ तक चलता रहा इसी कारण आगमकारोने यहाँ तक ही इसको अवधि अन्तिम स्वीकार को है परन्तु इसके पश्चात् भी इस वंशका मूलीच्छेद नहीं हुआ। गुप्त वंशके साथ टक्कर हो जानेके कारण इसकी शक्ति क्षीण होती चली गयी। इस स्थिति में इसकी सत्ता ई. २०१-३२० तक बनी रही। यही कारण है कि इतिहासकार इसकी अन्तिम अवधि २०१ को बजाये ३२० स्वीकार करते है ।
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