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इतिहास
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५. दिगम्बर जैन संघ
बढमाण जिगतित्थगंथकत्तारो। उक्तं च-'वासस्स पढममासे पढमे पक्रवम्मि सावणे बहुले । पडिवदपुवदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभि
जिम्मि ४०।' ध.१/१.२/६५ तित्थयरादो सुदपज्जरण गोदमो परिणदो त्ति दब्व-मुदस्स गोदमो कत्ता - चौदह अगबाह्य प्रकीर्ण कोकी श्रावण मास के कृष्ण पक्षमे युगके आदिम प्रतिपदा दिनके पूर्वाह्नमे रचना की गई थी। अतएव इन्द्रभूति भट्टारक बद्धमान जिनके तीर्थ में ग्रन्थकर्ता हुए। कहा भी है कि 'वर्ष के प्रथम (श्रावण) मासमे, प्रथम (कृष्ण) पक्षमें अर्थात श्रावण कृ प्रतिपदाके दिन सवेरे अभिजित नक्षणमें तीर्थ की उत्पत्ति हुई । तोर्थ से आगत उपदेशोको गौतमने श्रुतके रूपमे परिणत किया। इसलिये गौतम गणधर द्रव्य श्रुतके कर्ता है। ६ श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास
भगवान महावीर के निर्वाण जानेके पश्चाद १२ वर्ष तक इन्द्रभूति (गौतम गणधर) आदि तीन केबल्ली हुए। इनके पश्चात् यद्यपि केवलज्ञानकी व्युच्छित्ति हो गई तदपि ११ अग १४ पूर्वके धारी पूर्ण श्रुतकेवली बने रहे इनकी परम्परा १०० वर्ष तक (विद्वानोके अनुसार १६० वर्ष तक) चलती रही। तत्पश्चात श्रुत ज्ञानका क्रमिक हास होना प्रारम्भ हो गया। वी नि ५६५ तक १०,६,८ अंगधारियोकी परम्परा चली और तदुपरान्त वह भी लुप्त हो गई। इसके पश्चात वी नि ६८३ तक श्रुतज्ञानके आचारागधारी अथवा किसी एक आध अंगके अशधारी ही यत्र-तत्र शेष रह गए।
इस विषयका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमे दो स्थानोपर प्राप्त होता है, एक तो तिल्लोय पण्णति, हरिवंश पुराण, धवला आदि मूल ग्रन्थों में और दूसरा आ इन्द्रनन्दि (वि ६६६) कृत श्रुतावार में । पहले स्थानपर श्रुतज्ञानके क्रमिक ह्रासको दृष्टि में रखते हुए केवल उस उस परम्पराका समुदित काल दिया गया है, जब कि द्वितीय स्थान पर समुदित कालके साथ-साथ उस उस परम्परामे उल्लिखित आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी निर्दिष्ट किया है, जिसके कारण सन्धाता विद्वानों के लिये यह बहुत महत्व रखता है। इन दोनों दृष्टियोका समन्वय करते हुए अनेक ऐतिहासिक गुत्थियोको सुलझानेके लिए विद्वानोंने थोड़े हेरफेरके साथ इस विषयमे अपनो एक तृतीय दृष्टि स्थापित की है । मूलसघकी अग्रोक्त पट्टावलीमे इन तीनो दृष्टियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ५. दिगम्बर जैन संघ
१.सामान्य परिचय ती म,आ /४/३४८ पर उद्धृत नीतिसार-तस्मिन श्रीमूलसंघे मुनिजनविमले सेन-नन्दो च सधौ। स्याता सिहारव्यसंघोऽभवदुरुमहिमा देवसंधश्चतुर्थ ॥ अहंबलीगुरुश्चके सघसंघटनं परम् । सिहसपो नन्दि सध. सेनसघस्तथापर। -मुनिजनोके अत्यन्त विमल श्री मूलस घमें सेनसंध, नन्दिसघ, सिहसंघ और अत्यन्त महिमावन्त देवसघ ये चार संघ हुए। श्री गुरु अहंदवलीके समय में सिहसघ,नन्दिसंघ,सेनसघ (और देवसंध) का सघटन किया गया। श्रुतकीर्ति कृत पट्टावली-ततः परं शास्त्रविदां मुनिनामग्रेसरोऽभूदकल क
सुरि... तस्मिन्गते स्वर्गभुव महर्षी दिव स योगि संधश्चतुर प्रभेदासाद्य भूयानाविरुद्धवृत्तान् ।। देव नन्दि-सिंह-सेन संघभेद वर्तिना देशभेदत प्रभोदभाजि देवयोगिनां । = इन(पूज्यपाद जिनेन्द्र बुद्धि) के पश्चाद शास्त्रवेत्ता मुनियों में अग्रेसर अकलंकसूरि हुए । इनके दिवंगत हो जानेपर जिनेन्द्र भगवान संघके चार भेदोको लेकर शोभित होने लगे-देवसघ, नन्दिसघ, सिंहसंघ और सेनसंध।
नीतीसार (ती./४/३५८)- अर्ह दबलीगुरुश्चक्रे संघसंघटनं परमा सिंहसंघो नन्दिसंघामेनसंघस्तथापर ।देवसंघ इतिस्पष्टं स्टपनस्थितिविशेषत -अर्ह हली गुरुके काल में स्थान तथा स्थितिको अपेक्षासे सिंहसघ, नन्दिसंघ,सेनसघ और देवसघ इन चार सघोका सगठन हुआ । यहाँ स्थानस्थितिविशेषत इस पदपरसे डा नेमिचन्द्र इस घटनाका सम्बन्ध उस कथाके साथ जोडते है जिसके अनुसार आ अहहलीने परीक्षा लेनेके लिए अपने चार तपस्वी शिष्योको विक्ट स्थानी में वर्षा योग धारण करनेका आदेश दिया था। तदनुसार नन्दि वृक्ष के नीचे वर्षा योग धारण करनेवाले माघनन्दि का सघ नन्दिसच कहलाया, तृणतलमे वर्षायोग धारण करनेसे श्री जिनसेनका नाम वृषभ पड़ा और उनका सघ वृषभ सघ कहलाया। सिहकी गुफामें वर्षा योग धारण करनेवालेका सिहसघ और देव दत्ता वेश्याके नगर में वर्षायोग धारण करनेवाले का देवसघ नाम पड़ा । (विशेष दे परिशिष्ट/२/८) २. नन्दि संघ
१ सामान्य परिचय आ. अर्ह हलीके द्वारा स्थापित सघमें इसका स्थान सर्वोपरि समझा जाता है यद्यपि इसकी पट्टावलीमे भद्रबाहू तथा अर्ह बली का नाम भी दिया गया परन्तु वह परम्परा गुरुके रूपमे उन्हे नमस्कार करने मात्र के प्रयोजनसे है। सघका प्रारम्भ वास्तवमें माधनन्दिसे होता है। गुरु अई वलीकी आज्ञासे नन्दि वृक्षके नीचे वर्षा योग धारण करनेके कारण इन्हे नन्दिकी उपाधि प्राप्त हुई थी और उसी कारण इनके इस संघका नाम नन्दिसंघ पडा। माघनन्दिसे कुन्दकुन्द तथा उमास्वामी तक यह सघ मूल रूपसे चलता रहा। तत्पश्चात यह दो शाखाओ में विभक्त हो गया। पूर्व शाखा नन्दिसध बलात्कार गणके नामसे प्रसिद्ध हुई और दूसरी शाखा जैनाभासी काष्ठा सघकी और चली गई। "लोहोचार्यस्ततो जातो जातरूपधरोऽमरै । तत पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणात्" (विशेष दे आगे शीर्षक ६/४) ।
२. बलात्कार गणइस संघकी एक पट्टावली प्रसिद्ध है। आचार्योंका पृथक पृथक काल
निर्देश करनेके कारण यह जैन इतिहासकारोके लिये आधारभूत समझी जाती परन्तु इसमें दिये गए काल मूल सघकी पूर्वोक्त पट्टावली के साथ मेल नहीं खाते हैं, और न ही कुन्दकुन्द तथा उमास्वामीके जीवन वृत्तोके साथ इनकी सगति घटित होती प्रतीत होती है। पट्टावली आगे शीर्षक ७के अन्तर्गत निबद्ध की जानेवाली है। तत्सम्बन्धो विप्रतिपत्तियों का सुमक्तियुक्त समाधान यद्यपि परिशिष्ट ४में किया गया है तदपि उस समाधानके अनुसार आगे दी गई पदावली में जो संक्षिप्त सकेत दिये गये है उन्हें समझनेके लिए उसका संक्षिप्त सार दे देना उचित प्रतीत होता है।
पट्टावलीकार श्री इन्द्रनन्दिने आचार्योंक काल की गणना विक्रम के राज्याभिषेकसे प्रारम्भ की है और उसे भ्रान्तिवश वी नि.४८८ मानकर की है। (विशेष दे परिशिष्ट १)। ऐसा मानने पर कुन्दकुन्दके कालमें ११७ वर्ष की कमी रह जाती है। इसे पाटनेके लिये ४ स्थानों पर वृद्धि की गई है--१ भद्रबाहके कालमें १ वर्षकी वृद्धि करके उसे २२ वर्षकी बजाय २३ वर्ष बनाया गया है । २. भद्रबाह तथा गुप्तिगुप्त (अहं इली) के मध्यमें मूल सघकी पट्टावलोके अनुसार लोहाचार्यका नाम जोडकर उनके ५० वर्ष बढाये गए है । ३ माघनन्दिकी उत्तरावधि वी नि ५७६ में ३५ वर्ष जोडकर उसे मूलस के अनुसार वी नि ६१४ तक ले जाया गया है। ४ इस प्रकार १+५+३५-८६ वर्ष की वृद्धि हो जानेपर माघनन्दि तथा कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्रके मध्य ३१ वर्षका अन्तर शेष रह जाता है, जिसे पाटनेके लिये या तो यहाँ एक और नाम कल्पित किया जा सकता है और या जिनचन्द्रके कालको पूर्वावधिको ३१ वर्ष ऊपर उठाकर वी. नि. ६४५ की बजाय ६१४ किया जा सकता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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