Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 331
________________ इतिहास ३१६ ४. दिगम्बर मूलसंघ (विशेष दे श्वेताम्बर)। आ भद्रबाहू स्त्रामीकी परम्परामे दिगम्बर मल सघ श्रुतज्ञानियोके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि.६८३ तक बना रहा, परन्तु सघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अहं दुबली (वी नि. ५६५-५६३) के कालमे समाप्त हो गई। ऐतिहासिक उल्लेबके अनुसार मलसघका यह विघटन बी. नि. ५७५ मे उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसर पर आ. अहंवलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोको संगठित करने के लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमे १००-१०० योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर सघोमे विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष दे. परिशिष्ट २/२) २. मूलसंघको पट्टावली वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान् के मूलसंघकी आचार्य परम्परामे ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शाने के लिए निम्न सारणीमे तीन दृष्टियोका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोको है. जिसमें अग अथवा पूर्वधारियोका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रृंतावतार को है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि प. कैलाशचन्दजो की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त काल में कुछ हेरफेर करने का सुझाव दिया गया है (विशेष दे. परिशिष्ट २) । दृष्टि न १- (ति प.४/१४७५-१४६६), (ह पु. ६०/४७६-४८१), (ध १/४,१४४/२३०), (क.पा १/६४/८४), (म.पु २/१३४-१५०) दृष्टि नं. २= इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल १-१७), (ती. २/१६ पर तथा ४/३४७ पर उधृत) दृष्टि न. ३=जै पी. ३५४ (१. कैलाश चन्द)। दृष्टि नं०१ दृष्टि नं०२ दृष्टि न०३ क्रम नाम । अपर नाम समुदित पादित विशेष ज्ञान ज्ञान वी नि सं./समुदित तसं काल काल , वीर निर्वाण के पश्चात१ गौतम इन्द्रभूति गणघर केवली सुधमा लोहार्य r ६२ वर्ष १२-२४ १०० वर्ष ६२ वर्ष विष्णु →- पूर्ण श्रुतकवला. ११ अंग १४ पूर्व→ - → श्रुतकेवली या ११ . , अग१४ पूर्वधारी , → १०० वर्ष → wr ११ अंग व १० पूर्वधारी १८३ वर्ष नन्दि | नन्दि मित्र नन्दि अपराजित गोवर्धन भद्रबाहु प्र विशाखाचार्य | विशाखदत्त प्रोष्ठिल चन्द्रगुप्त मौर्य ११ क्षत्रिय कृतिकार्य १२ जयसन जय नागसेन नाग सिद्धार्थ १५ धृतषेण १६ विजय विजयसेन १७ बुद्धिलिग बुद्धिल १८ देव गंगदेव, गंग १६ धर्मसेन धर्म, सुधर्म क्षत्र जयपाल यशपाल पाण्ड ध्र वसेन कंस सुभद्र यशोभद्रे अभय २७ भद्रबाहु द्वि यशोबाहु जयबाहु लोहार्य ११ अंग व १०पूर्वधारी ०-१२ १२-२४ २४-६२ ६२-७६ ७६-१२ १२-११४ ११४-१३३ १३३-१६२ १६२-१७२ १७२-१६१ १६१-२०८ २०८-२२६ २२६-२४७ | २४७-२६४ २६४-२८२) २८२-२६५ २६५-३१५ ३१५-३२६ ३२६-३४५ ३४५-३६३ ३६३ ३८३ ३८३-४२२ ४२२-४३६ ४३६ -४६८ ४६८-४७४ ४७४-४६२ १८३ वर्ष २४-६२ ६२-८८ ८८-११६ ११६-१५० १५०-१८० १८०-२२२ २२२-२३२ २३२-२५१ २५१-२६८ २६८-२८६ २८६-३०७ ३०७-३२४ ३२४-३४२ ३४२-३५५ ३५५-३७५ ३७५-३-६ ३८६-४०५ | १६ १४को बजाय १६वर्ष ४०५-४१७ । १२ लेनेसे संगति बैठेगी ४१७-४३० ४३०-४४२ । १२ ४४२-४५४ ४५४-४६८ ४६८-४७४ ४७४-४६२ ४६२-५१५ | २३ |५९५-५६५०५२की बजाय ५० वर्ष '५६६ लेनेसे संगति बैठेगी - -११अंग धारी→- २० २२० वर्ष→ -११ अगधारी→ - द्रुमसेन ११८ वर्ष - १० अगघारी १८ आचाराग धारी अग धारी| २३ ४१२-५१५ ८अगधारी २ (५०) ५१५-५६५ | २८ लोहाचार्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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