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आहार सामान्य
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३. आहार व आहार कालका प्रमाण
I आहार सामान्य १.भेद व लक्षण
१ आहार सामान्यका लक्षण स.सि २/३०/१८६/६ त्रयाण शरीराणा षण्णा पर्याप्तीना योग्य पुद्गलग्रहणमाहार । - तीन शरीर और छह पर्याप्तियो के योग्य पृद्धगलोंके ग्रहण करनेको आहार कहते है । (रा.वा २/३०/४/१४०), (ध, १/१, १,४/१५२/७) रा वा ६/७/११/६०४/१६ उपभोगशरीरपायोग्यपुदगलग्रहणमाहार... तत्राहार शरीरनामोदयात विग्रहतिनामोदयाभावाच्च भवति । - उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोका ग्रहण आहार है । वह आहार शरीर नामकर्मके उदय तथा विग्रह गति नामके उदयके अभावसे होता है। २. आहारके भेद-प्रभेद नोट-आगममें चार प्रकारसे आहारके भेदोंका उत्तलेख मिलता है। उन्हीं की अपेक्षासे नीचे सूची दी जाती है ।
आहार
कर्माहारादि
खाद्यादि
काजीआदि
पानकादि
अशन
लेह्य
कर्माहार
कांजी
स्वच्छ नोकर्माहार पान
आंवली या बहल कबलाहार
भक्ष्य या खाद्य आचाम्ल लेवड लेप्याहार
बेलडी
अलेवड ओजाहार स्वाद्य
एकलटाना ससिक्थ मानसाहार
असिक्थ उपरोक्त सूचीके प्रमाण १ (ध १/१.१,१७६/४०६/१०), (नि.सा/ता वृ. ६३ में उद्धृत) (प्र. सा/ता वृ २० में उद्धृत प्रक्षेपक गाथा म २) (स.सा./ता बृ. ४०५) २ (मू आ ६७६), (रा.वा ७/२१/८/५४८1८), (अन-ध.७/१३/4६७), (ला सं.२/१६-१७) ३. (व्रत विधान संग्रह पृ २६) ४. (भ आ./मू ७००), (सा घ. ८1५६)
३. नोकर्माहार व कवलाहारका लक्षण बो.पा./टी ३४ समय समय प्रत्यनन्ता परमाणवोऽनन्यजनासाधारणा' शरीरस्थितिहेतवः पुण्यरूपा शरीरे संबन्धं यान्ति नोकर्मरूपा अहत आहार उच्यतेन वितरमनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति ।= अन्य जनोंको असाधारण ऐसे शरीरकी स्थिति के हेतु भूत तथा पुण्यरूप अनन्तै परमाणु समय-समय प्रति अर्हन्त भगवान्के शरीरसे सम्बन्धको प्राप्त होते है। ऐसा नोकर्म रूप आहार ही भगवान्का कहा गया है। इतर मनुष्यों को भाँति कवलाहार भगवान्को नहीं होता । २. भोजन शुद्धि
१. भोजन शुद्धि सामान्य भोजन शुद्धिके चार प्रमुख अग है-मन शुद्वि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि व आहार शुद्धि। इनमें से आहार शुद्धिके भी चार अग हैद्रव्य शुद्धि क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि व भाव शुद्धि । इनमें से भाव शुद्धि मन शुद्धिमें गर्भित हो जाती है । इस प्रकार भोजन शुद्धि के प्रकरणमें ६ बातें व्याख्यात है-मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि व कालशुद्धि।
२. अन्न शोधन विधि ला. स. २/११-३२ विद्ध त्रसाश्रितं यावद्वज येत्तभक्ष्यवत । शतशः शोधितं चापि सावधानहगादिभिः ॥१६॥ सदिग्ध च यदन्नादि श्रित बा नाश्रितं त्रसै । मन शुद्धिप्रसिद्ध्यर्थ श्रावक' क्वापि नाहरेत् ॥२०॥ अविद्धमपि निर्दोषं योग्य चानाश्रिते त्रसै । आचरेच्छ्रावकः सम्यग्दृष्ट नादृष्टमीक्षण ॥२१॥ ननु शुद्ध यदन्नादि कृतशोधनयानया। मैवं प्रमाददोषत्वावलमषस्यास्रवो भवेत ॥२॥ गलितं दृढवस्त्रेण सर्पितलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायादाहरेत्स न चान्यथा ॥२३॥ अन्यथा दोष एव स्यान्मासातीचारसंज्ञक । अस्ति तत्र सादोना मृतस्याङ्गस्य शेषता ॥२४॥ दुरवधानता मोहात्प्रमादाद्वापि शोधितम् । दु शोधितं तदेव स्याज्ञेयं चाशोधिपं यथा ॥२५॥ तस्मात्सवतरक्षार्थ पलदोषनिवृत्तये । आत्मग्भिः स्वहस्तैश्च सम्यगन्नादि शोधयेवा२६॥ यथारमार्थ सुवर्णादिक्रियार्थी सम्यगीक्षयेत् । बतवानपि गृह्णीयादाहार सुनिरीक्षितम् ॥२७॥ स्धर्मे मनभिज्ञेन साभिशेन विधर्मिणा । शोधित पाचित चापि नाहरेद् वतरक्षक ॥२८॥ ननु केनापि स्वीयेन सधर्मेण विधर्मिणा। शोधितं पाचितं भोज्यं मुझेन स्पष्टचक्षुषः ॥२६॥ मैवं यथोदितस्योश्चै विश्वासो व्रतहानये। अनार्यस्याप्यनार्द्रस्य संयमे नाधिकारता ॥३०॥ चलितत्वात्सीम्नश्चैव नूनं भाविव्रतक्षति । शैथिल्याद्रीयमानस्य संयमस्य कुत स्थिति ॥३१॥ शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्यात् ग्रहण कृती । कालस्यातिक्रमाद भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत ॥३२॥ -- (केवल भावार्थ) घुने हुए वा बीधे अन्नमें भी अनेक त्रस जीव होते है, सैकड़ों बार शोधा जाये तो भी उसमेंसे जीव निकलने असम्भव है । इस लिए वह अभक्ष्य है। जिसमें त्रस जीवका सन्देह हो कि इसमें जीव है या नहीं' ऐसे अन्न का भी त्याग कर देना चाहिए। जो अन्नादि पदार्थ धुने हुए नहीं है, जिनमें प्रस जोव नहीं है, ऐसे पदार्थ अच्छी तरह देख शोधकर काममें लाने चाहिए । शोधा हुआ अन्न, यदि मनकी असावधानीसे शोधा गया है, होशहवाश रहिन अवस्थामें शोधा गया है, प्रमाद पूर्वक शोधा गया है तो वह अन्न दुशोधित कहलाता है । ऐसे अन्नको पुन अपने हाथसे अच्छी तरह शोध लेना चाहिए । शोधन की विधिका अजानकार साधर्मी, अथवा शोधन विधिके जानकार विधर्मीके द्वारा शोधा गया अन्न कभी भी ग्रहण नही करना चाहिए, क्योकि जो पुरुष अनार्य है अथवा निर्दय है, उसको संयमके काममें संयमकी रक्षा करने में कोई अधिकार नहीं है। जिस अन्नको शोधे हुए बहुत काल व्यतीत हो गया है, अथवा उनकी मर्यादासे अधिक काल हो गया है, ऐसे अन्नादिकको पुन" अच्छी तरह शोधकर काममें लेना चाहिए। ताकि हिंसाका अतिचार न लगे।
३ आहार शुद्धिका लक्षण वसु श्रा. २३१ चउदसमलपरिसुद्ध जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ॥२३॥ --चौदह मल दोषोंसे रहित, यतनसे शोधकर संयमो जनको आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए। ३. आहार व आहार कालका प्रमाण
१. कर्म भूमिया स्त्री पुरुषका उत्कृष्ट आहार भ,आ /मू २११ बत्तीस किर कवला आहारो कुक्त्रिपूरणो होइ । पुरि
सस्स महि लियाए अहावीसं हवे कवला ॥२११॥ = पुरुषके आहारका प्रमाण बत्तीस ग्रास है, इतने ग्रासो से पुरुषका पेट पूर्ण भरता है। स्त्रियोंके आहारका प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है । (ध, १३/५४,२६/७/५६) हपू ११/१२५ सहस्रसिक्थ कवलो द्वात्रिशत तेऽपि चक्रिण । एकश्चासौ सुभद्राया एकोऽन्येषा तु तृप्तये ॥१२॥ -एक हजार चावलोका एक कवल होता है ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण चक्रवर्तीका आहार था, सुभद्राका आहार एक कवल था और वह एक कवल समस्त लोगोंकी तृप्तिके लिए पर्याप्त था।
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