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इंद्रिय
आंतर निवृत्तियो में से आन्तर निवृत्ति वह है कि जो कुछ आत्मप्रदेशोंकी रचना नेत्रादि इन्द्रियोंके आकारको धारण करके उत्पन्न होती है। वे आत्म प्रदेश इतर प्रदेशों से अधिक विशुद्ध होते है। ज्ञानके व ज्ञान साधनके प्रकरण में ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्य निर्मलताको विशुद्धि कहते है ४१ इन्द्रियाकार धारण करनेवाले अन्तरंग इन्द्रिय नामक आत्मप्रदेशों के साथ उन आत्मप्रदेशको अवलम्बन देने वाले जो शरीरकार अनयम इकट्ठे होते है उसे बाह्य निवृत्ति कहते है। इन शरीरावयवोको कर है होकर इन्द्रियावस्था बनने लिए अगोपाग आदि नामकर्म के कुछ भेद सहायक होते हैं।
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गो जी / टी १६५/३६१/१८ पुनस्तेष्विन्द्रियेषु तत्तदावरणक्षयोपशमविशि हारमा देश संस्थानमभ्यन्तरनिवृत्ति । तदवश्वशरीरप्रदेश संस्थाम बाह्यनिवृन्ति । इन्द्रियपर्याप्त्यागतनो कर्मबर्गणास्कन्धरूपस्पशचिर्थज्ञानसहकारि यत्तदम्यन्तरमुपकरण तदायभूतत्वगादिवषाह्यमुपकरणमिति ज्ञातव्य १६ शरीर नामकर्मसे रखे गये शरीर । | - के चिन्ह विशेष सो द्रव्येन्द्रिय है। तहाँ जो निज-निज इन्द्रियावरणकी क्षयोपशमताकी विशेषता लिए आत्मा के प्रदेशनिका संस्थान सो आभ्यन्तर निवृति है। परि तिस ही क्षेत्रविधे जो शरीरके प्रदेशनिका संस्थान सो बाह्य निवृत्ति है। बहुरि उपकरण भी.. तहाँ इन्द्र पर्याप्तकर जायी जो नोकवर्गणा तिनका स्वरूप जो स्पर्शादिविषय ज्ञानका सहकारी होइ सो तौ आभ्यन्तर उपकरण है अर ताके आश्रयभूत जो चामडी आदि सो बाह्य उपकरण है। ऐसा विशेष जानना ।
६ भावेन्द्रिय सामान्यका लक्षण
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रा वा १/१५/१३/६२/७ इन्द्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते । इन्द्रिय भाव से परिणत जीव ही भावेन्द्रिय शब्द से कहना र है। गो.जो / १६५ मदिरओनमुखी हु तमोहो भावेदिय ९६५ । मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न जो आत्माकी ज्ञान के क्षयोपशम रूप) विशुद्धि उससे उत्पन्न जो ज्ञान यह तो है । ७. पाँचों इन्द्रियोंके लक्षण
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स सि. २/१६/१७७ /२ लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते । अनेनानापयामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु गुणोमीति । ततः पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् । वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामहाभागम्भादारमना स्पृश्यतेऽनेनेति परस्यते ऽनेनेति रसनम् । धायतेऽनेनेति घ्राणम् । चक्षोरनेकार्थत्वाद्दर्शनार्थविवक्षायां चष्टे अर्थान्पश्यत्यनेनेति पशु मरोडनेनेति श्रोत्रम । स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते । इदं मे अक्षि सुष्ठु पश्यति । अयं मे कर्मणोति ततः स्पर्शमादीनां कर्तरि निष्पत्ति रुपृषातीति स्पर्शनम् । रसतीति रसनम् । जिघतीति घ्राणम । चष्टे इति चक्षु । शृणोति इति श्रोत्रम् । लोकमें इन्द्रियोंकी पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है जैसे इस आँखसे मै अच्छा देखता हूँ, इस कानसे मै अच्छा सुनता हूँ अत पारतन्त्र्य विवक्षा में स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका करण ना बन जाता है। बीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के आलम्बनसे आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शर्शन इन्द्रम है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है वह रसनाइन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूघता है वह घाण हन्द्रिय है। चसि धातुके अनेक अर्थ है उनमें से यहाँ दर्शन रूप अर्थ लिया गया है, इसलिए जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र इन्द्रिय है । इसी प्रकार इन इन्द्रियोकी स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती हैं। जैसे यह मेरी आँख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अ] तरह सुनता है और इसलिए इन स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी
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१. भेद व लक्षण तथा तत्सम्बन्धोशंका-समाधान
कर्ता कारक में सिद्धि होती है। यथा- जो स्पर्श करती है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जो स्वाद लेती है यह रसन इन्द्रिय है, जो संपती है यह घाण इन्द्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है, जो सुनती है वह कर्णद्रिय (रा. बा /२/११/२/९३१/४) (घ. १/१.१.३३ / २३७/६, २४१/५, २४३ /४, २४५/५ २४७/२) । ८. उपयोगको इन्द्रिय कैसे कह सकते हैं
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१/१.१.३३/२२६/८ उपयोगस्य तत्फलश्वादिन्द्रियव्यपदेशानुपपतिरिति चेन्न कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्ते । कार्यं हि लोके कारण मनुवर्तमान दृष्टं यथा घटकापरिणत विज्ञानं घट इति । तथेन्द्रियनिवृत्त उपयोगोऽपि इन्द्रियमित्यपदिश्यते । इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रेण सृष्टमिति वाय इन्द्रियशब्दार्थ स क्षयोपशमे प्राधान्येन विद्यत इति तस्येन्द्रियव्यपदेशो न्याय्यइति । प्रश्न - उपयोग इन्द्रियोंका फल है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति इन्द्रियोंसे होती है, इसलिए उपयोगको इन्द्रिय संज्ञा देना उचित नहीं है उनहीं क्योंकि, कारणमें रहनेवासे धर्मकी कार्य अनुवृत्ति होती है अर्थात कार्य लोक कारणका अनुकरण करता हुआ देखा जाता है । जैसे, घटके आकारसे परिणत हुए ज्ञान को घट कहा जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियो से उत्पन्न हुए उपयोगको भी इन्द्रिय संज्ञा दी गयी है। ( वा २/१८/३-४/१३०)।
९. चलरूप आत्म प्रदेशोंमें इन्द्रियपना कैसे घटित होता है घ. १/१,१,३३/२३२/७ आह, चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां क्षयोपशमो हि नाम स्पर्शनेन्द्रियस्येन किमु सर्वापदेपजायते उत प्रतिनिय रोष्यति। किं चातः, न सर्वात्मप्रदेषु स्वरूपा प्रसाद अस्तु चेन्न तथानुपलम्भात् न प्रतिनियतात्मायययेषु वृत्तेः 'सिया ट्ठिया, सिया अढिया, सिया ट्ठियाट्टिया (ष खं / प्र०१२ ४,२,११,५/सु ५-७/३६७ ) इति वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचतर सर्वजीवानामान्ध्यसा दिति। नैष दोष, सर्व जीवामययेषु क्षयोपशमस्योत्पत्यम्युपगमात् न सर्वावरूपाप तत्सहकारिकारणमाहानि सरोषजीवाव्ययाभावात । घ १/१.१.३३ / २३४/४ द्रव्येन्द्रियप्रमितजीव प्रदेशानां न भ्रमणमिति किन्ने] इतिचेन्नमन्तरेणाशुभ्रमजीवाना भ्रमयादि दर्शनानुपपते इति प्रश्न- जिस प्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय काङ्क्षयोपशम सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उपन्न होता है उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियों का क्षयोपशम क्या सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है, या प्रति नियत आत्मदेशों में १. आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम होता है यह तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर आरमाके सम्पूर्ण अवयवों से रूपादिकको उपलब्धिका प्रसंग आ जाएगा 1 २. यदि कहा जाय कि सम्पूर्ण अवयवोसे रूपादिककी उपलब्धि होती ही है, सो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि,
से रूपादिका ज्ञान होता हुआ पाया नहीं जाता। इसलिए सर्वांग में तो क्षयोपशम माना नहीं जा सकता है । ३. और यदि आत्मा के अतिरिक्त अवयवोमें चक्षु आदि इन्द्रियोका क्षयोपशम माना जाय, सो भी कहना नही बनता है, क्योंकि ऐसा मान लेनेपर 'आत्मप्रदेश चल भी है, अचल भी है और चलाचल भी है, इस प्रकार वेदना प्राभृतके सूत्र से आत्मप्रदेशो का भ्रमण अवगत हो जानेपर, जीव प्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में सम्पूर्ण जीवोकी अन्धपनेका प्रसंग आ जायेगा, अर्थात् उस समय चक्षु आदि इन्द्रियाँ रूपादिको ग्रहण नहीं कर सकेगी। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवके सम्पूर्ण प्रदेशो में क्षयोपशमकी उत्पत्ति स्वीकार की है । परन्तु ऐसा मान लेने पर भी जीवके सम्पूर्ण प्रदेशोंके द्वारा रूपादिककी उपलब्धिका प्रसंग भी नहीं आता है, क्योंकि, रूपादिके ग्रहण करने में सहकारी कारण रूप बाह्य निवृति जीवके सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है। प्रश्न- द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीव प्रदेशो का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यो नहीं मान लेते हो उत्तर नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्येन्द्रिय प्रमाण
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