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इंद्रिय
३ इद्रिय-निर्देश
काल में सात प्राणोके स्थानपर कुल दो हो प्राण कहे जायेंगे, क्योंकि,
उनके पाँच द्रव्येन्द्रियोंका अभाव होता है। ध १/२.१.१५/६१/६ पस्सिदियावरणस्स सववादिफद्दयाण संतोवसमेण देसवादिफयाणमुदएण चक्र साद-घाण-जिभिदियावरणाण देमधादिफयाणमुदयक्रवएण तेसिं चेव संतोवसमेण तेसि सव्वघादिफदयाणमुदएण जो उप्पण्णो जीवपरिणामो सोख ओवसमिओ बुच्चदे। कुदो। पुवुत्ताण फड़याण खओवसमे हि उापण्णत्तादो । तस्स जीव
परिणामस्स एइ दियमिदि सण्णा। ध, १/२,१,१५/६६/५ फासिदियावरणादोण मदिआवरणे अंतब्भावादो।
-स्पर्शेन्द्रियावरण कर्मके सर्वघाती स्पर्धकोके सत्त्वोपशमसे, उसीके देशघाती स्पर्ध कोके उदयसे, चक्षु, श्रोत्र, घाण और जिहा इन्द्रियावरण कर्मोके देशघाती स्पर्धकोके उदय क्षयसे जो जीव परिगाम उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम कहते है, क्योंकि, वह भाव पूर्वोक्त स्पधकोंके क्षय और उपशम भावोंसे ही उत्पन्न होता है। इसी जीव परिणामकी एकेन्द्रिय सज्ञा है। स्पर्शनेन्द्रियादिक आवरणोका मति आवरणमें ही अन्तर्भाव हो जानेसे उनके पृथक उपदेशको आवश्यकता नहीं समझो गयी।
२ भावेन्द्रियको ही इन्द्रिय मानते हो तो उपयोग शन्य __दशामें या संशयादि दशामें जीव अनिन्द्रिय हो जायेगा ध १/१,१,४/१३६/१ इन्द्रियवैकल्यमनोऽनवस्थानानध्यवसायालोकाद्य
भावावस्थायाँ क्षयोपशमस्य प्रत्यक्षविषयव्यापाराभावात्तत्रात्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यादिति चेन्न, गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितस्य गोशब्दस्यागच्छद्गोपदार्थेऽपि प्रवृत्त्युपलम्भात । भवतु तत्र रूढिबललाभादिति चेदत्रापि तल्लाभादेवास्तु, न कश्चिद्दोष । विशेषभावतस्तेषां सङ्करव्यतिकररूपेण व्यापृति व्याप्नोतीति चेन्न, प्रत्यक्षे नीतिनियमिते रतानीति प्रतिपादनात। संशयविपर्ययावस्थाया निर्णयात्मकरतेरभावात्तत्रात्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यादिति चेन्न, रूढिबललाभादुभयत्र प्रवृत्त्य विरोधात । अथवा स्ववृत्तिरतानीन्द्रियाणि । सशयविपर्ययनिर्ण यादौ वर्तन वृत्ति तस्या स्ववृत्तौ रतानीन्द्रियाणि । निापारावस्थाया नेन्द्रियव्यपदेश स्यादिति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात्। -प्रश्न-इन्द्रियोकी विकलता, मनकी चचलता और अनध्यवसायके सद्भावमे तथा प्रकाशादिकके अभावरूप अवस्थामें क्षयोपशमका प्रत्यक्ष विषयमे व्यापार नही हो सकता है, इसलिए उस अवस्थामें आरमाके अनिन्द्रियपना प्राप्त हो जायेगा। उत्तरऐसा नहीं है, क्योकि जो गमन करती है उसे गौ कहते है। इस तरह *गौ' शब्दको व्युत्पत्ति हो जानेपर भी नही गमन करनेवाले गौ पदार्थ में भी उस शब्दकी प्रवृत्ति पायी जाती है। प्रश्न-भले ही गौ पदार्थमें रूढिके बल से गमन नही करती हुई अवस्थामें भी 'गौ' शब्दकी प्रवृत्ति होओ। किन्तु इन्द्रिय वैकल्यादि रूप अवस्थामें आत्माके इन्द्रियपना प्राप्त नहीं हो सकता है। उत्तर-यदि ऐसा है तो आत्मामे भी इन्द्रियोकी विकलतादि कारणोके रहनेपर रूढिके बलसे इन्द्रिय शब्दका व्यवहार मान लेना चाहिए। ऐसा मान लेने में कोई दोष नहीं आता है । प्रश्न - इन्द्रियोके नियामक विशेष कारणोका अभाव होनेसे उनका संकर और व्यतिकर रूपसे व्यापार होने लगेगा। अर्थात या तो वे इन्द्रियों एक दूसरी इन्द्रियके विषयके विषयको ग्रहण करेगी या समस्त इन्द्रियोका एक ही साथ व्यापार होगा। उत्तर ऐसा कहना ठीक नही है, क्योकि इन्द्रियाँ अपने नियमित विषयमें ही रत है, अर्थात व्यापार करती हैं, ऐसा पहले ही कथन कर आये है। इसलिए संकर और व्यतिकर दोष नही आता है। प्रश्नसंशय और विपर्यय रूप ज्ञानको अवस्थामें निर्णयात्मक रति अर्थात प्रवृत्तिका अभाव होनेसे उस अवस्थामें आत्माको अनिन्द्रियपने की प्राप्ति हो जावेगी। उत्तर-१. नही, क्योंकि रूढिके बलसे निर्णयात्मक और अनिर्णयात्मक इन दोनो अवस्थाओमें इन्द्रिय शब्द की
प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता है । २. अथवा अपनी-अपनी प्रवृत्तिमें जो रत है उन्हे इन्द्रियाँ कहते है इसका खुलासा इस प्रकार है। संशय और विपर्यय ज्ञान के निर्णय आदि के करने में जो प्रवृत्ति होती है, उसे वृत्ति कहते है। उस अपनी वृत्ति में जो रत है उन्हें इन्द्रियों कहते है। प्रश्न-जब इन्द्रियाँ अपने विषय में व्यापार नहीं करती है, तब उन्हे व्यापार रहित अवस्थामें इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी। उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योकि इसका उत्तर पहले दे आये है कि रूढिके बलसे ऐसी अवस्थामें भी इन्द्रिय व्यवहार होता है।
३. भावेन्द्रिय होनेपर ही द्रव्येन्द्रिय होती है ध १/१,१,४/१३५/७ शब्दस्पर्शरसरूपगन्धज्ञानावरणकमणां क्षयोपशमा द्रव्येन्द्रियनिबन्धनादिन्द्रियाणीति यावत् । भावेन्द्रियकार्यवाद् द्रव्येन्द्रियस्य व्यपदेश । नेयमदृष्टपरिकल्पना कार्यकारणोपचारस्य जगति सुपसिद्धस्योपलम्भाद। -(वे इन्द्रियाँ) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध नामके ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे और द्रव्येन्द्रियो के निमित्तसे उत्पन्न होती है। क्षयोपशमरूप भावेन्द्रियोके होनेपर ही द्रव्येन्द्रियोको उत्पत्ति होती है, इसलिए भावेन्द्रियाँ कारण है, और द्रव्येन्द्रियाँ कार्य है, ओर इसलिए द्रव्येन्द्रियोको भी इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त होती है। अथवा, उपयोग रूप भावेन्द्रियोंकी उत्पत्ति ढव्येन्द्रियोके निमित्तसे होती है, इसलिए भावेन्द्रिय कार्य है और द्रव्येन्द्रियाँ कारण है, इसलिए भी द्रव्येन्द्रियोको इन्द्रिय सज्ञा प्राप्त है। यह कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योकि कार्यगत धर्मका कारणमें और कारणगत धर्मका कार्यमे उपचार जगत् में निमित्त रूपसे पाया जाता है।
४ द्रव्येन्द्रियोका आकार मू.आ १०६१ जवणालिया मसूरिअ अतिमुत्तयचदए खुरप्पे य । इंदिय
सठाणा खलु फासस्स अणेयस ठाणं ॥१०६१॥ श्रोत्र, चक्ष, घाण, जिह्वा इन चार इन्द्रियोका आकार क्रमसे जौकी नली, मसूर, अतिमुक्तक पुष्प, अर्धचन्द्र अथवा खुरपा इनके समान है और स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकार रूप है। ( सं /प्रा १/६६), (रा वा १/१६/६/ ६६/२६), (ध १/१,१,३३/१३४/२३६), (घ. १/१,१,३३/२३४/७), (गो जी / १७१-१७२), (पं सं सं १/१४३)
५ इन्द्रियोंकी अवगाहना ध १/१,१,३३/२३४/७ मसूरिकाकारा अमुलस्यासंख्येयभागमिता चक्षुरिन्द्रियस्य बाह्यनिवृत्ति । यवनालिकाकारा अङ्गुलस्यासंख्येयभागप्रमिता श्रोत्रस्य बाह्यनिवृत्ति । अतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना अडलस्यासंख्येयभागप्रमिता घाण निवृत्ति । अधं चन्द्राकारा क्षुरप्राकारा वाङ्गलस्य सख्येयभागप्रमिता रसननिवृत्ति । स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिरनियतसंस्थाना। सा जघन्येन अङ्गुलस्यासंख्येयभागप्रमिता सूक्ष्मशरीरेषु, उत्कर्षेण संख्येयघनामुलप्रमिता महामत्स्यादित्रसजीवेषु । सर्वतः स्तोकाश्चक्षष , प्रदेशा', श्रोत्रेन्द्रियप्रदेशा संख्येयगुणा, घाणेन्द्रियप्रदेशा विशेषाधिका , जिह्वायामसंख्येय गुणा स्पर्शने संख्येयगुणा । - मसुरके समान आकारवाली और घनागुलके असरख्यातवे भागप्रमाण चक्षु इन्द्रियको बाह्य निवृत्ति होती है। यवकी नाली के समान आकारवाली और घनागुलके असख्यातवे भागप्रमाण श्रोत्र इन्द्रियकी बाह्य निवृत्ति होती है। कदम्बके फूल के समान आकारवाली और घनागुलके असख्यातवे भागप्रमाण घाण इन्द्रियकी बाह्य निर्वृति होती है। अर्धचन्द्र अथवा खुरपाके समान आकारवाली
और धनागुल के सख्येय भाग प्रमाण रसना इन्द्रियको बाह्य मित्ति होती है। स्पर्शन इन्द्रियको बाह्यनिसि अनियत आकारवाली होती है । वह जघन्य प्रमाण की अपेक्षा घनागुलके असख्यातवें भागप्रमाण सुक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके (ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेके तृतीय समयवर्ती) शरीरमें पायी जाती है, और उत्कृष्ट प्रमाणकी
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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