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इंद्रिय
जीवप्रदेषोका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवोको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता है।
२. इन्द्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपना
१. इन्द्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपनेका निर्देश पं. स. १/६८ सुणे सह अपर पुवि परदेस फार्स रस चग पूनिया ईटाको सुनती है चतुरिन्द्रय अस्पृष्ट रूपको देखती है। स्पर्शनेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और घाणेन्द्रिय क्रमश बद्ध और स्पृष्ट, स्पर्श, रस और गन्धको जानती है । ६८ ।
स सि. १ / ११ / ११८ पर उद्धृत "पुट्ठ' सुणेदि सद्द अपुट्ठ' चैत्र पस्सदे रूअं गधं रसं च फास पुट्ठमपुट्ठ वियाणादि । श्रोत्र स्पृष्ट शब्दको सुनता है और अस्पृष्ट शब्दको भी सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूपको ही देखता है। तथा घाण रसना ओर स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रमसे स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्श को जानती है ।
ध १३/५५.२७/२२५/१३ सव्वेसु इ दिएसु अपत्तत्थग्गणसत्तिसभावादो । = सभी इन्द्रियो में अप्राप्त ग्रहणकी शक्तिका पाया जाना सम्भव है । २. चक्षुको अप्राप्यकारी कैसे कहते हो
स. सि १ / ११ / ११८/६ चक्षुषोऽप्राप्यकारित्व कथमध्यवसीयते । आग
तो युक्तितश्च । आगमत. (दे २/१/१) । युक्तितश्च अप्राप्यकारि चक्षु, स्पृष्टानवग्रहात | यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमञ्जन गृह्णीयाद न तु गृहास्यतो मनोदशध्यकारी वसेय - प्रश्नचक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है यह कैसे जाना जाता है 1 उत्तरआगम और युक्तिसे जाना जाता है । आगमसे (दे. २/१/१) युक्ति यथा-चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, क्योकि वह स्पृष्ट पदार्थको नहीं ग्रहण करती । यदि चक्षु इन्द्रिय प्राप्यकारी होती तो वह त्वचा इन्द्रियके समान स्पृष्ट हुए अंजनको ग्रहण करती। किन्तु वह स्पृष्ट अजनको नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मनके समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। (रावा. १/११/२/६७/१२) ।
शवा १/१६/२/६७/२३ अत्र केचिदाहु - प्राप्यकारि चक्षु आवृतानवग्रहात् यद्रियवदिति अत्रोच्यते काचापटलस्फटिका वृतावग्रहे सति अव्यापकत्वादसिद्धो हेतु भौतिकत्वात् प्राप्यकारि चक्षुरग्निवदिति चेत न, अमरकान्तेने प्रत्यात्.. अयस्कान्तो पतम् अलोमाकर्षदपि न व्यवहितमा ति नातिविप्रकृष्टमिति संशयावस्थमेतदिति कारिविपर्ययभाव इति पेय. न प्राप्यकारित्वेऽपि तदविशेषात् । कश्चिदाह - रश्मिवच्चक्षु से जसरात तस्म वाध्यकारीति, अग्निवदिति एतच्चायुक्त अनम्युपगमात् जो सक्षम मौम्यमिति कृत्वा चक्षुरिन्द्रियस्थान मुष्ण स्यात् । न च तदेशं स्पर्शनेन्द्रियम् उष्णस्पर्शोपलम्भ दृष्टमिति । इतश्च, अतैजस चक्षु' भासुरत्वानुपलब्धे । .. नक्तंचररश्मिदर्शनाङ्ग रश्मिमच्यरिति चेद न अजसोऽपि गतस्य भारखपरिणामोपतेरिति किच गतिमय ह गतिमनतिन व संनिकृष्टविप्रकृष्टार्थानभिप्राप्नोति न च तथा चक्षु । चक्षुहि श खाचन्द्रमसावभिन्नकालमुपलभते, तस्मान्न गतिमचक्षुरिति । यदि च प्राप्यकारि चक्षु' स्यात्, तमिस्राय रात्री दूरेऽग्नौ प्रतिरसमोपगोतम्भन भवति कुतो नान्तरालगत द्रव्यालोचनम् ।.. किच, यदि प्राप्यकारि चक्षुः स्यात् सान्तरा हि न प्राप्नोति नहींद्रियान्सरविषये गन्धादी सातरग्रहण दृष्ट नाप्यधिकग्रहणम् । पूर्वपक्ष- चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि वह ढके हुए पदार्थ को नही देखती । जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय उत्तर- काँच अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत पदार्थोंको चक्षु बराबर देखती है।
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२ इद्रियोंमें प्राप्यकारी व अप्राप्यकारीपना
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अत' पक्ष में भी अव्यापक होनेसे उक्त हेतु असिद्ध है। पूर्व - भौतिक होने से अग्निवत् चक्षु प्राप्यकारी है 'उत्तर- चुम्बक भौतिक होकर भी अप्राप्यकारी है। जिस प्रकार चुम्बक अप्राप्त लोहेको खीचता है। परन्तु अति दूरवर्ती अतीत अनागत या व्यवहित लोहेको नहीं खीचता । उसी प्रकार चक्षु भी न व्यवहितको देखता है न अति दूरवर्तीको ही, क्योंकि पदार्थों की शक्तियाँ मर्यादित है । पूर्वचक्षुके अप्राप्यकारी हो जानेपर चाक्षुष ज्ञान सशय व विपर्यययुक्त हो जाएगा ? उत्तर - नहीं, क्योकि प्राप्यकारी में भी वह पाये हो जाते हैं । पूर्व कि जो व्य है अत इसके किरणे होती है, और यहाँकिरणो के द्वारा पदार्थ से सम्बन्ध करके ही ज्ञान करता है जैसे कि अग्नि ' उत्तर - चक्षुको तेजो द्रव्य मानना अयुक्त है। क्योकि अग्नि तो गरम होती है, अतः चक्षु इन्द्रियका स्थान उष्ण होना चाहिए । अग्निकी तरह चक्षु में रूप (प्रकाश) भी होना चाहिए पर न तो चक्षु उष्ण है, और न भासुररूपवाली है। पूर्व - बिल्ली आदि निशाचर जानवरो की आँखे रातको चमकती है अत आँखे तेजो द्रव्य है । उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है क्योकि पार्थिव आदि पृद्गल द्रव्यों में भी कारणवश चमक उत्पन्न हो जाती है - जैसे पार्थिव मणि व जलीय बर्फ 1 पूर्व - चक्षु गतिमान है, अत पदार्थो के पास जाकर उसे ग्रहण करती है। उत्तर-जो गतिमान होता है, वह समीपवर्ती व दूरवर्ती पदार्थोंसे एक साथ सम्बन्ध नही कर सकता जैसे किस्पर्शनेन्द्रिय तु चक्षु समीपवर्ती शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमाको एक साथ जानता है । अतः गतिमानसे विलक्षण प्रकारका होनेसे चक्षु अप्राप्यकारी है । यदि गतिमान होकर चक्षु प्राप्यकारी होता तो अँधियारी रातमे दूर देव प्रकाशको देखते समय उसे प्रकाशके पासमें रखे पदार्थों तथा मध्य अन्तराल में स्थित पदार्थोंका ज्ञान भी होना चाहिए। यदि चक्षु प्राप्यकारी होता तो जैसे शब्द कान के भीतर सुनाई देता है उसी तरह रूप भी आँख के भीतर ही दिखाई देना चाहिए था। आँख के द्वारा जो अन्तरालका ग्रहण और अपने से बड़े पदार्थों का अधिक रूपमे ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए।
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३. श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी क्यो नहीं मानते
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रावा. १/२३/२/६८/२४ कश्चिदाह श्रोत्रमध्यकारि विषयग्रहणादिति एतच्चायुक्त असा साध्य साजरा मित्रकृष्ट शब्द गृहाति श्रोत्र उचाद्रियवगाढ स्वविषयभागपरिणत पुद्गलद्रव्य गृह्णाति इति विप्रकृष्ट शब्द ग्रहणे च स्वकर्णालिगत मशकशब्दो नोपलभ्येत । नही न्द्रियं किचिदेकं दूरस्पृष्टविषयग्राहि इदमिति... श्रोत्रस्य दिग्देशभेदविशिष्टामाव इति चेद न शब्दपरिणत विसर्प वेगातिविशेषस्य तथा भावोपपत्ते, सूक्ष्मत्वात् अप्रतिघातात समन्तत प्रवेशाच्च । पूर्व(मोद कहते है ओ भी चकी तरह अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह दूरवर्ती शब्दको सुन लेता है 1 उत्तर- यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि श्रोत्रका दूरसे शब्द सुनना असिद्ध है । वह तो नाककी तरह अपने देशमें आये हुए शब्द पुद्गलोको सुनता है । शब्द वर्गणाएँ कान के भीतरही पहुँचकर सुनायी देती है । यदि कान दूरवर्ती शब्दको सुनता है तो उसे कानके भीतर घुसे दूर मच्चरका भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिएईद्र अति निकटवर्ती व दोनो प्रकार के पदार्थोंको नहीं जान सकती पूर्व-श्रोत्रको प्राप्यकारी मानने पर भी 'अमुक देशकी अमुक दिशा मे शब्द है' इस प्रकार दिग्देशविशिष्टता के विरोध आता है। उत्तर- नहीं, क्योकि वेगवान् शब्द परिणत पुद्गलोके त्वरित और नियत देशादिसे आनेके कारण उस प्रकारका ज्ञान हो जाता है। शब्द पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म है. ने चारों ओर बताओके कानो में प्रविष्ट होते है। वहीं प्रतिबात भी प्रतिकूलवायु और दीवार आदि से हो जाता है।
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