Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 324
________________ इतिहास २. संवत्सर निर्देश २ ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव रा वा १/२०/१५/७८/१६ ऐतिह्यस्य च 'इत्याह स भगवान् ऋषभ" इति पर परीणपुरुषागमा गृह्यते इति श्रुतेऽन्तर्भाव । ='भगवाद ऋषभने यह कह?' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है । इसका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है। २ संवत्सर निर्देश १ संवत्सर सामान्य व उसके भेद इतिहास विषयक इस प्रकरण में क्योकि जैनागमके रचयिता आचार्योंका, साधुसंघकी परम्पराका, तात्कालिक राजाओंका, तथा शास्त्रोका ठोक-ठोक काल निर्णय करनेकी आवश्यकता पडेगी, अत' सवत्सरका परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है । जैनागममें मुख्यत. चार संवत्सरोका प्रयोग पाया जाता है-१ वीर निर्वाण सवत्, २ विक्रम सबत. ३ ईसवी संवत, ४ शक संबदः परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य सबतोका व्यवहार होता है-जैसे १. गुप्त संवतः २ हिजरी सवत, ३ मघा संवत; आदि । २ वीर निर्वाण संवत् निर्देश क पा. १९५६/७५/२ एदाणि (परुणरस दिवसैहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पचहत्तरिवासेसु सोहिदे बड्ढमाणजिणिदे णिब्बुदे सते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाण होदि। -उद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महाबीरका जन्म काल-दे. महावीर) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्ष में से घटा देनेपर, वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण या पंचम कालका प्रारम्भ) शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात ३ वर्ष ८ महीने और पन्द्रह दिन । (ति. प ४/१४७४)। घ.१ (प्र ३२ L Jain) साधारणत: वीर निर्वाण सबद व विक्रम सबमें ४७० वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत् के प्रारम्भके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महानोरके निर्वाण काल के सम्बन्ध में भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि सघको पट्टावलीमें आ. इन्द्रनन्दिने वीरके निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और ४८८ वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशोलाल जायसवाल बीर निर्वाणके कालको १८ वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते है, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो ही थाम्नायोमे विक्रम सवतका प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोमे शक सबका प्रचार वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम सक्वमे १३१ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जे पी. २८४) विशेष दे परिशिष्ट)। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी शास्ताके रूप में महात्मा बुद्धके साथ १२-१३ वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ईपू ५५७-५२७ आता है जबकि बुद्धका ई.पू ५८८-५४४ माना गया है। (ज.सा इ.पी ३०३) ३ विक्रम संवत् निर्देश यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो आम्नायोमें विक्रम संवतका प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संबव विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमे मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६० वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चाद १५५ वर्ष तक नन्द वशका और तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका । इस समयमें हो अर्थात वी. नि. ४७० तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् १४५ वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात २२५ वर्ष तक मौर्य वशका और तत्पश्चात ६० वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोका जोड ४७० वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामे विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योकि जन्मके १८ वर्ष पश्चात विक्रमका राज्याभिषेक और ६० वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनो ही मान्यताओ से उसका राज्याभिषेक ची नि. ४१० में और जन्म ३१२ में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावली में उसका जन्म बी नि, ४७०में और राज्याभिषेक १८८ में कहा गया है, इसलिये बिद्वान लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते है। (विशेष दे. परिशिष्ट १) इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कही-कही शक संवत् अथवा शालिवाहन सवत माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योकि ये तीनो सवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम स बल का प्रारम्भ वी नि. ४७० में होता है, शक संवतका वी नि ६०५ में और शालिवाहन संबवका वी,नि, ७४१ में । (दे. अगले शीर्षक) ४. शक संवत् निर्देश यद्यपि 'शक' शब्द का प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जेसे बर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कही विक्रम संवतको भी शक संवत मान लिया जाता है, परन्तु जिस 'शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र सवत है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्राय लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शाखोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोके अनुसार भृत्यवशी गौतमौ पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई ७६ (बी नि ६०६) में शक वंशी राजा नरबाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्य में इस सबत्तुको प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोके अनुसार भी बीर निर्वाणके ६०५ वर्ष मास पश्चात शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड गया था, इसलिए कही कही शालिवाहन सबको ही शक सवव कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतत्र सबद है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक सब वीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष पश्चात और विक्रम सवतके १३५ वर्ष पश्चात माना गया है। (विशेष दे परिशिष्ट १) ५ शालिवाहन संवत् शक सवत् इसका प्रचार आज प्राय लप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोसे विदित है किसी समय दक्षिण देशमें इसका प्रचार अवश्य रहा है। शकके नामसे प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहनसे यह पृथक है क्योकि इसकी गणना वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात मानी गई है । (विशेष दे, परिशिष्ट १) ६. ईसवी संवत् यह सवत् ईसा मसीह के स्वर्गवासके पश्चात योरॅपमें प्रचलित हुआ और अग्रजी साम्राज्य के साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विक्षका सर्वमान्य संबव है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके ७२५ वर्ष पश्चात और विक्रम संवत्से ५७ वर्ष पश्चाव होनी प्रसिद्ध है। ७. गुप्त संवत् निर्देश इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्र गुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय इसकी ३२० अर्थात वी.नि.के ८४६ वर्ष पश्चात की थी । इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा। ८ हिजरी संवत् निर्देश इस संवत्का प्रचार मुसलमानों में है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहबके मक्का मदीमा जानेके समयसे उनकी हिजरतमें विक्रम जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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