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४. इन्द्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
रस और म्पर्श तो काम है और गन्ध, रूप, शब्द भोग है, ऐसा कहर है ।११३८। (स सा./ता वृ. ४/११)
८ इन्द्रियोके विषयों सम्बन्धी दृष्टि-भेद ध १/४,१,४५/१५६/१ नवयोजनान्तरस्थितपुद्गलद्रव्यस्कन्धैकदेशमा
गम्येन्द्रियसबद्ध जानन्तीति केचिदाचक्षते । तन्न घटते, अध्वानप्ररूपणा वैफल्यप्रस गाद नौ योजनके अन्तरसे स्थित पुद्गल द्रव्य स्कन्ध के एक देशको प्राप्त कर इन्द्रिय सम्बद्ध अर्थ को जानते है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते है। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अध्वान प्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसग आता है।
& ज्ञानके अर्थ में चक्षुका निर्देश प्रसा /३. २३४ आगमचक्खू साहू इन्दियचक्रवृणि सव्वभूदाणि । देवा य
ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चवखु १२३४। साधु आगम चक्षु है, सर्व प्राणी इन्द्रिय चक्षु वाले है, देव अवधि चक्ष वाले है और सिद्ध सर्वतः चक्षु (सर्व ओरसे चक्ष वाले अर्थात् सर्वात्मप्रदेशोसे चक्षु
वान्) है।
मोक्षा सल्यात धनागुल प्रमाण महामरस्य आदि स जीवोके शरीरमें पायी जाती है। चक्षु इन्द्रियके अवगाहनारूप प्रदेश सबसे कम है, उनसे सख्यातगुणे श्रोत्र इन्द्रियके प्रदेश है। उनसे अधिक घाण इन्द्रियके प्रदेश है। उनसे असख्यात गुणे जिहाइन्द्रियके प्रदेश है । और उनसे असख्यातगुणे स्पर्शन इन्द्रियके प्रदेश है। ६ इन्द्रियोंका द्रव्य व क्षेत्रको अपेक्षा विषय ग्रहण
१ द्रव्य की अपेक्षा त सू. २/१६-२१ स्पर्शनरसननाणचक्षु श्रोत्राणि ॥१६॥ स्पर्शरसगन्धवर्ण
शब्दास्तदर्था ॥२०॥ श्रुतमनिन्द्रियस्या२१ -स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये इन्द्रियाँ है ॥१६॥ इनके क्रमसे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये विषय है ।२०१ श्रुत (ज्ञान) मनका विषय है । (१. सं./प्रा. १४५८), (पं.सं.(स, १/८१) रा.बा.११११/३१/४७२/३० मनोलब्धिमता आत्मना मनस्त्वेन परिणामिता पुद्गला' तिमिरान्धकारादिबाह्याभ्यन्तरैन्द्रियप्रतिधातहेतुसंनिधानेऽपि गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे साचिव्यमनुभवन्ति, अतोऽस्त्यन्त करणं मन । मनोलन्धि वाले आत्माके जो पुद्गल मनरूपसे परिणत हुए है वे अन्धकार तिमिरादि बाह्येन्द्रियोके उपघातक कारणो के रहते हुए भी गुणदोष विचार और स्मरण आदि व्यापारमें सहायक होते ही है। इसलिए मनका स्वतन्त्र अस्तित्व है। ध. १३/५,५,२०/२२६/१३ णोइन्दियादो दिट्ठ सुदाणुभूदेसु अत्थेसु णोईदियादो पुषभूदेसु ज णाणमुप्पज्जदि सी जोइन्दिय अस्योग्गहो णाम .. मुदाणुभूदेसु दम्वेसु लोगतरट्टिदेनु वि अत्थोग्गहो त्ति कारणेणअाणणियमाभावादो। नोइन्द्रिय के द्वारा उससे पृथक भूत दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थोका जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह नोइन्द्रिय अर्थावग्रह है। क्योकि लोकके भीतर स्थित हुए श्रुत और अनुभूत विषयका भी नोइन्द्रियके द्वारा अर्थावग्रह होता है, इस कारणसे यहाँ
क्षेत्रका नियम नहीं है। प.ध/पू. ७१५ स्पर्शनरसनधाणं चक्षुः श्रोत्र'च पंचकं यावत् । मूर्तग्राहकमेक मूर्सामूर्तस्य बेदकं च मन' १५१७) -स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों ही इन्द्रियाँ एक मूर्तीक पदार्थ को जाननेबाली है। मन मूर्तीक तथा अमूर्तीक दोनों पदार्थोंकी जानने
२ क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट विषय (मू.आ. १०१२-१०६८ (रा.वा. १११६/६/७०/३), (ध.१/४,१.४५॥ १२.१७/१५८), (घ. १३/१०५.२८/२२७/१२) संकेत-ध.-धनुष, यो, योजन: सर्वलोकवर्ती सर्वलोकवी दृष्ट
व अनुभूत विषय-दे. ध १३ ।
४ इन्द्रिय मार्गणा व गुणस्थान निर्देश
१ इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा जीवोंके भेद ष.ख १/१.१/सू. ३३/२३१ इन्दियाणुवादेण अत्यि एइन्दिया, बौदिया, तीइन्दिया, चदुरिदिया, चिदिया, अणिदिया चेदि । - इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीव होते है । (द्र सटी. १३/३७)
२ एकेन्द्रियादि जीवोके लक्षण पं.का./मू. ११२-११७ एदे जीवणिकाया पंचविधा पुढविकाइयादीया। मण परिणामाविरहिदा जीवा एगे दिया भणिया ११२ सबुकमादुवाहा सखा सिप्पी अपादगा य किमी। जाणति रस फास जे ते बेइन्दिया जीवा ।११४। जूगागुंभीमकणपिपीलिया बिच्छयादिया कीडा। जाणं ति रसं फास गध तेइ दिया जीवा ।११। उद्दसमसयमक्खियमधुकरिभमरा पत गमादीया। रूब रसं च गंध फासं पुण ते विजा ण ति १११६। सुरणरणायतिरिया वण्णरसफासगधसदह । जलचरथलचर चरा बलिया पंचे दिया जीवा ।११७ - इन पृथ्वी कायिक आदि पाँच प्रकारके जीवनिकायोको मन परिणाम रहित एकेन्द्रिय जीव (सर्व ज्ञने) कहा है ।११२॥ शबूक, मातृकवाह, शख, सीप और पग रहित कृमि-जो कि रस और स्पर्शको जानते है, वे द्वीन्द्रिय जीव है ।११४ जू, कुम्भी, खटमल, चीटी और बिच्छ आदि जन्तु रस, रपर्श और गन्धको जानते है, वे त्रीन्द्रिय जीव है ।११। डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भेंबरा और पतगे आदि जीव रूप, रस, गन्ध और स्पर्शको जानते है । (वे चतुरिन्द्रिय जोब है)।११६। वर्ण, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्दको जाननेवाले देव-मनुष्य-नारक-तियंच जो थलचर, खेचर, जलचर होते है वे बलवान् पन्चेन्द्रिय जीव है। १११७५ (पं.सं /प्रा. १/६९-७३). (ध, १११,१५३३/१३६-९३८/२४१-२४५), (१ सं/सं १/१४३-१५०) ।
३ एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय पर्यन्त इद्रियोंका स्वामित्व त सू २/२२.२३ वनस्पत्यन्तानामेकम् ।२२। कृमिपिपीलकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ।२३।- वनस्पतिकायिक तकके जीवो के अर्थात पृथिवी अप, तेज, वायु व वनस्पति इन पाँच स्थावरोमे एक अर्थात प्रथम इन्द्रिय (स्पर्शन) होती है ।२२। कृमि पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्य आदि के क्रमसे एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है ।२३ (५ स/प्रा.१।६७) (ध १/१,१,३५१४२/२५८), (प.सं./स १/८२-८६), (गो.जी /मू. १६६)। स,सि. २/२२-२३/१८०/४ एके प्रथम मित्यर्थ । कि तव। स्पर्शनम् ।
तत्केषाम् । पृथिव्यादोना वनस्पत्यन्ताना वेदितव्यम् ॥२२॥ कृम्यादीना स्पर्शन रसनाधिकम, पिपीलिकादीना स्पर्शनरसने घाणाधिके.
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इन्द्रिय एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिग चतुरिन्द्रिया असंज्ञी प. संज्ञी प. स्प न ४०० ५.८०० ध. १६००५ ३२०० ५.६४०० ध । यो. रसना ६४ ध. १२८ध. २५६ ध ५१२ ध. यो. प्राण
(१००५. २०० ध. । ४०० घ. यो. चक्षु
| २६५४ यो.५६०८ यो,४७२६२७०
1८००० ध. १२यो मन
सर्वलोकवर्ती
श्रोत्र
७ इन्द्रियोंके विषयका काम व भोगरूप विभाजन म.आ. ११३८ कामा दुवे तऊ भोग इन्दियत्था विहिं पण्णत्ता। कामो रसो य फासो सेसा भोगेति आहीया ।११३८ -दो इन्द्रियोके विषय काम है, तीन इन्द्रियोंके विषय भोग है, ऐसा विद्वानोने कहा है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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