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बाहारक
१. आहारक मार्गणा निर्देश
* भाव मार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय * आहारक शरीर व योगका मन.पर्ययज्ञान, प्रथमोपहोनेका नियम
-दे. मार्गणा
शमसम्यक्त्व परिहार विशुद्धि संयमसे विरोध है २ आहारक शरीर निर्देश
-दे. परिहार विशुद्धि १ आहारक शरीरका लक्षण
* आहारक काययोग और वैक्रियक काययोगकी युगपत् * पांचों शरीरोंका उत्तरोत्तर सक्ष्मत्व व उनका स्वामित्व प्रवृत्ति संभव नहीं
-दे.ऋद्धि १० -दे.शरीर १,२ ४ आहारक काययोगीको अपर्याप्तपना कैसे २ आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है
५ आहारक काय योगमें कथंचित् पर्याप्त अपर्याप्तपना ३ मस्तकसे उत्पन्न होता है
* पर्याप्तावस्थामे भी कार्माण शरीर तो होता है, फिर ४ कई लाख योजन तक अप्रतिहत गमन करनेमे समर्थ तहाँ मिश्र योग क्यों नही कहते ? --दे. काय ३ * आहारक शरीर सर्वथा अप्रतिघाती नही है
६ आहारक मिश्रयोगीमे अपर्याप्तपना कैसे संभव है -दे. वैक्रियक
७ यदि है तो वहाँ अपर्याप्तावस्थामे भी संयम कैसे संभव है * आहारक शरीर नामकर्म का बन्ध उदय सत्त्व
* आहारक व मिश्र योगमे मरण सम्बन्धी -दे. मरण ३
-दे, वह वह नाम - * आहारक शरीरकी संघातन परिशातन कृति
१ आहारक मार्गणा निर्देश -दे.धापृ. ३५५-४५१
१ आहारक मार्गणाके भेद
ष. ख १/१,९/सू १७५/४०६ आहाराणुवादेण अस्थि आहारा अणाहारा ५ आहारक शरीरमे निगोद राशि नही होती
११७५। आहारक मार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीव ६ आहारक शरीरकी स्थिति
होते है ।१७५० ७ आहारक शरीरका स्वामित्व
द्र स वृ/टो.१३/४० आहारकानाहारकजीवभेदेनाहारकमार्गणापि द्विधा।
» आहारक अनाहारक जीवके भेदसे आहारक मार्गणा भी दो प्रकार * आहारक शरीरके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशोके संचय
की है। का स्वामित्व -दे. प. ख १४/५,६/सू. ४४५-४६०/४१४ २ आहारक जीवका लक्षण ८ आहारक शरीरका कारण व प्रयोजन
५.सं/प्रा १/१७६ आहारइ जीवाण तिण्डं एकदरवग्गणाओ या भासा
मणस्स णियमं तम्हा आहारओ भणिओ।१७६ - जो जीव औदारिक ३ आहारक समुद्धात निर्देश
वैक्रियिक और आहारक इन शरीरोमें-से-उदयको प्राप्त हुए किसी १ आहारक ऋद्धिका लक्षण
एक शरीर के योग्य शरीर वर्गणाको तथा भाषा वर्गणा और मनो
वर्गणाको नियमसे ग्रहण करता है, वह आहारक कहा गया है । १७६। २ आहारक समुद्घातका लक्षण
(पं.सं./प्रा १/१७७), (ध १/१,१,/१७-६८।१५३), (पं स./स.१/२४०), ३ आहारक समुद्घातका स्वामित्व
(गो. जी /मू. ६६४-६६६) । ४ इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लबे सूच्यंगल योजन स सि २/३०/१८६/६ त्रयाण शरीराणो षण्णा पर्याप्तीना योग्य पद्धगल
ग्रहणमाहारः । -तीन शरीर और छह पर्याप्तियो के योग्य पुद्गलोको चौडे ऊँचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार है
ग्रहण करनेको आहार कहते है (रा वा. २/३०/४/१४०), (त सा.२/६४) * केवल एकही दिशामे गमन करता है तथा स्थिति संख्यात रावा.६/७/११/६०४/१६ उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गल ग्रह्ण माहार तद्विसमय है
-दे.समुद्घात
परोतोऽनाहार । तत्राहार' शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदया
भावाश्च भवति । अनाहार' शरीरनामत्रयोदयाभावात विग्रहगति५ समुद्घात गत आत्म प्रदेशोका पुनः औदारिक शरीरमे
नामोदयाच्च भवति । = उपभोग्य शरीरके योग्य पद्धगलोका आहार संघटन कैसे हो
है। उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रह* सातो समद्घातके स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा
गति नामकर्म के उदयाभावसे आहार होता है । शरीर नामकर्म के ~दे. समुद्धात
उदयाभाव और विग्रहगति नामकर्म के उदयसे अनाहार होता है । * आहारक समुद्घातमे वर्ण शक्ति आदि
३ अनाहारक जीवका लक्षण --दे आहारक शरीरवत्
सं.सि २/३०/१८६/१० तदभावनाहारक ।३०।- तीन शरीरो और
छह पर्याप्तियोके योग्य पुद्गलो रूप आहार जिनके नही होता, वह ४ आहरक व मिश्र काययोग निर्देश
अनाहारक कहलाते है। (रा वा, २/३०/४/१४०), (रा वा.६/७/१११ आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण
६०४/१९), (त सा २/६४) २ आहारक काययोगका स्वामित्व
४ अहारक जीव निर्देश ३ आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विरोध
.सं./प्रा. १/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य ।
सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ।१७७) -विग्रहगत जीव, तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान आदि
प्रतर व लोक पूरण प्राप्त सयोग केवली और अयोग केवली, तथा सिद्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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