Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 308
________________ II. आहार (साधुचर्या) वेयावृत्य करने के लिए, छह आवश्यक क्रियाके अर्थ, तेरह प्रकार चारित्रके लिए, प्राण रक्षाके लिए, उत्तम क्षमादि धर्म के पालनके लिए भोजन करना चाहिए। और भी दे ऊपर-(अन ध ५/६१) र,सा, ११६ वहुदुक्खभायणं कम्मकारणं भिण्णमप्पणो देहो। त देह धम्माणुट्ठाण कारणं चेदि पोसए भिक्खू ।११६ - यह शरीर दुखोका पात्र है कर्म आनेका कारण है और आत्मासे सर्वथा भिन्न है । ऐसे शरीरको मुनिराज कभी पोषण नहीं करते हैं, किन्तु यही शरीर धर्मानुष्ठानका कारण है, यही समझकर इस शरीरसे धर्म सेवन करने के लिए और मोक्षमें पहुँचनेके लिए मुनिराज इसको थोडा सा आहार देते है। प पु.४/१७ । भुञ्जते प्राणधृत्यर्थ प्राणा धर्मस्य हेतब ७१। - (मुनि) भोजन प्राणो की रक्षाके लिए ही करते है, क्योकि प्राण धर्मके कारण है। ३ शरीरके उपचारार्थ औषध आदिकी भी इच्छा नही म् आ. ८३६-८४० उप्पण्णम्मि य वाही सिरयण कुविखवेयण चेव । अधियासिति सुधिदिया कार्यातगिछ ण इच्छति ।४३६। ण य दुम्मणा ण विहला अणाउला होति चेय सप्पुरिसो । णिप्पडियम्मसरोरा देति उर वाहिरोगाण ८४०1 = ज्वररोगादिक उत्पन्न होने पर भी तया मस्तकमें पीडा हाने पर भी चारित्रमे दृढ परिणाम वाले वे मुनि पीडाको सहन कर लेते हैं परन्तु शरीरका इलाज करने की इच्छा नहीं रखते।३१। वे सत्पुरुष रोगादिकके आने पर भी मन में खेद खिन्न नही होते, न विचार शून्य होते है, न आकुल हाते है किन्तु शरीर में प्रतिकार रहित हुए व्याधि रोगो के लिए हृदय दे देते है । अर्थात् सबको सहते है । ४ शरीर व संयमार्थ ग्रहणका समन्वय मू. आ.८१५ अक्रवोमनरवणमेत्त भुजति मुणी पाणधारणणिमित्त । पाण धम्मणिमित्तं धम्मपि चरंति मोक्ख ८१५ । = गाडी के धुरा चुपरने के समान, प्राणोके धारण के निमित्त वे मुनि आहार लेते है, प्राणोको धारण करना धर्म के निमित्त है और धर्मको मोक्षके निमित्त पालते अन.ध ७/६ शरीरमाद्य किल धर्म साधनं तदस्य यस्येव स्थितयेऽशमादिना। तथा यथाक्षाणि बशे स्युरुत्पथ, न वानुधावन्त्यनुमन्तृड. वशाव -जिससे धर्म का साधन हो सकता है, उस शरीरकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए इस शिक्षाको आप्त भगवान् के उपदिष्ट प्रवचनका तुष-छिलका समझना चाहिए, क्योकि आत्म-सिद्धि के लिए शरीर रक्षाका प्रयत्न निरुपयोगी है ।१४० शरीरके बिना तप तथा और भी ऐसे ही धोका साधन नहीं हो सकता। अतएव आगममें ऐसा कहा है कि रत्नत्रय रूप धर्मका आद्य साधन शरीर है। इसीलिये साधुओं को भी भाजन पान शयन आदि के द्वारा इसके स्थिर रखनेका प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बातको लक्ष्य में रखना चाहिए कि भोजनादिमें प्रवत्ति ऐसीव उतनी हो हो जिससे कि इन्द्रियाँ अपने अधीन बनी रहे। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अनादिकालकी वासनाके वशवर्ती होकर वे उन्मार्गकी तरफ भी दौडने लगे । आहारक-जीव हर अवस्थामै निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है इसलिए भले हो कवलाहार करे अथवा न करे वह आहारक कहलाता है। जन्म धारण के प्रथम क्षणसे हा वह आहारक हो जाता है। परन्तु विग्रहगति व केवली समुद्धातमें वह उस आहारको ग्रहण न करने के कारण अनाहारक कहलाता है। इसके अतिरिक्त किन्ही बडे ऋषियों को एक ऋद्ध प्रगट हो जाती है, जिसके प्रताप से वह इन्द्रियागोचर एक विशेष प्रकारका शरीर धारण करके इस पंच भौतिक शरीरसे बाहर निकल जाते हैं, और जहाँ कही भी अन्त भगवाद स्थित हों वहाँ तक शीघतासे जाकर उनका स्पर्श कर शीघ लौट आते है, पुन' पूर्व यत् शरीरमे प्रवेश कर जाते हैं, ऐसे शरीरको आहारक शरीर कहते है । यद्यपि इन्द्रियों द्वारा देखा नहीं जाता पर विशेष योगियोंको ज्ञान द्वारा इसका वर्ण धवल दिखाई देता है । इस प्रकार आहारक शरीर धारक का शरीरसे बाहर निकलना आहारक समुद्धात कहलाता है। नोकर्माहारके ग्रहण करते रहने के कारण इसकी आहारक सज्ञा है। प्रसा/त प्र.२३० बालवृतान्तग्लानेन स यमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनरवेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा स यतस्। स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य शुद्वात्मतत्वसाधनभूत स ययसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बाल वृद्धश्रान्त ग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृदायाचरणमाचरणीयमित्यापवादसापेक्ष उत्सर्ग | बाल वृद्ध-श्रान्त-ग्लान के संयमका जो कि शद्धात्म तत्त्व का साधनभूत होनेसे मूलभूत है उसका छेद जैसे न हो उस प्रकारका संयत ऐसा अपने योग्य अतिकठोर आचरण आचरते हुए (उसके) शरीरका - जोकि शुद्वात्मतत्त्वके साधनभूत संयमका साधन होनेसे मुलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृनश्रान्त ग्लानके (अपने) याग्य मृदु आचरण भी आचरना। इस प्रकार अवाद सापेक्ष उत्सर्ग है। अ॥ ११५-१७ अमो प्ररूढ राग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत। तपस्यन्ति चिरं तद्धि ज्ञात ज्ञानस्य वेभवम् ।११६। क्षणार्धमपि देहेन साहचर्य सहेत क' । यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्बोधो निरोधक ११७॥ --जिनके हृदयमे विरक्ति उत्पन्न हुई है. वे शरीरकी रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते है, वह निश्चयसे ज्ञानका ही प्रभाव है ऐसा प्रतीत होता है ।११६। यदि ज्ञान पौचे (हथेलीके ऊपरका भाग) को ग्रहण करके रोकने वाला न होता तो कौन सा विवेकी जीव उस शरीरके साथ आधे क्षणके लिए भी रहना सहन करता ! अर्थात नहीं करता। अन.ध ४/१४० शरीर धर्मसयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नत । इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति ।१४०। १ आहारक मार्गणा निर्देश १ आहारक मार्गणाके भेद २ आहारक जीवका लक्षण ३ अनाहारक जीवका लक्षण ४ आहारक जीव निर्देश ५ अनाहारक जीव निर्देश ६ आहारक मार्गणामे नोकर्मका ग्रहण है,कवलाहारका नही * आहारक व अनाहारक मार्गणामे गुणस्थानोंका स्वामित्व -दे. आहारक १/४-५ ७ पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते है ८ कार्माण कर्मयोगीको अनाहारक कैसे कहते हा * आहारक व अनाहारकके स्वामित्व सम्बन्धी जीव-समास, मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ -दे. सत् * आहारक व अनाहारकके सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएं -दे वह वह नाम * आहारक मार्गणामे कर्मोका बन्ध उदय व सत्त्व -दे, वह वह नाम जैनेन्द्र सिवान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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