Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 314
________________ इंद्रायुध २३१/१ अन्यदेवासाधारणाणिमादिगुणयोगादिन्दन्तीति इंद्रजात-पपु/सर्ग/श्लोक)"रावण का पुत्र था (८/१५४) रावणइन्द्रा। - इन्द्र शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है 'इन्द्रतीति इन्द्र' जो ___ की मृत्यु पर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली। (७८/८१-८२) तथा आज्ञा और ऐश्वर्य बाला है वह इन्द्र है। इन्द्र शब्दका अर्थ आत्मा मुक्तिको प्राप्त किया (८०/१२८)। है । अथवा इन्द्र शब्द नामकर्मका वाची है (रा.वा.१/१/१४/५६/१५): इंद्रत्याग-गर्भान्वयादि क्रियाओं में से एक-दे. संस्कार २। (ध १/१,१,३३/२३३/१)। जो अन्य देवोमें असाधारण अणिमादि गुणो के सम्बन्धसे शोभते है वे इन्द्र कहलाते है । (रावा,४/४/१/ इंद्रध्वज-पूजाओंका एक भेद-दे. पूजा । २१२/१६)। इन्द्रनन्दि-जैन साहित्य और इतिहास पृ. २७०/प्रेमीजी), (जै | २. अहमिद्रका लक्षण १/३८३); (ती. २/४१६, ३/१८०) =देशीयगणके आचार्य दीक्षा गुरु त्रि.सा २२५ । भवणे कप्पे सव्वे हवं ति अहमिदया तत्तो ॥२२॥- वासवनन्दिके शिष्य बप्पनन्दि। शिक्षागुरु अभयनन्दि । ज्येष्ठ गुरु स्वर्गनिके उपरि अहमिद्र है ते सर्व ही समान है। हीनाविकपना भाईके नाते नेमिचन्द्र सि. चक्रवर्तीक शिक्षा गुरु । (दे. इतिहास/ तहाँ नाहीं है। ७/५) । कृतियें-१ नीतिसार, २. समय भूषण, ३, इन्द्रनं दि संहिताः अन, ध. १/४६/६६ पर उद्धृत "अहमिन्द्रोऽस्मि नेन्द्रोऽन्यो मत्तोऽ- ४. मुनि प्रायश्चित्त(प्रा.).५ प्रतिष्ठापाठ,६ पूजा कल्प; ७. शान्तिस्तीत्यात्तकत्थना 1 अहमिन्द्राख्यया ख्यातिं गतास्ते हि सुरोत्तमाः। चक्र पूजा, ८ अकुरारोपण, ६. प्रतिभा संस्कारारोपण पूजा; नासूया परनिन्दा वा नात्मश्लाघा न मत्सर । केवल सुखसाइभूता १०. ज्वालामालिनी, ११, औषधि कल्प, १२ भूमिकल्प, १३. श्रुतादीव्यन्त्येते दिवौकस। -मेरे सिवाय और इन्द्र कोन है। मै ही तो बतार । समय-ज्वालामालिनी कल्पका रचनाकाल, शक ८६१। इन्द्र हूँ। इस प्रकार अपनेको इन्द्र उद्घोषित करनेवाले कल्पातीत देव तदनुसार ई. श. १० का मध्य । अहमिन्द्र नामसे प्रख्यात है। न तो उनमें असूया है और न मत्सरता इंद्रानन्दि संहिता-आचार्य इन्द्रनन्दि ई. श. १० की अपभ्रश हो है, एवं न ये परको निन्दा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते भाषाबद्ध कृति। हैं । केवल परम विभूतिके साथ सुखका अनुभव करते है। इंद्रपथ-पा पु १६ श्लोक "प्रवाससे लौटनेपर युधिष्ठिर इन्द्रपथ ३. दिगिन्द्रका लक्षण नगर बसाकर रहने लगे थे (४) क्योकि यह कुरुक्षेत्रके पास है इसलिए त्रि सा २२३-२२४ दिगिंदा । ।२२३। तंतराए । २२४। -बहुरि वर्तमान देहली ही इन्द्रपथ है । यह सर्व प्रसिद्ध भी है।" जैसे तत्रादि राजा कहिये सेनापति तैसे लोकपाल है। इंद्रपुर-१. (म.पु /प्र.४६ पं. पन्नालाल) वर्तमान इन्दौर, २. रेवा४. प्रतीन्द्रका लक्षण नदी पर स्थित एक नगर-दे. मनुष्य ४ । ति प ३/६५.६६ जुवरायसमा हुवंति पडिइदा ॥६५॥ इंदसमा पडिइदा। इंद्रभूति-पूर्व भवमें आदित्य विमानमें देव थे। (म.पु.७४/३५७) ६६।-प्रतीन्द्र युवराजके समान होते है (त्रि.सा २२४) प्रतीन्द्र इन्द्र के बराबर है।६। यह गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। वेदपाठी थे। भगवान् वीरके समव शरणमें मानस्तम्भ देखकर मानभग हो गया और ५०० शिष्यो के साथ ज.प.१९/३०५,३०६ । पडिइदा इदस्स दु चसु वि दिसामु णायव्वा दीक्षा धारण कर ली। तभो सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं (म पु.७४) ।३०॥ तुल्लबल्लरूव विक्कमपयावजुता हवं ति ते सम्बे।३०६ -इन्द्रके ३६६-३७०)। भगवान् महावीरके प्रथम गणधर थे। (म.पु.७४ प्रतीन्द्र चारो ही दिशाओ में जानने चाहिए ॥३०॥ वे सब तुल्य बल, ३५६-३७२)। आपको श्रावण कृष्ण १ के पूर्वाह्न काल में श्रतज्ञान जाम रूप, विक्रम एवं प्रतापसे युक्त होते है। हुआ था। उसी तिथिको पूर्व रात्रिमें आपने अंगोकी रचना करके * इन्द्रकी सुधर्मा सभाका वर्णन-दे. सौधर्म। सारे श्रुतको आगम निबद्ध कर दिया। (म. पु. ७४/३६६-३७२) । * भवनवासी आदि देवोमे इन्द्रोका नाम निर्देश कार्तिक कृ १५ को आपको केवलज्ञान प्रगट हुआ और विपुलाचल -दे. वह वह नाम । पर आपने निर्वाण प्राप्त किया । (म पु.६६/५१५-५१६) । ५. शत इन्द्र निर्देश इंद्रराज-(क.पा.१/प्र.७३ प. महेन्द्र) गुर्जर नरेन्द्र जगत्तुंगका छोटा द्र, सं./टी, १/५ पर उधृत "भवणालयचालीसा वितरदेवाणहोति भाई था। इसने लाट देशके राजा श्रीवल्लभको जीतकर जगत्तुगको बत्तीसा। कप्पामरचउवीसा चन्दो सूरो णरो तिरिओ। = भवन, वहाँका राजा बना दिया था। जगत्तुगका ही पुत्र अमोघवर्ष प्रथम वासी देवोके ४० इन्द्र, व्यन्तर देवोके ३२ इन्द्र; कल्पवासी देवोके हुआ। इन्द्रराज राजाका पुत्र कर्कराज था। इसने अमोघवर्ष के लिए २४ इन्द्र, ज्योतिष देवोके चन्द्र और सूर्य ये दो, मनुष्यों का एक इन्द्र राष्ट्रकूटोको जीतकर उसे राष्ट्रकूटका राज्य दिलायाथा।राजाजगत्तुग चक्रवर्ती, तथा तियंचोका इन्द्र सिह ऐसे मिलकर १०० इन्द्र है। के अनुसार आपका समय ई.७६४-८१४ (विशेष दे. इतिहास ३/१२) (विशेष दे, वह वह नामको देवगति)। इंद्रसेन-१ (वरांग चरित्र/सर्ग/श्लोक) मथुराका राजा (१६/५) इद्रक-ध १४/५.६,६४१/४६५/६ उड़ आदोणि विमाणाणि दियाणि ललितपुरके राजासे युद्ध होनेपर वरांग द्वारा युद्ध में भगाया गया णाम । = उडु आदिक विमान इन्द्रक कहलाते है। (१८/१११), २ (प.पु/प्र.१२३/१६७ 'मूल'), (प पु/प्रहपं, पन्नालाल) द्र स /टी ३५/११५ इन्द्रका अन्तर्भूमय != इन्द्रकका अर्थ अन्तर्भूमि है। सेनसंघकी गुर्वावलीके अनुसार यह दिवाकरसेनके गुरु थे। समय वि ६२०-६६० (ई.५६३-६०३)-दे. इतिहास ७/६ । ति.प.२/३६ का विशेषार्थ "जो अपने पटल के सब बिलोके बीच में हो वह इन्द्रक बिल कहलाता है।" (ध.१४/१/६/६४१/४६५/८)। इंद्राभिषेक-गर्भान्वयादि क्रियाओमें-से एक--दे, सस्कार २॥ ति सा.४७६ भाषा "अपने-अपने पटल के बीचमे जो एक एक विमान इंद्रायुध-(ह. पु.६६/५२-५३) उत्तर भारत का राजा था। इसके पाइए तिनका नाम इन्द्रक विमान है। समय में ही जिनषेणाचायेने हरिवंशकी रचना प्रारम्भ की थी। तद* स्वर्गके इन्द्रक विमानोंका प्रमाणादि-दे. स्वर्ग १३.५॥ नुसार इनका समय-श. सं. ७०५ (वि. ८४०) ई. ७५०-७८३ । (ह. पु./प्र.५ पं. पन्नालाल) स्व. ओझाके अनुसार इन्द्रायुध और * नरकके इन्द्रक बिलोंका प्रमाणादि-दे. नरक ३ । चक्रायुध राठौर व शमें थे। स्व चिन्तामणि विनायक वैद्यके अनु जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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