________________
II. आहार ( साधुचर्या)
कच्चा शाक- इनसे लिप्त हाथ तथा पात्र अथवा अप्रामुक जलसे भींगा हाथ तथा पात्र इन दोनोसे भोजन दे तो लिप्त दोष आता है । ४७४ | १०. रक्त दोष बहुत भोजनको थोडा भोजन करे अर्थात् जूठ छोडना या बहुत-सा भोजन कर पात्रमें से नीचे गिराता भोजन करे छाछ आदि करते हुए हाथ से भोजन करेअथवा किसी एक आहारको (अशन, पान, खाद्य स्वाद्यादिमें से किसी एकको) छोड़कर भोजन करे तो व्यक्त दोष आता है । ४५७ | ( चा सा, ७२ /१), (अन ध, ५/२६-३६)
४. संयोजनादि ४ दोष
१ सयोजना दोष- जो ठण्डा भोजन गर्म जलसे मिलाना अथवा ठण्डा जल गर्म भोजनसे मिलाना, सो संयोजना दोष है । ४७६ । २ प्रमाण दोष - मात्र से अधिक भोजन करना प्रमाण दोष है | ४७६ । ३ अङ्गार दोष—जो मूच्छित हुआ अति तृष्णासे आहार ग्रहण करता है उसके अङ्गार दोष होता है । ४ धूम दोष जो निन्दा अर्थात् ग्लानि करता हुआ भोजन करता है उसके धूम दोष होता है ।४७७ ( चा सा ७२ / ४) (अन ध ५/३७)
५. दातार सम्बन्धी विचार
२९२
१ दातारके गुण व दोष
रावा ७/३६/४/५५६/२६ प्रतिग्रहीतरि अनसूया त्यागेऽविषाद' दित्सतो इदो दन्तश्च प्रीतियोग कुशलाभिसन्धिता फलानपेक्षिता निरुपरोपलमनिशनस्यमित्येवमादिविषयसेय पात्रमें ई न होना, त्यागमें विषाद न होना, देनेकी इच्छा करने वालेमे तथा देने वालोंमें या जिसने दान दिया है सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फलको आकाक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसीसे विसंवाद नहीं करना आदि दाताकी विशेषता है। (स.सि. 0/28/402/6)
म.पु २० / ०२-८५ श्रद्धा शक्ति भक्तिश्च विज्ञानान्ता क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दानपतेर्गुणा ॥८॥ श्रद्धास्तिक्यमनास्ति ये प्रदाने स्यादनादर । भवेच्छक्तिरनालस्य भक्ति स्यात्तद्गुणादर ॥ ८६ ॥ विज्ञानं स्यात् क्रमशस्त्र देवास तिरसमातितिक्षा ददतस्याग सतयशीलता ॥ ८४॥ इति सप्तगुणोपेतो दाता स्यात् पात्रसंपदि । क्यपेतश्च निदानादे. दोषान्निश्रेयसोद्यत ॥१८५॥ श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने बालेके सात गुण कहलाते है ॥ ८२ ॥ श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धिको कहते है, आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धा के न होनेपर दान देनेमें अनादर हो सकता है। दान देने में आलस्य नहीं करना सो शक्ति नामका गुण है. पात्रके गुणोंमें आदर करना सो भक्ति नामका गुण है ॥८३॥ दान देने आदिके क्रमका ज्ञान होना सो विज्ञान नामका गुण है, दान देनेकी आतिको अनुपता कहते है, सहनशीलता होना क्षमा गुण है और उत्तम द्रव्य दानमें देना सो त्याग है ॥ ८४ ॥ इस प्रकार जो दाता ऊपर कहे सात गुणो सहित है और निदानादि दासे रहित होकर पात्ररूपी सम्पदा में दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करनेके लिए तत्पर होता है
गुणमा १५१ चा भक्तिरच विज्ञान पुष्टि शक्तिरता क्षमा च यत्र सप्त ते गुणा दाता प्रशस्यते ॥१३१॥ - श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, सन्तोष, शक्ति, अलुब्धता और क्षमा ये सात गुण जिसमें पाये जाये, वह दातार प्रशसनीय है।
1
पु. सि. १६६ ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वम् । अविषादित्वमुदिरले निरहङ्कारिश्वमिति हि दातृगुणा ॥ १६६ ॥ - इस लोक सम्बन्धी फलको अपेक्षारहित, क्षमा, निष्कपटता, परिहिता अखिन्नमान, हर्षभाव और निरभिमानता इस प्रकार ये सात निश्चय करके दाताके गुण है ।
Jain Education International
•
६. भोजन ग्रहण के कारण व प्रयोजन
चासा २६/६ मे उद्भुत "श्रद्धा शक्तिरलुब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा । इति श्रद्धादय सप्त गुणा स्युर्गृहमेधिनाम् ॥ द्धा, भक्ति, निर्लोभता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा आदि सात दान देने वाले गृहस्थो के गुण है । (वसु श्रा १५१ )
साध.५/४० भक्तिश्रद्धास स्वतुष्टि ज्ञानासो व्यक्षमागुण नवकोटिविशुद्धस्य दाता दानस्य य पति ॥४७॥ भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौग्य और क्षमा इनके साथ असाधारण गुण सहित जो श्रावक मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना इन नौ कोटियों के द्वारा विशुद्ध दानका अर्थात् देने योग्य द्रव्यका स्वामी होता है। वह दाता कहलाता # 1
M
1
२. दान देने योग्य अवस्थाएँ विशेष
भ. आ / बि १२०६ / १२०४ / १७ स्तनं प्रयच्छन्त्या, गर्भिण्या वा दीयमानं न गृह्णीयात्। रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालेनोन्मसेन, पिशाचेन, नासून दुर्बलेन भीतेन शङ्किन, अत्यासम्लेन, अरे राज्जाव्यावृतमुख्या मुख्य उपामदुपरिन्यस्तपादेन वा दीयमानं न गृह्णीयाद खण्डेन भिन्नेन वा नदीयमान वा -जो अपने बालकको स्तन पान करा रही हैं और जो गर्भिणी है। ऐसी स्त्रियोंका दिया हुआ आहार न लेना चाहिए । रागी अतिशय वृद्ध, बालक, उन्मत्त, अधा, गूंगा, अशक्त, भययुक्त, शकायुक्त, अतिशय नजदीक जो खड़ा हुआ है, जो दूर खड़ा हुआ है ऐसे पुरुषसे आहार नहीं लेना चाहिए। लज्जासे जिसने अपना मुँह फेर लिया है, जिसने जूता अथवा चप्पल पर पाँव रखा है, जो ऊँची जगह पर खडा हुआ है, ऐसे मनुष्यका दिया हुआ आहार नही लेना चाहिए । टूटी हुई अथवा खण्डयुक्त हुई ऐसी वडछीके द्वारा दिया हुआ नहीं लेना चाहिए। ( अन ध ५ / ३४ में उद्धृत ) ( और भी विशेष - दे. आहार 11 ४ / ३ में दायक दोष )
६. भोजन ग्रहणके कारण व प्रयोजन
१. संयम रक्षार्थ करते हैं शरीर रक्षार्थ नही आ४८१.४८२ बलाउसाअ ण शरीरस्य तेज फाड संजम का २४८१
धर्म
•
समभुजे १४८३२ साधु यसके लिए आयु बढाने लिए, स्वाद के लिए, शरीरके पुष्ट हानेके लिए शरीर के तेज बढ़ने के लिए भोजन नहीं करते । किन्तु वे ज्ञान (स्वाध्याय) के लिए, सयम पालने के लिए, ध्यान होनेके लिए भोजन करते है | ४८११- प्राणो के धारण के लिए हो अथवा मोक्षसाधने के लिए हो, और चौदह मलो से रहित हो ऐसा भोजन साधु करे । ४८३
रसा ११३ भुजे जहालाहं लहेइ जड़ णाणस जमणिमित्तं । झाणज्झयणनिमित्तं अणियारो मोवखमग्गरओ । ११३ | मुनि केवल सयम और ज्ञानकी वृद्धिके लिए तथा ध्यान और अध्ययन करनेके लिएजो मिल गया शुद्ध भोजन, उसको ग्रहण करते है वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन रहते है ।
अनघ ५ / ६९ क्षुच्छम सयम स्वान्यवैयावृत्त्यमुस्थितिम् । वाञ्छन्नावयश्कं ज्ञानध्यानादीश्चाहरेन्मुनि | ६१ = क्षुधा बाधाका उपशमन, सयमकी सिद्धि और स्म परकीयावृश्य आपत्तिया मतिकार करने के लिए तथा प्राणोकी स्थिति बनाये रखनेके लिये एवं आवश्यको और ध्यानाध्ययनादिकोको निर्विघ्न चलते रहने के लिए मुनियोको आहार ग्रहण करना चाहिए। और भी-दे नीचे मू.
आ. ४७६ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
२६ रीरके रक्षणार्य भी कचित् ग्रहण
मू. आ. ४७६ वेयण वेजावच्चे किरिया ठाणे या संयमट्टाए । तध पाण धम्मचिता कुज्जा एदेहि आह र ४७६ = क्षुधाकी वेदनाके उपशमार्थ,
www.jainelibrary.org