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II. आहार (साधुचर्या)
४३ सव्त्राभिघड चदुधा सयपरगामे सदेस परदेसे । पुत्रपरपाडणयह पढम सेस पि णादव्व ॥ ४४० | पिहिद ल छिदय वा ओसहर्षिदसक्करादि ज दव्त्र । उब्भिण्णिऊण देय उब्भिण्णं होदि गाद ॥४४१ | द्विवीहि मिहिर वादिमं तु विन मासारोह का देय मातारोहण गाम ४४२ राजाचोराहीहि संभवसम तु द बोहेदू होदि४४३ सिट्ठ पूरा दुहि एक्सरस निस्सर पदुनियप्यं पढभिरकर साम्प वत्तावत्तच सघाडं | ४४४ |
अंधादी
मु.आ.४४०४६९ सोलह उत्पादन दोषमज्जनमधारी सेमीर। पचविधघादिक्म्मेणुप्पादो धादिद सो दु |४४७१ जलथल आयासगद सयपरगामे सदेसपरदेसे संबंधिवयणणयण दोसो नदिएस४४ जण सरंग्गिं शुनं अस रिक्खं च । लक्खण सुविणं च तहा अठ्ठाविह होह मित्तं १४४६| जादी कुलं च सिप्प तवकम्मं ईसरत आजीवं । तेहि पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसी ।४५०१ साणकिविणतिधिमाहणपास डियगदाणादी पुरुष गमेति पु है पुण्योति वशन्तं वय १४५११ को मारमारसायन विसदस्यारतं च सास किये दो हो कोण य माषेण यनायालोभेण चावि उप्पादो । उष्णदणा य दोसो चदुत्रिहो होदि णायव्वो १४६३ दागपुर किसी से मरीजो मेति पृथ्वीसंदि दोसो विस्सरिदं बोधण चावि ।४५५ । पच्छासथुदिदोसो दाण गहिदून तं पुश किति दिन तुम जो विद सिद्धा तिस्से आसावदकरहि तस्से माहामेण व विजादोसो उप्पादोसि पढि मते तस्स य आसापदाणकरणेण । तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु १४७८| आहारदायगाणं बिज्जाम तेहि देवदाण तु । आहुय साधिदव्वा मिंटो हवे दोसो ४५६ | तर सरपंच ग सोभयर । चुण्णं तेणुष्पदो चुण्णयदोसो हवदि एसो |४६०| अवसाण वसियसणं संजोजयण च विष्पजुत्ताण । भणिदं तु मूलकम्म एदे उप्पादणा दोसा ४६१।
मू. आ ४६३-४७५ १० अशन दोष' - असणं च पाणयं वा खादियमध सादिय च अप्पे । कप्पियमकप्पियत्ति य संदिद्ध सकियं जाणे । |४६३॥ ससिद्धि ण य देयं हृत्येण य भायणेण दब्बीए। एसो मक्खिददोस्रो परिहरयो सदा मुनिमा ४६४ सचितपुढ विजकतेकड़रिये चबीयतसजीवा । ज तेसिमुवरि हठविदं णि विखन्तं होदि छम्भेयं । २४६॥ सचिव विहियं अपना अगुिरुपिदिडिय
देयं विहितं हीदि हरण किया पदादुमिदि पेस भायणादीनं असमिक्स्मय देयं समवहरणो हवदि दोसो ४६ सदी डी रोगीमदयमय विसायणग्गो व उबारपदि
हिरवेसी समणी अगमक्खिया ॥४६८ । अतिबाला अतिबुड्ढा घासन्ती गब्भिणी य अधलिय । अतरिदाव विसण्णा उच्चत्था अहव णीचा |४६६ । पूयण पज्जलन वा सारण पच्छादण च विज्भवण । किच्चा तहग्गिकज्ज णिव्वाद घट्टण चावि । ४७०| लेवणमज्जणकम्म पियमाण दारयं च णिक्खिविय। एव विहादिया पुन दाणं जदि दिति दायगा दोसा | ४७१ । पुढवी आऊ य तहा हरिदा वीया तसा
सज्जीवा । पचेहि तेहि मिस्स आहार होदि उम्मिस्सं |४७२ | तिलत डुलउस श्रोदय चणोदय तुसोदयं अविघुत्थ । अण्ण तहाविहं वा अपरिणदं णेव गेहिजो | ४७३ | गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणोसिलाम पिट्ठे । सपत्रालोदणलेवेण व देयं करभायणे लित्त | ४७४ | बहुपरिखामुनि आहारो परिगल दिज्मत छडिय भुजण महवा छो
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मू. आ. ४०६-४७७ संयोजना आदि ४ दोष-संयोजणा य दोसो जो एदि भत्ता तु । अदिमत्तो आहारो पमाणदोसो हवदि एसो
सज.
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४. आहारके ४६ दोष ४०६ होदिसाहारेदिदि सती तंग होषि समंज हारेदि निदियो 12000
१ अ. कर्मादि १६ उद्गम दोष -
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१ अध कर्मदोष दे अध' कर्म । २. अध्यधि दोष-संयमी साधुको आता देख उनको देने के लिए अपने निमित्त चूल्हेपर रखे हुए जल और चावलो में और अधिक जल और चावल मिलाकर फिर पकाये। अथवा जब तक भोजन तैय्यार न हो, तब तक धर्म प्रश्न के बहाने साधुको रोक रखे. वह अध्यधि दोष है। ३ प्रतिदोष- प्राक आहारादिक वस्तु सचित्तादि वस्तुसे मिश्रित हो वह पूति दोष है। प्राक द्रव्य भी पूतिकर्म से मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके भेद है चुनही (हा) ओखती बड़ी पकाने वासन तथा गन्ध युक्त द्रव्य । इन पाँचों में संकल्प करना कि इन चूलि आदि से पका भोजन जब तक साधुकोन दे दे तब तक अन्य किसीको नही देंगे । ये ही पाँच आरम्भ दोष है जो पूति दोषमें गर्भित है। १४२८१४ मिदोष प्राशुक तैयार हुआ भोजन अन्य भेषधारियों के साथ तथा गृहस्थो के साथ सयमी साधुओ को देनेका उद्देश्य करे तो मिश्र दोष जानना ॥४२६ ॥ ५स्थापित दोष- जिस बासनमें पकाया था उससे दूसरे भाजनमें पके भोजनको रखकर अपने घर में तथा दूसरे के घर में जाकर उस अन्नको रख दे उसे स्थापित दोष जानना ॥ ४३० ॥ ६ बलिदोष-यक्ष नागादि देवताओके लिए जो [पूजन किया हो उससे शेष रहा भोजन कलिदोष सहित है। अथवा संयमियोके आगमन के लिए जो बलिकर्म (सावद्य पूजन ) करे वहाँ भी बलिदोष जानना ॥ ४३१॥ ७ प्राभृतदोष-प्राभृत दोषके दो भेद है - बादर और सूक्ष्म । इन दोनोके भी दो-दो भेद है-और उत्कर्षण। काकी हानिका नाम अकर्षण है, और कालको वृद्धिको उत्कर्षण कहते है । ४३२ | दिन, पक्ष, महीना वर्ष इनको बदल कर जो आहार दान देना वह बादर प्राभृत दोष है । वह बादर दोष उत्कर्षण व अपकर्षण करनेसे दो प्रकारका है। सूक्ष्म प्रावतित दोष भी दो प्रकारका है। पूर्वाह्न समय व अपराह्न समयको पलटने से कालको बढाना घटाना रूप है || ४३३॥ ८ प्रादुष्कार दोषप्रादुष्कार दोषके दो भेद है- सक्रमण और प्रकाशन । साधुके आ जानेपर भोजन भाजन आदिको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर लेजाना सक्रमण है और भाजनको माजना या दीपकका प्रकाश करना अथवा मण्डपका उद्योतन करना आदि प्रकाशन दोष है ॥ ४३४ ॥ ६ क्रीत दोष-क्रीततर दोषके दो भेद है- द्रव्य और भाव । हर एक्के पुन' दो भेद हैब पर सम्मी भिक्षार्थ प्रवेश करनेपर गाय बादि देकर बदले में भोजन लेकर साधुको देना द्रव्य की है। प्रति आदि विद्या या चेटकादि मन्त्रो के बदले में आहार लेके साधुको देना भावक्रीत दोष है [४] १० प्रामुष्य दोष साधुओं को आहार करानेके लिए दूसरे उधार भात आदिक भोजन सामग्री लाकर देना प्रामृष्य दोष है । उसके दो भेद है-समृद्धि और अवृद्धिक 1 सवृद्धिक है। जितना कर्ज लिया उतना हो देना अवृद्धिक है ॥ ४३६ ॥ ११ परिवर्त दोष सामुखीको आहार देने लिए अपने साठीके चावल आदिक देकर दूसरे से बढिया चावलादिक लेकर साधुको आहार दे वह परिवर्त दोष जानना ॥ ४६७ ॥ १२ अभिघट दोष- अभिघट दोष के दो भेद है - एक देश और सर्वदेश | उसमे भी देशाभिघटके दो भेद है - आचिन्न और अनाचिन्न । पत्क्तिबद्ध सीधे तीन अथवा सात घरोंसे आया योग्य भाजन आचिन्न अर्थात ग्रहण करने योग्य हैं। और तितर बितर किन्ही सात घरोसे आया अथवा पक्तिबद्ध आठवाँ आदि परोसे आया हुआ भोजन बनाचिन्न है अर्थात ग्रहण करने योग्य नही है ॥४३६ ॥ सर्वाभिघट दोष के चार भेद है- स्वग्राम, परग्राम स्वदेश और परदेश पूर्यादि दिशा के मोह से पश्चिमादि दिशा के मोहल्ले में भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है । इसी तरह
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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