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शुद्ध है
II आहार (साधुचर्या)
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४ आहारके दोष मो मा प्र ६/२७० मुनिनिकै भ्रमरी आदि आहार लेने की विधि कही दोष, अध्यधि दोष, पूतिदोष, मिश्र दोष, स्थापित दोष, अलि दोष,
है। ए आसक्त होय दातारके प्राण पीडि आहारादिक ग्रहे है। प्रावर्तित दोष, प्राविष्करण दोष, क्रीत दोष, प्रामृश्य दोष, परिवर्तक इत्यादि अनेक विपरीतता प्रत्यक्ष प्रति भासे अर आपको मुनि माने, दोष, अभिषट दोष, अच्छिन्न दोष, मालारोह दोष, अच्छेद्य दोष, मून गुणादिकके धारक कहावै ।
अनिसृष्ट दोष,। ३ उत्पादन दोष-सोलह दोष उत्पादन के है९ भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तबमे धात्री दोष, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सक, क्रोधी,
मानी, मायावी, लोभी, ये दस दोष । तथा पूर्व सस्तुति, पश्चात
संस्तुति, विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग, मूल कर्म छह दोष ये है । ४ अशन मू.आ. ४८५ पगदा असओ जह्मा तह्मादो दश्य दोत्ति त दव्यं । पामुग
दोष-शक्ति, मृक्षित. निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, मिद्रि सिद्ध विय अप्पटकद असुद्ध'तु ४ि८ - साधु द्रव्य व भाव
उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त, त्यक्त ये दस दोष अश्न है। (चा सा ६८दोनोसे प्रामुक द्रव्य का भोजन करे। जिसमें से एकेन्द्री जीव निक्ल गये वह द्रव्य प्रासुक है और जो प्रासुक आहार होनेपर भी "मेरे लिए
७२/४) (अन, ध ५/५-३७) (भा पा/टो (E) किया गया है" ऐसा चिन्तन करे वह भाव से अशुद्ध जानमा, तथा
२ चौदह मल दोष चिन्तन नही करना वह भाव शुद्ध आहार है।
भू आ ४८४ णहरोमज तुअट्ठोकणकडयपुयिचम्मरुहिरमंसाणि । वीयअन.ध ५/६७ द्रब्यत शुद्धमप्यन्न भावाशुद्धया प्रदुष्यते। भावो ह्यशुद्रो
फलकदमूला छिण्णाणि मला चउदसा होति ।४८४॥ नख रोम (बाल) बन्धाय शुद्धो मोक्षाय निश्चित६७१यदि अन्न-- भोज्य सामग्री
प्राण रहित शरीर, हाड गेहूँ आदिका कण, चावलका कण, खराबद्रव्यत शुद्ध भी हो किन्तु भावत -'मेरे लिए इसने यह बहुत
लोही (राधि) चाम, लोही मास, कुर होने योग्य गेहूँ आदि, आम्र अच्छा किया' इत्यादि परिणामोकी दृष्टि से अशुद्ध है तो उसको
आदि फल क्द मुल-ये चौदह मल है। इनको देखकर आहार अशुद्ध-सर्वथा दूषित हो समझना चाहिए। क्योकि बन्ध मोक्षके
त्याग देना चाहिए । (बसु श्रा २३१ का विशेषार्थ) कारण परिणाम ही माने है। आगममें अशुद्ध परिणामोको कर्मबन्ध
अन ध ५/३६ पूयात्रपल्यस्थ्यजिनं नरख कचमृतविकलत्रके कन्द । का और विशुद्ध परिणामोको मोक्षका कारण बताया है। अतएव जो
बीज मूल फले का कुण्डौ च मलाश्चतुर्दशान्नगता ॥३९॥ -जिनसे कि अन्न द्रव्यसे शुद्ध रहते हुये भी भावसे भी शुद्ध हो वही ग्रहण करना
ससक्त-स्पृष्ट होनेपर अन्नादिक आहार्य सामग्री साधुओको ग्रहण न चाहिये।
करनी चाहिए उनको मल कहते है। उनके चौदह भेद है। जिनके
नाम इस प्रकार है। -पीब-फोडे आदिमें हो जाने वाला कच्चा रुधिर ३. आहार व आहार कालका प्रमाण
तथा साधारण रुधिर, मास, हड्डी, चर्म, नख, केश मरा हुआ १ स्वस्थ साधुके आहारका प्रमाण
विकलत्रय, क्न्द सूरण आदि. जो उत्पन्न हो सकता है ऐसा गेहूँ मू आ. ४६१ अद्वमसणस्स सव्वि जणस्स उदरस्स तदियमुदयेण । वाऊ
आदि बीज, मूलो अदरख आदि मूल, बेर आदि फल, तथा कण-- स चरणट्ठ चउथमबसेस ये भिवरवु । ४६१- साधु उदरके चार भागो में
गेहूँ आदिका बाह्य खण्ड, ओर कुण्ड -शाली आदिके सूक्ष्म अभ्यन्तर से दो भाग तो ठयजन सहित भोजनसे भरे, तीसरा भाग जलसे परि
अवयव अथवा बाहरसे पक और भीतरसे अपकको कुण्ड कहते है। पूर्ण करे और चौथा भाग पत्रन के विचरण के लिए रवाली छोडे ।४६१। ३ सात विशेष दोष प्रसा./मू २२६ अपरिपूर्णोदरो यथालब्ध । ।२२६ । यथालन्ध तथा मू आ ८१२ उद्दसिय कीदयड अण्णाद सक्दि अभिहडं च । सत्तप्पपेट न भरे इतना भोजन दिन में एक बार करते है।
डिकुट्ठाणि य पडिसिद्ध त विवज्जे ति ।८१२। औद्देशिक, क्रोत२ साधुके आहार ग्रहण करनेके कालकी मर्यादा
तर, अज्ञात, शकित, अन्य स्थानसे आया सूत्रके विरुद्ध और सूत्रसे मू आ. ४६२. | तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्मुक्कस्से । = भोजन
निषिद्ध ऐसे आहारको वे मुनि त्याग देते है ।८१२। कालमें तीन मुहूर्त लगना वह जघन्य आचरण है, दो मुहूर्त लगना
४ छियालीस दोषोके लक्षण वह मध्यम आचरण है, और एक मुहूर्त लगना वह उत्कृष्ट आचरण मू आ ४२७ ४४४ - उद्गम दोष : जलत दुल पक्खेवो दाणठ्ठ संजदाण है । (मू, आ. ३५) (अन, घ.६/१२)
सयपयणे। अझोवोझ णेय अहवा पाग तु जाव रोहो वा ।४२७१ ४. आहारके ४६ दोष
अप्पासुरण मिस्स पासुयदव्य तु पूदिकम्म तुं । चुलली उक्खलिदम्वी
भायणमंधत्ति पचविह ।४२८। पासंडेहि य सद्ध सागरेहि य जदण्ण१ छियालीस दोषोका नाम निर्देश
मुहिसियं। दादु मिदि सजदाण सिद्ध मिस्सं वियाणाहि ॥४२६॥ मू आ ४२१-४७७ उग्गम उप्पादन एसणं सजीजण पमाणं च । इगाल
पागादु भायणाआ अण्ण ह्मि य भायण रिपक्वविय । सघरे वा परघरे धूमकारण अट्ठबिहा पिडसुद्धो हु ।४२१। आधाकम्मुद्दसिय अज्झा
वा णिहिद ठविद बियाणाहि।४३०। जक्खयणागदीणं भलिसेस स वसोय पूदि मिस्से य । पामिच्छे वलि पाहुडिदे पादूकारे य कोदे य
बलि त्ति पण्णन । सजदआगमणट्ठ बलियम्म वा बलि जाणे ।४३१॥ 1४२२। पामिच्छे परिय?' अभिहइमच्छिण्ण माल आरोहे। आचिकज्जे पाहुडिहं दुविह बादर सुहम च दुविहमेक्केक । ओकस्सणमुक्कस्सणअणिसट्ठ उग्गदीसादु सेल सिमे।४२२।घादीदणि मित्ते आजीवे वणि मह कालोबट्टणावड्ढी।४३२। दिवसे परखे मासे वासे परत्तीय बादर वगे य तेगिछे। कोधी माणी मायी लोभी य हब ति दस एदे।४४५ दुविह । पुठ्य परमज्झवेल परियत्तं दुविह सुहुम च ।४३३। पादुक्कारो पुचीपच्छा सथुदि विजमते य चुण्ण जोगे य। उत्पादणा य दोसो दुविहो संकमण पयासणा य बोधब्बो। भायण भोयणादीण मडवसोलसमो मुलकम्मे य ४४६। सकिदमक्खिदपिहिदसंबवहरणदाय- बिरलादियं कमसो 1४२४। कीदयड पुण दुबह दव्वं भाव च सगपरं गुम्मिस्से। अपरिणदलित्तछोडिद एसणदोसाइ दस एदे ।६२ - दुविह । सच्चितादी दव्यं विज्जामतादि भाव च।४३५। लहरिय रिणं १. सामान्य दोष- उद्गम्, उत्पादन, अशन, सयोजन प्रमाण, अंगार तु भणिय पामिच्छे ओदणादि अण्ण दर । त पुण दुविह भणिदं सबया आगर और धूम कारण- इन आठ दोषो कर रहित, जो भोजन ड्ढियमवढियं चावि ।।१६। बीहीकूरादी हि य सालीकूगदियं तुज लेना वह आठ प्रकार की पिण्ड शुद्धि कही है। २ उदगम दोष- गहिदं । दातुमिति सजदा परियट्ट होदि णायव्य ।४३७१ देसत्तिय गृहस्थ के आश्रित जो चक्की आदि आरम्भ रूप कम वह अध कर्म है सव्वत्तिय दुबित पुण अभिहड बियाणाहि। आचिण्णमणाचिणं उसका तो सामान्य रीतिसे साधुको त्याग ही होता है । तथा उपरोक्त देसाविहडं हवे दुत्रिह ।४३८। उज्जु त्तिहि सत्तहि वा धरेहि जदि मूल आठ दोषोमे-से उद्गम दोष के सोलह भेद कहते है -औद्देशिक आगदं दुआचिण्ण। परदो वा तेहि भवे ताब्वबरीद अणाचिण्णं
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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