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II. आहार (साधुचर्या)
४. आहारके ४६ दोष
शेष तीन भी जान लेने। इसमे ईर्यापथका दोष आता है ॥४४०॥ १३. उद्भिन्न दोष-मिट्टी लाख आदिसे ढका हुआ अथवा नामकी मोहर कर चिह्नित जो औषध घी या शकर आदि द्रव्य है अर्थात सील बन्द पदार्थो को उघाडकर या खोलकर देना उद्भिन्न दोष है। इसमे चीटी आदिके प्रवेशका दोष लगता है ॥४४१॥ १४ मातारोहण दोष-काष्ठ आदिकी बनी हुई सीढी अथवा पैडीसे घरके ऊपर के खनपर चढकर वहाँ रखे हुए पूवा लड्डु, आदि अन्नको लाकर साधुको देना मालारोहण दोष है। इसमें दाताको विप्न होता है ॥४४२॥ १५ आछेद्य दोष-संयमी साधुओके भिधाके परिश्रमको देख राजा, चौर आदि गृहस्थियोको ऐसा डर दिखाकर ऐसा कहे कि यदि तुम इन साधुओंको भिक्षा नही दोगे तो हम तुम्हारा द्रव्य छीन लेगे ऐसा डर दिखाकर दिया गया आहार वह आछेद्य दोष है ॥४४३॥ १६. अनिसृष्ट दोष-अनीशार्थ के दो भेद है- ईश्वर और अनीश्वर दोनोके भी मिलाकर चार भेद है। पहला भेद ईश्वर सारक्ष तथा ईश्वरके तीन भेद व्यक्त, अव्यक्त व सघाट । दानका स्वामी देने की इच्छा करे और मन्त्री आदि मना करे तो दिया हुआ भोजन भी अनीशार्थ है। स्वामीसे अन्य जनोका निषेध क्यिा अनीश्वर वहलाता है। वह व्यक्त अर्थात वृद्ध, अव्यक्त अर्थात् बाल और सङ्घाट अर्थात दोनोंके भेदसे तीन प्रकारका है ४४४॥ (चा सा, ६९/२) (अन.ध.५/५-६)
२. धात्री आदि १६ उत्पादन दोष १ धात्री दोष - पोषन करे वह धाय कहलाती है। बह पाँच प्रकार की
होती है--गन करानेवाली, आभूएण पहनानेवाली मञ्चोको रमानेवाली, दूध पिलानेवाली तथा मातावत अपने पास सुलानेवाली। इन का उपदेश करके जो साधु भोजन ले तो धात्री दोष युक्त होता है। इससे स्वाध्यायका नाश होता है तथा साधु मार्ग मे दूषण लगता है ।४४७। २. दूत दोष---कोई साधु अपने ग्रामसे व अपने देशसे दूसरे ग्राममें व दूसरे देश में जलके मार्ग नाव में बैठकर व स्थलमार्ग व
आकाशमार्गसे होकर जाय । वहाँ पहुँचकर किसीके सन्देशको उसके सम्बन्धीसे कह दे, फिर भोजन ले ता वह दूत दोष युक्त होता है।४४८॥ ३. निमित्त दोष-निमित्त ज्ञानके आठ भेद है-मसा, तिल आदि व्यञ्जन, मस्तक आदि अङ्ग, शब्द रूप स्वर, वस्त्रादिक्का छेद वा तलवारादिका प्रहार, भूमिविभाग, सूर्यादि ग्रहोका उदय अस्त होना, पद्म चक्रादि लक्षण और स्वप्न । इन अष्टाग निमित्तोसे शुभाशुभ कहकर भोजन-लेनेसे साधु निमित्त दोष युक्त होता है।४४६। ४. आजीव दोष- जाति, कुल, चित्रादि शिल्प तपश्चरणको क्रिया आदि द्वारा अपनेको महान प्रगट करने रूप वचन गृहस्थोको कहकर आहार लेना आजीव दोष है। इसमें बलहीनपना व दीनपनाका दोष आता है।४५०। ५ बनीपक दोष-कोई दाता ऐसे पूछे कि कुत्ता, कृपण, भिरवारी, असदाचारी, ब्राह्मण, भेषी साधु तथा त्रिदण्डी आदि साधु और कौआ इनको आहारादि देनेमें पुण्य होता है या नही । तो उसकी रुचिके अनुकूल ऐसा कहा कि पुण्य ही होता है। फिर भोजन करे तो बनीपक दोष युक्त होता है। इसमे दीनता प्रगट होती है ।४५१। ६ चिकित्सा दोष--चिकित्सा शास्त्रके आठ भेद है बालचिकित्सा, शरीरचिकित्सा, रसायन, विषतन्त्र, भूततंत्र, क्षारतन्त्र, शलाका क्रिया, शल्यचिकित्सा । इनका उपदेश देकर आहार लेनेसे चिकित्सा दोष होता है ।४५२। ७-१०. क्रोधी, मानी, मायी लोभी दोष---क्रोधसे भिक्षा लेना,मानसे आहार लेना, मायासे आहार लेना, लोभमे आहार लेना, इस प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ रूप उत्पादन दोष होता है ।४५३१ ११ पूर्व स्तुति दोष--दातारक आगे'तुम दानपति हो, यशोधर हो, तुम्हारी कीर्ति लोक प्रसिद्ध है' इस प्रकार के वचनो द्वारा उसकी प्रमशा करके आहार लेना, अथवा दातार यदि भूल गया हो तो उसे याद दिलाया कि पहले तो तुम बडे दानी थे,
अब कैसे भूल गये, इस प्रकार प्रशसा करके आहार लेना पूर्व स्तुति दोष है ।४५५ १२ पश्चात स्तुति दोष--आहार लेकर पीछे जो साधु दाताकी प्रशंसा करे कि तुम प्रसिद्ध दानपत्ति हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध है, ऐसा कहनेसे पश्चात स्तुति दोष लगता है।४५६। १३ विद्या दोष--जो साधने से सिद्ध हो वह विद्या है, उस विद्याकी आशा देनेसे कि हम तुमको विद्या देगे तथा उस विद्याकी महिमा वर्णन करनेसे जो आहार ले उस साधुके विद्या दोष आता है ।४५७१ १४ मन्त्र दोष--पढने मात्रसे जो मन्त्र सिद्ध हो वह पठित सिद्ध मन्त्र होता है, उस मन्त्रकी आशा देकर और उसकी महिमा कहकर जो साधु आहार ग्रहण करता है उसके मन्त्र दोष होता है।४४८। आहार देनेवाले व्यन्तरादि देवोको विद्या तथा मन्त्रसे बुलाकर साधन करे वह विद्या मन्त्र दोष है। अथवा आहार देनेवाले गृहस्थों के देवताको बुलाकर साधना वह भी विद्या मन्त्र दोष है।४५॥ १५. चूर्ण दोष--नेत्रोंका अजन,भूषण साफ करनेका चूर्ण,शरीरकी शोभा बढानेवाला चूर्ण--इन चूर्णाकी विधि बतलाकर आहार ले यहाँ चूर्ण दोष होता है ।४६०। १६ मून कर्म दोष-जो वशमें नही है उनको वशमें करना, जो खी पुरुष वियुक्त है उनका सयोग कराना-ऐसे मन्त्र-तन्त्र आदि उपाय बतलाकर गृहस्थोसे आहार लेना मूलकर्म दोष है। (चा.सा ७१/१),(अन ध १/२०-२७) ३. शङ्कितादि १० अशन दोष १.शङ्कित दोष-अशन, पान, खाद्य व स्वाद्य यह चार प्रकार भोजन
आगमानुसार मेरे लेने योग्य है अथवा नही ऐसे सन्देह सहित आहार को लेना शक्ति दोष है । ३६३।२ मृक्षित दोष-चिक्ने हाथ व पात्र तथा कडछीसे भात आदि भोजन देना मृक्षित दोष है। उसका सदा त्याग करे।४६॥ ३ निक्षिप्त दोष-अप्रामुक सचित्त पृथिवी, जल, तेज, हरितकाय, बीजकाय, प्रसकाय, जीवो के ऊपर रखा हुआ आहार इस प्रकार छह भेद वाला निक्षिप्त दोष है ।४६५॥ ४ पिहित दोषजोआहार अप्रासुक वस्तुसे ढका हो, उसे उधाड कर दिये गये आहार को लेना पिहित दोष है।४६६५ संव्यवहरण दोष--भोजनादिका देन-लेन शीघ्रतासे करते हुए, बिना देखे भोजन-पान दे तो उसको लेनेमें संव्यवहरण दोष होता है ।४६७६ दायक दोष-जो स्त्रीबालकका शृङ्गार कर रही हो, मदिरा पीनेमे लम्पट हो, रोगी हो, मुरदेको जलाकर आया हो, न पुष्सक हो, आयु आदिसे पीडित हो, वस्त्रादि ओढे हुए न हो, मूत्रादि करके आया हो, मू से गिर पडा हो, वमन करके आया हो, लोहू सहित हो, दास या दासी हो, अजिंका रक्तपटिका आदि हो, अंगको मर्दन करने वाली हो,-इन सबोके हाथ से मुनि आहार न ले ।४६८ अति बालक हो, अधिक बूढी हो, भोजन करती जूठे मुह हो, पाँच महीना आदिके गर्भसे युक्त हो, अन्धी हो, भोत आदिके ऑतरेमे या सहारेसे बैठी हो ऊंची जगहपर बैठी हो, नीची जगह पर बैठी हो ।४६६। मुँहसे फूककर अग्नि जलाना, काठ आदि डालकर आग जलाना, काठको जलाने के लिए सरकाना, राखसे अग्निको ढंकना, जलादिसे अग्निका बुझाना, तथा अन्य भी अग्निको निर्वातन व घट्टन आदि करने रूप कार्य करते हुए भोजन देना४७०१ गोबर आदिसे भीतिका लीपना,स्नानादि क्रिया करना, दूध पीते बालकको छोडकर आहार देना, इत्यादि क्रियाओसे युक्त होते हुए आहार दे तो दायक दोष जानना ।४७१। ७ उन्मिश्र दोष-मिट्टी, अप्रासुक जल, पान-फूल, फल आदि हरी, जौ, गेहूँ आदि बीज, द्वीन्द्रियादिक अस जीव-इन पाँचोसे मिला हुआ आहार देनेसे उन्मिश्र दोष होता है ।४७२। ८ अपरिणत दोषतिल के धोनेका जल, चावलका जल, गरम होके ठण्ढा हुआ जल, तुषका जल, हरण चूरण आदि कर भी परिणित न हुआ जल हो वह नहीं ग्रहण करना। ग्रहण करनेसे अपरिणत दोष आता है ।४७३। ६. लिप्त दोष-गेरू, हरताल, खडिया, मैनशिल,चावल आदिका चून,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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