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आहार सामान्य
च. १२/५.४.२९/५१/६ सालितं दुलहस्ते द्विदे जंबूपमा त सम्यमेो कमलो होदि एमो परिसस्स करलो परूविंदो एवे हि मसीस
हि पडिपुरिम्स आहारो होदि अट्ठावलेहि माहिलियाए । इमं मेदमाहारं च मो जो जस पर्यावलो पयsि आहारो सोच घेत्तत्वो ण च सव्वेसि कवलो आहारी वा अडियो अस्थि एक्जमा पुरिमाण एगगलर कूराहार पुरिसाण च उबलं भादो ।" =शाली धान्यके एक हजार धान्योंका जो भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुषका ग्रास कहा गया है। ऐसे बत्तीस ग्रासो द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुषका आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिलाका आहार होता है । प्रकृत में (अब मौदर्य नामक तपके प्रकरण में) इस ग्रास और इस आहारका ग्रहण न कर जो जिसका प्रकृतिस्थ ग्रास और प्रकृतिस्थ आहार है वह लेना चाहिए। कारण कि सबका ग्रास व आहार समान नहीं होता, क्योंकि कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलों के भातका और कितने ही एक गलस्थ प्रमाण चावलोके भातका आहार करते हैं।
२. आहारके प्रमाण सम्बन्धी सामान्य नियम
साध, ६ / २४ में उद्धृत "सायं प्रातर्वा वह्निमवसादयन् भुञ्जीत । गुरुनाम मातिता मात्रमा निर्दिष्ट हु तावद्विजीर्यति ।" सुबह और शामको उतना ही खावे जिसको जठराग्नि मुगमता से पचा सके । गरिष्ठ पदार्थों को भूख से आधा और हस्के पदार्थोंको तृप्ति होने पर्यन्त ही खाने भूसे अधिक न खायें। इस प्रकार खाया हुआ अन्न सुखसे पचता है। यह मात्राका प्रमाण है । आ. ४९ अर्थात यो समारणार्थं चतुर्थमवशेषयत् भिक्षु | = भिक्षुके उदरका आधा भाग भोजन से भरे, तृतीय भाग जलसे भरे, और चतुर्थ भाग वायुके संचरणार्थ अवशेष रखे।
३. भोजन मौन पूर्वक करना चाहिए मू. आ. ८१७ मोणव्वदेण मुणिणो चरति भिक्ख अभासंता । वे मौनव्रत सहित भिक्षा निमित्त विचरते है
४/६७ भिक्षा परगृहे लब्धा निर्दोषां मौनमास्थिता ॥६७॥
कोंक पर ही भोजनके लिए जाते हैं और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षाको मौनसे खड़े रहकर ग्रहण करते है ।... साध ४/२४-२५ गृ हुङ्कारादिसंज्ञ, संपलेशं च पुरोऽनु च मुचमौनमदन्कुर्यात तप संयमबृ' हणम् ॥३४॥ अभिमानावनेगृद्धिरोधा वर्धयते तप । मौनं तनोति श्रेयस श्रुतप्रश्रयतायनात् ॥३५॥ - खाने योग्य पदार्थ की प्राप्तिके लिए अथवा भोजन विषयक इच्छाको प्रगट करनेके लिए हुङ्कारना और ललकारना आदि इशारोको तथा भोजनके पीछे क्लेशको छोडता हुआ, भोजन करनेवाला बती श्रावक तप और संयमको बढ़ानेवाले मौनको करे ॥ ३४॥ मौन स्वाभिमानकी अयाचकवरूप व्रतको रक्षा होनेपर तथा भोजन विषयक लोलुपताके निरोध लपको बहाता है और घुतज्ञानकी विनयके सम्बन्धसे पुण्यको मढाता है ।
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आहार (साधुचर्या)
१. साधुकी भोजन ग्रहण विध
१. दिनमे एक बार सर्द होकर भिक्षावृत्तिसे व पाणिपात्र मे लेते हैं
मू. आ. ३५.८११,६३७ उदयस्थमणे काले णाली तियव जिय हिमज्झम्हि । एकहि दुअ लिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥३४॥ । भुंजंति पाणिपत्ते परेण व परपरम् ॥११॥ जोनेस सोग भिखारि वणियं सुते । अण्णेय पुणो जोगा विष्णाणविहीणएहि क्या ॥१३७॥ -सूर्यके उदय और अस्तकाल की तीन घडी छोडकर वा. मध्यकाल -
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साधु
एक
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दो तीन मुहूर्त कालमें एक मार भोजन करा वह एक भक्त मूलगुण है ॥ ३५॥ पर घर में परकर दिये हुए ऐसे आहारको हाथरूप पत्र पर रखकर वे मुनि खाते है ।। ८११ || आगम मे सब मूल उत्तरगुणो के मध्य में भिक्षाचर्या ही प्रधान व्रत कहा गया है और अन्य जे योग हैं वे सब अज्ञानी चारित्र हीन साधुओके किये हुए जानना १६३७॥
की भोजन ग्रहण विधि
प्रसा / २२६ एक खलु तं भत्तं अपडिपुण्णोदर जधा लवं । चरण भिक्खेण दिवाण रसावेक्ख ण मधुमंस ||२२|| भूख से कम, यथा तन्ध तथा भिक्षा र निरपेक्ष तथा मधुमासादि रहिस, ऐसा शुद्ध अल्प आहार दिन के समय केवल एक बार ग्रहण करते हैं ॥ २२६ ॥ प.पु ४/१७ भि परगृहे लब्ध्वा निर्दोषं मौनमास्थिता । भुंजते BE७॥ =भावको के घर ही भोजनके लिए जाते हैं । वहाँ प्राप्त हुई भिक्षाको मौनसे खडे होकर ग्रहण करते है ।
आचार सार १/४६ एकद्वित्रिमुहूर्तं स्यादेकभक्तं दिने मुने ॥४६॥ = एक दो व तीन मुहूर्त तक एक्बार दिनके समग्र मुनि आहार लेवे । २. भ जन करते समय खडे होने की विधिववेक सूज २४ अजलिपुटेश टिकुद्धादि समपाद्ध भूमितिए असणं ठिदिभीषण जाम ||३४|| अपने हाथ रूप भाजन कर भीत आदिके आश्रय रहित चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े रह कर अपने चरणकी भूमि, जूठन पड़नेकी भूमि, जिमाने वाले के प्रदेश की भूमि ऐसी तीन भूमियोकी सुद्धा आहार ग्रहण करना वह स्थिति भोजन नाम मूल गुण है
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भ आ./वि १२०६ / १२०४ / १५ समे विच्छिद्रे, भ्रभागे चतुरङ्गुलपादान्तरी निश्चल कुड्यस्तम्भादिकमनबलम्ब्य तिष्ठेव समान व छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनो पाँव में चार अंगुल अन्तर रहे इस तरह निश्चल खड़े रहना चाहिए। भीत (दोवार) खम्बा वगैरहकर आश्रय न लेकर स्थिर खड़े रहना चाहिए।
अन च ६/६४ । चतुरङ्गुलान्तरसमक्रम ||६४ || जिस समय ऋषि अनगार भोजन करे उसी समय उनको अपने दोनो पैर उनमे चार अगुलका अन्तर रखकर समरूप से स्थापित करने चाहिए।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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३. खडे होकर भोजन करनेका तात्पर्य अन. १/६२ यावत्करी पुटीकृत्य भोमु क्षमेऽहम्यस्त बन्नेपापण्यास यमार्थं स्थिताशनम् ॥१३॥ जबतक खड़े होकर और अपने हाथको जोडकर या उनको ही पात्र बनाकर उन्हीके द्वारा भोजन करने की सामर्थ्य रखता हूँ, तभी तक भोजन करनेमें प्रवृत्ति करूँगा, अन्यथा नहीं। इस प्रतिज्ञाका निर्वाह और इन्द्रियसंयम तथा प्राणि संयम साधन करनेके लिए मुनियोंको खडे होकर भोजन का विधान किया है।
४ नवधा भक्ति पूर्वक लेते है
मूआ ४८२ । विहिसु दिण्णं ॥ ४८२ ॥ विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुण सहित क्रियासे दिया गया हो । (ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें।)
५. एक चौकेने एक साथ अनेक साधु भोजन कर सकते हैं यो सा अ = / ६४ पिण्ड पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते । दोयते चेन्न भोक्तव्य भुङ्क्ते चेच्छेदभाग्यति ॥ ६४ ॥ आहार देते समय गृहस्थको चाहिए कि वह जिस मुनिको देनेके लिए हाथमें आहार ले उसे उसी मुनिको दे अन्य मुनिको देना योग्य नहीं यदि कदाचित अन्यको भी दे दिया जाये तो मुनिको खाना न चाहिए क्योंकि यदि मुनि उसे खा लेगा तो वह छेद प्रायश्चित्तका भागी गिना जायेगा ॥ ६४॥
६. चौके से बाहरका लाया आहार भी कर लेते हैं अनेक गृह भोजी क्षुल्लक अनेक घरोमें से अपने पात्रमें भोजन लाकर, अन्य किसी श्रापक के घर जहाँ पानी मिल जाये, वहाँ पर गृहस्थकी
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