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आगम
की ज्ञानसंज्ञा (कारण में कार्य के उपचारसे) व्यवहार नयते है निवास मयसे नहीं।
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४. द्रव्य भुत के मेवादि जानने का प्रयोजन ८.का./ता १०३ / २५४ / १६ भावनाया फलं जीवादिविषये पाव वा संशयनमोहनमहतोनियनपरिणामो भवति । श्रुतकी भावना अर्थात् आगमाभ्यास करनेसे, जीवाद तत्त्वविक्षेप उपादेयतश्वके विषय में सशय, विमोह व विभ्रमसे रहित निश्चल परिणाम होता है । ५. आगमको श्रुतज्ञान कहना उपचार है
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श्लो. वा. १/१/२०/२-३ / ५६८ / श्रवणं हि श्रुत ज्ञान न पुन शब्दमात्र कम् ॥२॥ तच्चोपचारतो ग्राह्य श्रुतशब्दप्रयोगत ॥३॥ 'श्रुत' पदसेवा किसी विशेष ज्ञान है। हां पोके प्रतिपादक शब्द भी पद से पकड़े जाते है किन्तु केवल शब्दोंमें ही बूत शब्दको परिपूर्ण नही कर देना चाहिए ॥२॥ उपचारसे वह शब्दात्मक श्रुत (आगम भी शुद्ध शब्द करके ग्रहण करने योग्य है ... क्योंकि गुरुके शब्दोसे शिष्योको श्रुतज्ञान ( वह विशेष ज्ञान ) उत्पन्न होता है । इस कारण यह कारण में कार्यका उपचार है। (और भी दे आगम२ / ३) ३. आगमका अर्थ करने की विधि
१. पाँच प्रकार अर्थ करनेका विधान
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स, सा./ता. बृ १२०/१७७ शब्दार्थ व्याख्यानेन शब्दार्थी ज्ञाव्यः । व्यवहारनिश्चयरूपेण मयार्थी ज्ञातव्य सांख्यं प्रति मतार्थो ज्ञातव्य' । आगनार्थ स्तुप्रसिद्धयोपादानपाख्यानरूपेण भावार्थोऽपि ज्ञातव्यः इति शब्दनयमतागमभावार्था व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्याः । = शब्दार्थ के व्याख्यान रूपसे शब्दार्थ जानना चाहिए । व्यवहार निश्वयनयरूपसे नार्थ जानना चाहिए। सांख्योंके प्रतिमतार्थ जानना चाहिए । आगमार्थ प्रसिद्ध है। हेय उपादेयके व्याख्यान रूपसे भावार्थ जानना चाहिए। इस प्रकार शब्दार्थ, नयार्थ, मदार्थ आगमार्थ तथा भावार्थको व्याख्यान के समय यथासम्भव सर्वत्र जानना चाहिए। (पं. वा./ता.वृ १९ / ४ २७/६०) द्र.सं./टी २/१ ) २. मतार्थ करनेका कारण
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. १/१.१.२०/२२१/२ भिप्रायकदनार्थं नास्य सूत्रस्यावतार दोनो एकान्तियो के अभिप्राय के खण्डन करनेवे लिए ही ...प्रकृत सूत्रका अवतार हुआ है।
सभ त ७७ / १ ननु सर्वं वस्तु स्यादेकं स्यादनेकमिति कथं संगच्छते । सर्वस्वस्तुन' केनापि रूपेणे काभावात् । तदुक्तम् 'उपयोगो लक्षणम्' इति सूत्रे तस्वार्थ लोकवार्तिकेन हि वय सहपरिणाममने
पियुपगच्छामोऽयत्रोपचारात् इति...पूत पूर्वाचार्यवचनानां च सर्वथैक्य निराकरणपरत्वाद अन्यथा सत्ता सामान्यस्य सर्वथाने करवे पृथ्ववैकान्तपक्ष एवाहतस्स्यात् । प्रश्न- सर्व वस्तु कथंचित् एक है कथ चित्र अनेक है यह कैसे संगत हो सकता है, क्योंकि किसी प्रकार से सर्व अस्तुओकी एकता नहीं हो सकती तत्वार्थ सूत्रमें कहा भी है 'उपयोगा लक्षण' अर्थात् ज्ञान दर्शन रूप उपयोग हो जीवका लक्षण है। इस सूत्र के अन्तर्गत तस्मार्य श्लोक बालिक 'अन्य व्यक्तिनें उपचारसे एक कालमें ही सदृश परिणाम रूप अनेक व्यक्ति व्यापी एक सत्त्व हम नहीं मानते' ऐसा कहा है - उत्तर-पूर्व उदाहरणोमें आचार्योंके वचनोसे जो सर्वथा एकत्व ही माना है उसीके निराकरण में तात्पर्य है न कि कथंचित एकवके निराकरणमें और ऐसा न मानने से सर्वथा सत्ता सामान्य के अनेकत्व माननेसे पृथक्त्व एकान्त पक्षका ही आदर होगा ।
३. नय निक्षेपार्थ करनेकी विधि
सखि १/६/२० नामादि निक्षेपविधिनोपक्षिष्ठानाजीवादीनां प्रमाणाम्य नश्चाधिगम्यते। जिन जीवादि पदार्थोंका नाम
३. आगमका अर्थ करनेकी विधि
आदि निक्षेप fafधके द्वारा विस्तारमे कथन किया है उनका स्वरूप प्रमाण और नयोंके द्वारा जाना जाता
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घ. १/१,१.१/१०/१६ प्रमाण-नय-नियोऽर्थो नाभिरामीयते युक्तं चायुद्धाति तस्यायुक्त च युक्तवत् ॥१०॥ जिस पदार्थका प्रत्य क्षादि प्रमाणीके द्वारा, नैगमादि नयोंके द्वारा, नामादि निक्षेपोंके द्वारा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार नहीं किया जाता है यह पदार्थ कभी युक्त (संगत) होते हुए भी अयुक्त (असंगत ) सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युती तरसा प्रतीत होता है ॥१०॥
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ध. १/१,१.१/३/१० विशेषार्थ -आगमके किसी श्लोक गाथा, वाक्य, पदके ऊपर से अर्थ का निर्णय करनेके लिए निर्दोष पद्धतिसे श्लोकादिकका उच्चारण करना चाहिए, तदनन्तर पदच्छेद करना चाहिए, उसके बाद उसका अर्थ कहना चाहिए, अनन्तर पद- निक्षेप अर्थात् नामादि विधि से नयोका अवलम्बन लेकर पदार्थका उहापोह करना चाहिए। सभी पदार्थ के स्वरूपका निर्णय होता है। पदार्थ निर्णयके इस क्रमको दृष्टिमें रखकर गाथाके अर्थ पदका उच्चारण करके, और उसमें निक्षेप करके नयोके द्वारा तत्त्व निर्णयका उपदेश दिया है।
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मो. मा./प्र./७/३६८/७ प्रश्न -- तो कहा करिये! उत्तर- निश्चय नय करि जो निरूपण किया होय, ताकौ तो सत्यार्थ मानि ताका तो श्रद्धान अंगीकार करना. अर व्यवहार नय करि जो निरूपण किया होय ताकौ असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना.. तातै व्यवहार नयका श्रद्धान छोड़ि निश्चयका श्रद्धान करना योग्य है । व्यवहार नय करि स्वद्रव्य परद्रव्यको वा तिनके भावनिकोवा कारण कार्यादि काहको कान मिलाय निरूपण करें है। सो ऐसे ही श्रद्घान से मिथ्यात्व है ताकायाग करना । बहुरि निश्चय नय तिनको यथावत् निरूपै है, काहू को कवि न मिला है। ऐसा ही श्रद्धान तें सम्यक्त्व हो aat श्रद्धान करना । प्रश्न- जो ऐसे है, तो जिनमार्ग विष दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या, सो कैसे उत्तर- जिनमार्ग विषै कहीं तौ निश्चय नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकी तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । बहुरी कही व्यवहार नयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है ताकी 'ऐसे है नाहि निमित्तादिकी अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना । इस प्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है । बहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यान कँ समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है ऐसे भी है ऐसा भ्रम रूप ने कर दी दोऊ नयनिका ग्रहण कहा नाहीं । प्रश्न- जो व्यवहार नय असत्यार्थ है, तो ताका उपदेश जिनमार्ग विषै काहे को दिया। एक निश्चय नय हो का निरूपण करना था । उत्तर- निश्चय नयको अंगीकार करावनै कूँ व्यवहार करि उपदेश दीजिये है। बहुरी व्यवहार नय है. सो अमीकार करने योग्य नाहीं (और भी वे आगम २/८) ४. आगमार्थ करनेकी विधि
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१. पूर्वापर मिलान पूर्वक
इ./टी. २२/६६ (यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं... किन्तु विवादशे न कर्तव्य | परमागम के अविरोध पूर्वक विचारना चाहिए, किन्तु कथनमें विवाद नहीं करना चाहिए।
पं ध / पृ ३३५ शेषविशेषव्याख्यान ज्ञातव्य चोक्तवक्ष्यमाणतया । सूत्रे पदानुवृतिग्रह्मसूत्रान्तरादिति न्यायात्॥२२॥ सूत्रमें पदोंकी अणुवृति दूसरे सूत्रो से ग्रहण करनी चाहिए, इस न्याय से यहाँ पर भी शेषविशेष कथन उक्त और वक्ष्यमाण पूर्वापर सम्बन्धसे जानना चाहिए । रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं टोडरमलजी कृत / ५१२ कथन तो अनेक प्रकार होय परन्तु यह सर्व आगम अध्यात्म शास्त्रन सौ विरोध न होय वैसे विवक्षा भेद करि जानना ।
२. परम्परा का ध्यान रख कर
ध ३/१, २, १८४/४८१/१ एदोए हाए एदस्स वक्वाणस्स किण्ण विरोहो होल नाम .., जुत्तिसिद्धस्य आइरियपर परागयरस्
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोपा
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