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आप्तपराक्षा
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हो ( मचा देव) होता है, निश्वय करके अन्य किसी प्रकार आप्तपना नही हो सकता ॥५॥ जिप देवके क्षुपा, तृषा, बुढापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निशा आश्चर्य नहीं है, वहां बीतराग देव कहा जाता है | जो परम रहने र योतिबा हो, राग-द्वेषरहित मोराग हो, कर्मफलरहित हो, कृतकृत्य हो, सर्वज्ञ हो अर्थात् भूत, भविष्यद वर्तमानको समस्त पर्यायो सहित समस्त पदार्थोंको जानने वाला हो, आदि मध्य अन्त कर रहित हो और समस्त जीवोका हित करनेवाला हो, वही हितोपदेशी कहा जाता है (अनघ २ / १४) इ.सं./टी. २०/२१० में उषा भय द्वेषो रागो मोह चिन्तनम्। जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरति ॥९॥ विस्मयो जनन निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृता । एतदोष विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जन ॥२॥ क्षुधा तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रुजा, मरण, स्वेद, सेम, अति विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद इन अठारह दोषोंसे रहित निरञ्जन आम भो जिनेन्द्र है। स.म १२८/२१ रागद्र पमोहानामेान्तिक आश्यन्तिकश्च क्षय, सा येषामस्ति ते खम्वाप्ताः । - जिसके राग-द्व ेष और मोहका सर्वथा क्षय हो गया है उसे आप्त कहते हैं (म.म. १५/२३८/१२) म्यादी, ३/१०४/११३ प्रसिद्धि परम हितोप देशक....ततोऽनेन विशेषेण रात्र नातिव्याप्तिः प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता है और परम हितोपदेशी है वह आप्त है। इस परम हितोपदेशी विशेषणसे सिद्धोंके साथ अतिव्याप्ति भी नही हो सकती । अर्थात् अर्हन्त भगवान् ही उपदेशक होनेके कारण आप्त कहे जा सकते हैं सिद्ध नहीं ।
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★ आप्तमे सर्वदोषोंका अभाव संभव है - दे, मोक्ष ६/४ ★ सर्वज्ञताकी सिद्धि केवलज्ञान २४ ।
* देव, भगवान्, परमात्मा, अहंत आदि दे, वह वह नाम । आप्त परीक्षा - जा. विद्यानन्द ( ७०३-८४०) द्वारा रचित १२४ संस्कृत श्लोकबद्ध ईश्वर विषयक न्याय ग्रन्थ है। (ती. २/ २५३) आप्त मीमांसा तत्त्वार्थ सूत्रके मंगलाचरणपर आ समन्तभद्र (ईश २) द्वारा रचित १९५ संस्कृत स्तोक न्यायपूर्ण ग्रन्थ है। इसका दूसरा नाम देवागम स्तोत्र भी है। इसमें न्याय पूर्वक भाववाद अभाववाद आदि एकान्त मतों का निराकरण करते हुए भगवान् महाबीरमें आप्तस्वकी सिद्धि की है। इस ग्रन्थ पर निम्न टोकाऍ उपलब्ध है -- १. आचार्य अकलंक भट्ट (ई. ६२०-६८०) कृत ८०० श्लोक प्रमाण 'अष्टशती' । २. आ. विद्यानन्दि (ई. ७७५-८४०) कृत ८००० श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री । ३. आ. बादी मसिंह (ई. ७७०-८६०) कृत वृत्ति । ४ आ. वसुनन्दि (ई. १०४३-१०५३) कृत वृत्ति । ५. पं. जयचन्द्र छावडा (ई. १८२६) द्वारा लिखी गयी सक्षिप्त भाषा टीका । (जै. २/३०३); (ती. २/१३०) आबाधा-कर्मका मन्ध हो जानेके पश्चाद वह तुरत ही उदय नहीं आता, बल्कि कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशाको प्राप्त होकर ही उदय आता है । इस कालको आबाधाकाल कहते है । इसी विषय की अनेकों विशेषताओंका परिचय यहाँ दिया गया है । १. आबाधा निर्देश
१. आबाधा कालका लक्षण
ध. ६/१.६-६,५/१४८/४ ण बाधा अबाधा, अबाधा चेत्र आबाधा । - नाधाके अभावको अबाधा कहते हैं। और अबाधा ही आबाधा कहलाती है ।
गो.मू. १५५ कम्ममरुवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रुवेणुदीरणस्स व आवाहा जाब ताव हवे । कार्माण शरीर नामा नामकर्म के
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१. आबाधा निर्देश
उदय तैं अर जीवके प्रदेशनिका जो चंचलपना सोई योग तिसके निमितकरि कामण वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृति रूप होई आत्मा के प्रदेशनिविषै परस्पर प्रवेश है लक्षण जाका ऐसे बन्ध रूपकरि जे तिष्ठ है ते यावत् उदय रूप वा उदीरणा रूप न प्रवर्ते तिसकालको आबाधा कहिये । (गो क. / मू. ११४) गो.जो / जो. प्र २५३/५२३/४ तत्र विवक्षितसमये बद्धस्य उत्कृष्टस्थितिबधस्य सप्ततिकोटाकोटिसागरोपममात्रस्य प्रथमसमयादारम्य सप्तसहस्रवर्ष कालपर्यन्तमानाधेति । विवक्षित कोई एक समय विधे बन्ध्या कार्माणका समय प्रबद्ध ताकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तरि कोडाकोडि सागरको बधी तिस स्थिति के पहले समय ते लगाय सात हजार वर्ष पर्यन्त ती आमाधा काल है यहाँ कोई निर्जरा न होई ताठे कोई निषेक रचना नाहीं ।
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२. आबाधा स्थानका लक्षण
घ. १९/४.२.१.५०/१६२६ जहग्णावाहमु] [कस्सामाहादो सोहित्य सङ्घसेम्मिए पलिते आवाहाद्वाणं एसत्योद - उत्कृष्ट आबाधामें-से जघन्य आबाधाको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिला देने पर आबाधा स्थान होता है । इस अर्थ की प्ररूपणा सभी जगह करनी चाहिए।
३. आबाधा काण्डकका लक्षण
ध. ६/९,६-६,५/१४६/१ कधमाबाधाकडयस्सुप्पत्ती । उक्कस्साबाध विरलिय उपकस्सट्ठिदि समखड करिय दिण्णे रूवं पडि आबाधा कडपमाणं पावेदि । प्रश्न- आबाधा काण्डककी उत्पत्ति कैसे होती है 1 उत्तर-उत्कृष्ट आबाधाको विरलन करके उसके ऊपर उत्कृष्ट स्थितिके समान खड करके एक-एक रूपके प्रति देनेपर आबाधा काण्डका प्रमाण प्राप्त होता है । उदाहरण मान लो १० १० १० १ १ १
उत्कृष्ट स्थिति ३० समय; आबाधा ३ समय तो
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अर्थात -१० यह आबाधा काण्डकका प्रमाण हुआ । और उक्त स्थितिमन्धके भीतर । आमाधाके भेद हुए।
विशेषार्थ - कर्म स्थितिके जितने भेदोमें एक प्रमाण वाली आबाधा है, उतने स्थितिके भेदोको आबाधा काण्डक कहते है । ध.१९/४,२,६,१७/१४३/४ अप्पण्णो जहणाबाहाए समऊणाए अप्पप्पणी समऊणजहण्ण द्विदीए ओबटिटदाए एगमाबाधाकदयमागच्छदि ।.. सगसगउकस्साबाहार सग-सग उक्कस्सट्ठिदीए ओवदाए एगमाबाह कंदयमागच्छदि ।
११/४.२६१२२/२६८२ आमा हरिमसमय गिरू' भन उनकस्सिर्य दिट्ठदिदि ततो भ्रम एवं दुसमणादिक्रमेण वेद जाव विनरस असरभागेगुणाद्विदिति । एवमेष आवाहारिमसमरण बंधपाओग्गादिविसेसाण मेगमाबाहादयमिदि सण्णा त्ति वृत्तं होदि । आबाधाए दुचरिमसयस्स णिरु भणं काढूण एवं मामाहाकदम पवेदव्वं । आमाहाए तिचरिमसमयविरुभगं काढूण पृथ्वं व तदिओ आमाहादओ पद एवं या विमा हिदि चि एवेग रोगगाबाइादयस्व पमाणपरूवणा कदा |
भागमेन्तरिउदिमंधाणाणमाबाद
ध.११/४,२,६,१२८/२७१/३ एगेगाबाइट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असवेज्जदि १. एक समय कम अपनी-अपनी आबाधाका अपनी-अपनी एक समय कम जघन्य स्थिति में भाग देने पर एक आबाधा काण्डकका प्रमाण आता है । २ ... अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधाका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधा काण्डक आता है । ३ आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बाँधता है इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पम्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना
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