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माढा
के व्यवहारको कारण जो कर्म ताकै उदयसे हो है । अर्थात् ओघ प्ररूपणाका आधार मोहनीय कर्म है आदेश प्ररूपणाका आधार स्व स्व कर्म है।
२. उपदेशके अर्थमे
बद
पंथ / ६४० आदेशस्योपदेशैभ्यस्याद्विशेषस भेदमा गुरुदेव आदेश में उपदेशी से यह भेद रखनेवाला विशेष होता है कि मै गुरुके दिए हुए व्रतको ग्रहण करता परन्तु यह विधि उपदेशोमे नही होती है। (अर्थात् आदेश अधिकारपूर्वक आज्ञा के रूप में होता है और उपदेश साधारण सम्भाषणका नाम है ।
आद्धा - दे. अद्धा ।
आद्यंतमरण - दे. मरण / १ ।
आधार -१ ( ५/प्र. २०) Base (of Logarithm )
S
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१ आधार सामान्यका लक्षण
सि १ / १२ / २००६ धर्मादीना पुनरधिकरणमाकाश मिरयुच्यते व्यमहारनयवशात् एवभूतमयापेक्षा तु सर्वाणि यानि प्रतिष्ठार्मादिक द्रव्योका आकाश अधिकरण है यह व्यवहार FЯ1=1 नकी अपेक्षा कहा जाता है। एवभूत नयकी अपेक्षा तो सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ही है।
२. आधार सामान्यके भेद व लक्षण
गो जो जो
२८३ मे उधृत पश्लेषिको वैषयिकोऽभिव्यापक इत्यपि आधारस्त्रिविध प्राक्त घटाकाश तिलेषु च ।" - आधार तीन प्रकार है - औपश्लेषिक वैषयिक, और अभिव्यापक । १. तहाँ चटाई विषे कुमार सोवे है ऐसा कहिए तहाँ औपश्लेषिक आधार जानना । २. महरि आकाश विषे मटार तिष्ठ है ऐसा कहिए वहाँ वैषयिक आधार जानना । ३ बहुरि तिल विषे तेल है ऐसा कहिए तहाँ अभिव्यापक आधार जानना ।
* आधार आधेय भावबंध
आधारवस्व आसू. ४२८] चोइसदसण
महामदसाय रोगभोरो । कप्पववहारधारी होदि हु आधारवत्व णाम । जो चौदहपूर्व दसपूर्व और नव पूर्वका ज्ञाता है, जिसमे समुद्र तुल्य गम्भीरता गुण है, जो कल्पव्यवहारका ज्ञाता है अर्थात् जो प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता है उसमें बताए हुए प्रयोगोका जिसने अनुसरण किया है अर्थात् अपराधो मुनियोका जिसने अनेक बार प्रायश्चित देकर इस विषय में विशेष ज्ञान प्राप्त कर लिया है ऐसे आचार्य आधार व गुणके धारक माने जाते है । आध्यान
म पु २१/२२८ आभ्यान स्यादनुध्यानम् अनिष्यस्वादिभिन्नमेव स्यात् परम सत्यम् नामनसगोचरम्। - अनित्यत्वादि १२ भावनाओका बार-बार चिन्तवन करना आध्यान कहलाता है तथा मन और वचन के अगोचर जो अतिशय उत्कृष्ट शुद्ध आत्मतत्त्व है वह ध्येय कहलाता है। * २, अध्यापन के अर्थ मे दे अपध्यान / १ ।
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आनंद १ भगवाद बोरके सीर्थ मे अनुसारोपपादक हुए दे अनुत्त रोपपादक, २ विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे, विद्याधर; ३ चिजबाधको दक्षिण अशोका एक नगर - दे. विद्याधरः ४ गन्धमादन विजयार्ध पर स्थित एक कूट व उसका रक्षक देव - दे. लोक/ ५/४, ५ मप्र ७३ / श्लाक अवाध्या नगरके राजा वज्रबाहुका पुत्र था (४१-४२११ तोयंकर प्रकृतिका बन्ध किया । सन्यास के समय पूर्व के आठवें भवके बैरी भाई कमठने सिंह बनकर इनको भरख लिया। इन्होने फिर प्राणतेन्द्र पद
દ
आनुपूर्वी
पाया (६१) यह पार्श्वनाथ भगवा का तीसरा भय है- दे पार्श्वनाथ, ६. परमानन्दके अपर नाम- दे. मोक्षमार्ग २ / ५ । आनंदवर्धन.
-ज्ञ / प्र ६ पं, पन्नालाल बाक्लीवाल "काश्मीर नरेश" अवन्तिवर्मा के समकालीन थे। समय ई ८८४ । आनंदात निवासिनी दिवकुमारी देवी दे. लोक ५/१३ आनंदितानन्दन बनके वज्रकूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी देवी --
दे, लोक ५/५
आनत कल्पवासी देवका एक भेददे स्वर्ण ३२ तथा उनका अवस्थान-दे, स्वर्ग ५/८ ३. कल्प स्वर्गीका १३वाँ - दे. स्वर्ग ५/२, ४, आनतस्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक - दे स्वर्ग ५/३ । आनपान उ
प्रयोजनवरि चिदानयेत्याज्ञापनमानयनम्
आनयन-स सि. ७/३१/३६६ / ६ आत्मना सकल्पिते देशे स्थितस्य अपने द्वारा संक विपत देश में ठहरे हुए पुरुषको प्रयोजन वश किसी भी वस्तुके लानेकी आज्ञा करना आनयन है। (रा.वा. ७/३१/१/५५६) आनर्त४४६
म पु / ४६ पं पन्नालाल "वर्तमान गुजरात का उत्तर भाग।" द्वारावती (द्वारिका) इसकी प्रधान नगरी थी।
अनर्थक्य- स. सि. ७/३२ / ३७० / २
यावताऽर्थेनोपभोगपरिभोगी सोऽयंस्ततोऽन्यस्याधियमानयम् उपयोग परिभोगके लिए जितनी वस्तुकी आवश्यकता है सो अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोग परिभोगानर्थक्य है।
आनुपूर्वी -
१ आनुपूर्वक भेद
ध. १/१,९,१/०३/१ पुवाणुपुत्री पच्छाणुपुथ्वी जत्थतस्य णुपुब्बी चेदि तिविहा आणुपुत्री । पूर्वानुपूर्वी पश्चातानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इस प्रकार अनुकि तीन भेद है ( १/४.१.४५/१३५/१) (क.पा १/११/६२२/२८ / १) (म.प्र २ / ०४ )
२ पूर्वानुपूर्वी आदिके लक्षण
जं ध १/१.१.१/०३/१ लादो परिवाही उपरे सा पुमापुथ्वी तिस्से उदाहरण उसमजिय देवमादि णं उमरोदो हा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुब्बी । तिस्से उदाहरण - एस करेमि
पण जिगरबहस बढमाणस्स सेणं च जा सिमसुह कखा विलोमेण ॥ ६५॥ इदि । जमणुलोम-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतस्थाणुपुथ्वी । तिस्से उदाहरण -गय-गवलसजन पर हुब सिहि गलय भमरस कासो हरित सपो सिमाउन जय ॥६॥मादि। जो वस्तुका वि चन मूलसे परिपाटो द्वारा किया जाता है उसे पूर्वापूर्वी कहते है। उसका उदाहरण इस प्रकार है, ऋषभनाथ की वन्दना करता अजितनाथ की वन्दना करता हॅू इत्यादि । क्रमसे ऋषभनाथको आदि लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त क्रमवार वन्दना करना सो पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है। जो वस्तुका विवेचन ऊपरसे अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक परिपाटी क्रमसे (प्रतिलोम पद्धति से) किया जाता है उसे पश्चातानुपूर्वी उपक्रम कहते है । जैसे-मोक्ष सुखकी अभिलाषासे यह मै जिनवरोंमें श्रेष्ठ ऐसे महावीर स्वामीको नमस्कार करता हूँ। और विलोम से अर्थात वर्तमानके बाद पार्श्वनाथका पार्श्वनाथ के बाद नेमिनाथको इत्यादि क्रमसे शेष जिनेन्द्रो को भी नमस्कार करता हूँ ॥६५॥ जो कथन अनुलोम और प्रतिलोम क्रमके बिना जहाँ कहाँसे भी किया जाता है उसे कहते है। जैसे हाथी, अरण्य मेसा, जलपरिपूर्ण और सनमेव कोयल, मयूरका कण्ठ और भ्रमर
जैनेन्द्र सिद्धान्त को
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