Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 272
________________ भायु + व लोभ कषायमे मोहको प्राप्त होते है, जो जिन लिंगको धारण कर घोर पापको करते है, जो अरहन्त तथा साधुओं की भक्ति नहीं करते हैं, जो चातुर्वण्य के विषय में वात्सल्य भाव से विहीन होते है, जो जिननिंग के पारी होकर स्वर्णाको हर्षसे ग्रहण करते है, ज मोके वेपमे याद करते है जो मनके बिना भोजन करते हैं, जो सलग्न रहते है, जो अनन्तानुवन्धी पश्यमेंसे किसी एकके उदित होनेमे सम्यक्त्वको न करते है, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाकवाले पापकमोके फलसे समुद्र के इन द्वीपो में कृत्सित रूपमा उत्पन्न होते है। २५०३-२५११० (त्रि सा २२-२४ ) प १०५६-०१) ११ देवायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम त सू/६/२०-२१ सरागस समास माकामनिर्जरापास देवस्य ॥ २० ॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ - सरागसयम, सयमासयम, अकामनिर्जरा और बात ये देवायुके आसन है 120 भी दे कासव है ॥२१॥ स, सि ६/१८/३३४ / १२ स्वभावमार्दव च ॥१८॥ एतदपि मानुषस्यायुष as gerator कम उत्तरा देवासवोऽयमि यथा स्यात । स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आसव है। प्रश्न -- इस सूत्र को पृथक् क्यों बनाया 'उत्तर - स्वभावकी मृदुता देवायुका भी आसव है इस बातके बतलाने के लिए इस सूत्रको अलग बनाया है। ( रा वा ६/१८/१-२/५२६/२४) तसा ४/४२-४३ आकामनिर्जरामा पो मन्दाया मं दान तथागतनसेवनम् ॥४२ सरागसंयमश्चैव सम्यदेशयम इति देवायुषो ह्येते भवन्ध्यासवहेतव ॥ - बालतप व अकामनिर्जरा के होनेसेा मन्द रखनेसे श्रेष्ठ धर्मको सुननेसे बाम देनेसे आन आयुतन सेवी बनने से, सराग साधुओका संयम धारण करनेसे, देशसयम धारण करनेसे सम्यष्टि होनेसे त्रायुका वास होता है। , P है, मो. यू. ८००/६८१ अशुभ महत्व देहि यातनाकामगिराए । देवा जिधर सम्माहट्ठी य जो जोबो जो जीव सम्य सो केवल सम्म करि साक्षाद अनुवत महामहनिकरिदेवी माँ हैमहरि जो मिपादृष्टि जीव है सो उपचाररूप अलत महानिरि वा अज्ञानरूप बाल तपश्चरण करि वा बिना इच्छा बन्धादि भई ऐसी आकाम निर्जराकरि देवायुकी बाँधे है । १२. भवनत्रिकायु सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम स.सि./१२/१३६/६ तेन सराग यमसंयमासमास्यायुष आसवौ प्राप्त मैच दोष सम्यत्वाभावे सति तद्वयपदेशान दुभयमप्यत्रान्तर्भवति । - प्रश्न - सरागसंयम और सयमासयम ये भवनवासी आदिको आयुके आसव है यह प्राप्त होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में सरागस यम और संयमासंयम नहीं होते. इसलिए उन दोनोंका यहीं अन्तर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायुके आसव है, क्योंकि ये सम्यक्व के होने पर ही होते है । रा बा.६/२०/९/२२७/१५ अम्पकसामायिक- विराधितसम्यग्दर्शना भवनाथ महर्द्धिमास्या पञ्चावतधारिणोऽविराधितसम्यग्दर्शना तिर्ममनुष्या सौधर्मादिषु अच्युतावसानेसुरपद्यन्ते, विनिपतितसम्यक्त्वा भवनादिषु । अनधिगतजीवा जीवा बालतपस अनुपलब्धतत्स्वभावा अज्ञानकृतसयमा लेवाभावात केचिद्भवनव्यन्तरादिषु सहस्रारपर्यन्तेषु मनुष्यतिर्यक्ष्वपि च कामनिर्जराणा निरोध माचर्य रामलधारण परिया पादिभि परिखेदितमूर्तय चाटक निरोधबन्धनमा दीर्घकाल रोगिण अस क्लिष्टा तरुगिरिशिखरपातिन अनशनज्वलनजलप्रवेशनविषभक्षण धर्म बुद्धय व्यन्तरमानुषतिर्यक्षु । नि शीलवता सानुकम्पहृदया जलराजितुल्यरोषभोगभूमिसमुत्पन्नाश्च व्यन्तरादिषु जन्म 1 १७ Jain Education International ३. आयु कर्मके बन्धयोग्य परिणाम प्रतिपद्यन्ते इति । - अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शनकी विरा घना आदि वनवासी आदिको आयु अथवा महर्दिक मनुष्यकी आयु के आसव कारण है। पच अणुव्रतोके धारक सम्यग्दृष्टि तियंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त स्वर्गो में उत्पन्न होते है। यदि सम्यग्दर्शन विराधना हो जाये तो भवनवासी आदिमें उत्पन्न होते है । तत्वज्ञानसे रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मन्द कषायके कारण कोई भवनवासी व्यन्तर आदि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते है, कोई मरकर मनुष्य भी होते है, तथा तियंच भी । आकाम निर्जरा, भूख प्यासका सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर सोना, मल धारण आदि परिषहोसे खेदखिन न होना, गूढ पुरुषोके बन्धन में पडने पर भानही घडाना, दीर्घकालीन रोग होनेपर भी अस क्लिष्ट रहना, या पर्वत के शिखर से पापात करना, अनशन, अग्नि प्रवेश, विषभक्षण आदिको धर्म माननेवाले कुतापस व्यन्तर और मनुष्य तथा तिर्यों में उत्पन्न होते है। जिनने व्रत या शोलोको धारण नहीं किया किन्तु जो सदय हृदय है, जल रेखाके समान मन्द कषायी है. तथा भोग भूमिमें उत्पन्न होनेवाले व्यन्तर आदिमें उत्पन्न होते है । सिा २५० जम्माचारि सजिदाणाणलादिमुकामणिरियो। कुदवा सबलचरिता भवणतिय जति ते जीवा ॥४५०॥ उन्मार्गचारी, निदान करने वाले अग्नि, जल आदिसे झपापात करनेवाले, बिना अभिलाष बन्धादिक के निमित से परिषह सहनादि करि जिनके निर्जरा भई. पंचाग्नि आदि खोटे सपर्क करनेवाले, वहरि सदोष चारित्रके धरन हारे जे जीव है ते भवनत्रिक विषै जाय ऊपजै है । १३. भवनवासी देवायुके बन्धयोग्य परिणाम ति. प ३ / ९६८,१६,२०६ अवमिदमका केई णाणचरिते किलिट्ठभावजुदा | भवणारेसु आउ बधंति हु मिच्छभाव जुदा ॥ १६८ ॥ अविण्यसत्ता केई कामिणिविरहज्जरेण जज्जरिदा कलहपिया पाविट्टा जायते भवदेवे ॥१६६६जे कोहमाणमायातोहात किविचारिता। गुरूचि ते उपति असुरेस २०६१- ज्ञान और चारित्रके विषय में जिन्होंने शंकाको अमीर नहीं किया है तथा जो क्लिष्ट भावसे युद्ध है, ऐसे जो मिध्यात्व भाव से सहित होते हुए भवनवासी सम्बन्धी देवोकी आयु है। कामिनी के विरहरूपी ज्वरसे जर्जरित कलहप्रिय और पापिष्ठ किसने ही विनयी जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न होते है ॥१६६॥ जो जीव क्रोध, मान, मायामें आसक्त है, कृषिष्ठ चारित्र अर्थात कुराचारी है, तथा वैर भाव में रूचि रखते है वे असुरों में उत्पन्न होते हैं । २५७ १४. व्यन्तर तथा नीच देवोंकी आयुके बन्धयोग्य परिणाम भ आ /मू १८१-१८२ / ३६८ णाणस्स केवलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं । माझ्य अवण्णवादी विभिसिय भावण कुणइ ॥ १८१ ॥ ओकोचम्म परे जोडू इछितरससादहेतु अभि भावण कुणइ ॥ १८२ ॥ श्रुतज्ञान, केवली व धर्म, इन तीनोके प्रति मायावी अर्थात् ऊपरसे इनके प्रति प्रेम व भक्ति दिखाते हुए, परन्तु अन्दर से इनके प्रतिका बहुमान या आचरण से रहित जीव, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेठी में दोषोका आरोपण करनेवाले, और अवर्णवादी जन ऐसे अशुभ विचारोंसे मुनि जातिके tus देव में जन्म लेते है ॥ १८९ ॥ मन्त्राभियोग्य अर्थात् कुमारी वगैरह में भूतका प्रवेश उत्पन्न करना, कौतुहलोपदर्शन क्रिया अर्थात् अकाल में जलदृष्टि आदि करके दिखाना आदि चमत्कार, भूतिकर्म अर्थात् मातकादिकोकी रक्षाके अर्थ मन्त्र प्रयोगके द्वारा भूलोकी क्रीडा दिखाना - ये सब क्रियाएँ ऋद्धि गौरव या रस गौरव, या सात गौरव दिखाने के लिए जो करता है सो अभियोग्य जातिके वाहन देवों में उत्पन्न होता है | ति प ३ / २०१-२०५ मरणे विराधिदम्मि य केई कदप्पकिव्विसा देवा । अभियोगा मोदी सुरग्दी जाते ॥२०१३ सच्चय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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