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आयु
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३. आयुकर्मके बन्धयोग्य परिणाम
होणा हस्सं कुब्बति बहुजणे णियमा । कदम्परत्तहिदया ते कंदप्पेसु जायंति १२०२॥ जे भूदिकम्ममंदाभियोगकोदूहलाइसं जुत्ता । जणवण्णे य पअट्टा वाहणदेवेस ते हो ति ॥२०३५ तित्थयरसंघमहिमाआगमगंधा दिएमु पडिकूना । दुधिणया णिगदिल्ला जायते किम्बिससुरेसु २०४॥ उपहउवएसयरा विपडिवण्णा जिणिदमागमि । मोहेणं संमोधा संमोहमुरेसु जायते ॥२०॥ ति प ८/५५६,५६६ सबल चरित्ता कूरा उम्गट्ठा णिदाणकदभावा । मंदकसायाणुरदा बंधते अप्पइद्धिअसुराउं ॥५५॥ ईसाणलतबच्चुदकप्पंतं जाव होति कंदप्पा। किदिवसिया अभियोगा णियकम्पजहपणठिदिसहिया ॥५६॥-मरणके विराधित करने पर अर्थात समाधि मरणके बिना,कितने ही जीव दुर्गतियों में कन्दर्प,किल्विष,आभियोग्य और सम्मोह इत्यादि देव उत्पन्न होते है । जो प्राणी सत्य वचनसे रहित है, नित्य ही बहुजनमें हास्य करते हैं, और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे कन्दर्प देवोंमें उत्पन्न होते है ।२०२॥ जो भूतिकर्म,मन्त्राभियोग और कौतूहलादि आदिसे संयुक्त है तथा लोगों के गुणगान (खुशामद) में प्रवृत्त रहते है, वे वाहन देवो में उत्पन्न होते है।२०३। जो लोग तीर्थकर व सधको महिमा एवं आगमग्रन्थादिके विषयमें प्रतिकूल हैं, दुर्विनयी, और मायाचारी है. वे किल्विष देवोंमें उत्पन्न होते हैं ।२०४॥ उत्पथ अर्थात कुमार्गका उपदेश करनेवाले, जिनेन्द्रोपदिष्ट मार्गमें विरोधी और मोहसे संमुग्ध जीव सम्मोह जातिके देवोंमें उत्पन्न होते है ॥२०॥ दूषित चारित्रवाले, क्रूर, उन्मार्गमें स्थित, निदान भावसे सहित और मन्द कषायों में अनुरक्त जीव अपद्धिक देवों की आयको बाँधते हैं ।५५६॥ कन्दर्प,किरिवषिक
और आभियोग्य देव अपने-अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमश' ईशान, लान्तव और अच्युत कल्पपर्यन्त होते हैं ॥५६६॥
१५. ज्योतिषदेवायुके बंध योग्य परिणाम ति.प. ७/६१७ आयुबघणभावं दसणगहणस्स कारण विविहं । गुणठाजादि पवण्णण भावण लोए व त्ववत्तव्वं ॥६१७-आयु के बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण बीर गुणस्थानादिका वर्णन, भावनलोकके समान कहना चाहिए ॥६१७॥
१६. कल्पवासी देवाय सामान्यके बन्धयोग्य परिणाम स.सि ६/२१/३३६/५ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ किम् । वैवस्यायुष आस्रवइत्यनुवति । अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः।- सम्यक्त्व भी देवायु का आसव है। प्रश्न-सम्यक्त्व क्या है ? उत्तर-'देवायु का आसव है, इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है। यद्यपि सम्यक्त्व को सामान्यसे देवायुका आस्रव कहा है, तो भी इससे सौधर्मादि विशेषका ज्ञान होता है । (रा वा.६/२१/१/५२७/२७) । रा.बा.६/२०/१/५२७/१३ कल्याणमित्रसम्बन्ध आयतनोपसेवासद्धर्मश्रवणगौरवदर्शना-ऽनवद्यमोषधोपवास-तपोभावना-बहुश्रुतागमपरत्वकषायनिग्रह-पात्रदान-पीतपद्मलेश्यापरिणाम-धर्मध्यानमरणादिलक्षण: सौधर्माद्यायुषः आस्रवः । =कल्याण मित्र ससर्ग, आयतन सेवा, सद्धर्मश्रवण, स्वगौरवदर्शन, प्रोषधोपवास, तपकी भावना, बहुश्रुतत्व आगमपरता कषायनिग्रह, पात्रदान,पीत पद्मलेश्या परिणाम, मरण कालमें धर्मध्यान रूप परिणति आदि सौधर्म आदि आयुके आस्रव हैं । (और मी दे.आयु ३/१२) बन्धयोग्य परिणाम । १७. कल्पवासी देवाय विशेषके बन्ध गेग्य परिणाम सि.प4/५५६-५६६ सबलचरित्ता कुरा उम्मग्गट्ठा णिदाणकदभावा। मद
कसायाणुरदा बंध ते अप्पइद्धि असुराउं॥५५६॥ दसपुत्वधरा सोहम्मप्पहदि सम्वसिद्धिपरियंतं । चोइस पृथ्वधरा तट्ट लंतवकप्पादि बच्चते १९५७ सोहम्मादि अच्चुदपरियंत जंति देसवदजुत्ता। चविहदाणपणट्ठा अकसाया पंचगुरुभत्ता ॥५५८॥ सम्मत्तणाणअज्जवलज्जासीलादिएहि परिपुण्णा । जायते इत्थीओ जा अच्चुदकप्पपरियतं ॥५॥ मिगलिंगधारिणो जे उक्तिवस्समेण संपुण्णा । ते जायंति अभव्वा
उवरिमगेवज्जपरियंत ॥५६॥परदोअच्चणवदप्तवर्दसणणाणचरण संपण्णा णि गंथा जायते भव्वा सम्वट्ठसिद्धि परियत ५६१॥ चरयापरिवज्जधरा मदकसाया पियंवदा केई । कमसो भाषणपहदि जम्मते बम्हकप्यतं ॥१६॥जे पचे दियतिरिया सण्णी हु अकामणिज्जरेण तदा । मदक्साया केई जति सहस्सारपरियंतं ॥५६३॥ तणद उणादिसहिया जीवा जे अमदकोहजुदा । कमसो भावणपहुदो केई जम्मति अच्चु जाव ॥५६४॥ आ ईसाणं कप्प उप्पत्ती हादि देवदेवीणं । तप्परदो उन्भूदी देवाणं केवलाण पि ॥५६॥ ईसाणलतवच्चदकप्त जाव होति कदया। किब्धिसिया अभियोगा णियप्पजहण्णादिसहिया ॥५६६॥ - दूषित चरित्रवाले, क्रूर, उन्मार्ग में स्थित, निदान भावसे सहित, कषायोमें अनुरक्त जीव अलपद्धिक देवोंकी आयु माँघते है ॥५५६॥दशपूर्व के धारी जीव सौधर्मादि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त तथा चौदहपूर्वधारी लातव कल्पसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त जाते है।५५०॥ चार प्रकारके दान में प्रवृत्त, कषायोसे रहित व पचगुरुओंकी भक्तिसे युक्त ऐसे देशवत सयुक्त जोव सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युतस्वर्ग पर्यन्त जाते है ॥५५८॥ सम्यक्त्व, ज्ञान, आर्जव, लज्जा एवं शीलादिसे परिपूर्ण स्त्रियाँ अच्युत कम्प पर्यन्त जाती है ॥५५॥ जो जघन्य जिनलिंगको धारण करनेवाले और उत्कृष्ट तपके श्रमसे परिपूर्ण वे उपरिमग्रैवेयक पर्यन्त उत्पन्न होते है ।।६० पूजा, व्रत, तप, दर्शन ज्ञान और चारित्रसे सम्पन्न निर्ग्रन्थ भव्य इससे आगे सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते है ॥५६१॥ मंद कषायी व प्रिय बोलनेवाले कितने ही चरक (साधुविशेष) और परिवाजक क्रमसे भवनवासियोको आदि लेकर ब्रह्मकल्प तक उत्पन्न होते है ॥५६२॥ जो कोई पंचेन्द्रियतियंच संज्ञो आकाम निर्जरासे युक्त है, और मंदकषायी है वे सहस्रार क्ल्प तक उत्पन्न होते है ॥५३॥ जो तनुदडन अर्थात् कायक्लेश आदिसे सहित और तीव क्रोधसे युक्त है ऐसे कितने ही आजीवक साधु क्रमश' भवनवासियों से लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जन्म लेते है ॥५६४॥ देव और देवियों को उत्पत्ति ईशान कप तक होती है। इससे आगे केवल देवोंकी उत्पत्ति ही है।५६॥ कन्दर्प, किविषिक
और अभियोग्य देव अपने अपने कल्पकी जघन्य स्थिति सहित क्रमश ईशान, लान्तव और अच्युत कल्प पर्यन्त होते हैं। १८. लौकान्तिक देवायुके बन्धयोग्य परिणाम ति प.८/६४६-६५१ इह खेत्ते वेरगं बहुभेयं भाविदूण बहुकाल । संजम भावेहि मुणी देवा लोय तिया होति ॥४६॥ इणिदामु समाणो सहदुक्खेस सबधुरिउवग्गे । जो समणो सम्मत्तो सो चिय लोयंतियो होदि ॥६४७॥ जे हिरवेक्वा देहे णिछंदा णिम्ममा णिरारम्भा। णिरबज्जा समणवरा ते च्चिय लोयतिया होति ६४८॥ संजोगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे। जो ममदिठ्ठी समणो सो च्चिय लोयंतिओ होदि ॥६४६अणवरदसम पत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसं तिव्वतवचरणजुत्ता समणा लोयेतिया होति ६५०॥ पंचमहव्यय सहिया पंचम्म समिदीसु चिरम्मि चेट्ठति। पंचक्रवविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होति ।६५१-इस क्षेत्रमें बहुत काल तक बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयमसे युक्त मुनि लौकान्तिक देव होते है।६४६॥ जो सम्यग्दृष्टि श्रमण (मुनि) स्तुति और निन्दामें, मुख और दुख में तथा बन्धु और रिपुमें समान है वही लौकान्तिक होता है ॥६४७॥ जो देह के विषय में निरपेक्ष, निर्द्वन्द्व, निर्मम,निरारम्भ और निरवद्य है वे ही श्रेष्ठ श्रमण लौकान्तिक देव होते है ।६४८॥ जो श्रमण सयोग और वियोगमें, लाभ और अलाभ में, तथा जीवित और मरण में, समदृष्टि होते है वे लौकान्तिक होते है ॥६४६॥ सयम, समिति, ध्यान एवं समाधिके विषय में जो निरन्तर श्रमको प्राप्त है अर्थात सावधान है, तथा तीब तपश्चरणसे सयुक्त है वे श्रमण लौकान्तिक होते है ॥६५॥ पाँच महाबतोंसे सहित, पाँच समितियों का चिरकाल तक आचरण करनेवाले, और पाँचो इन्द्रिय विषयोसे विरक्त ऋषि लौकान्तिक होते हैं ।।६५१।।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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