Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 295
________________ आवश्यकापरिहाणि आशाधर मानकर 'आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यका.' ऐसी भी ति.१६/७ रयणप्पहपुढवीए भवणाणि दीवउदहि उव रिम्मि । भवण निरुक्ति करते है, अर्थात् जो आत्मामें रत्नत्रयका निवास कराते हैं पुराणि दहगिरिपहुदोण उरि आवासा था- रत्नप्रभा पृथिवीमें उनको आवासक कहते है। भवन, द्वीप समुद्रोके ऊपर भवनपुर और द्रह एव पर्वतादिको के अन ध.८१६ यद्गव्याध्यादिवशेनापि क्रियतेऽक्षावशेन च । आवश्यक- ऊपर (व्यन्तरोके) आवास होते है। मवशस्य कर्माहोरात्रिक मुने ॥१६॥ = जो इन्द्रियोके वश्य-आधीन घ.१४/५.६.६३/८६/६ अडरस्स अतोहियो कच्छउडभडरतोठियवनहीं होता उसको अवश्य कहते है। ऐसे सयमी के अहोरात्रिक-दिन परवारसमाणो आवासो णाम ।.. एक्के कम्हि आवासे ताओ अखे ज और रातमें करने योग्य कर्मों का नाम ही आवश्यक है। अतएव लोगमेत्ताओ होति । एक्के कम्हि पुलवियाए जसंखेजलोगमेत्साणि व्याधि आदिसे ग्रस्त हो जानेपर भी इन्द्रियोके वश न पडकर जो णिगोदसरीराणि । जो अण्डरके भीतर स्थित है तथा कच्छउडदिन और रातके काम मुनियोंको करने ही चाहिए उन्हीको अण्डरके भीतर स्थित बक्खारके समान है उन्हे, आव 'स कहते है । आवश्यक कहते है। एक एक आवासमें वे (पुल वियाँ-दे पुलवि) असख्यात लोक २. साधुके षट् आवश्यकका नाम निर्देश प्रमाण होती है। तथा एक एक आवासकी अलग-अलग एक-एक पुल विमें असंख्यात लोक प्रमाण शरीर हाते है-(विशेष दे. म. आ २२० समदा थओ य बंदण पाडिकमर्ष तहेब णादा। पच्च बनस्पति ३/७) खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥२२॥ - सामायिक, चतुर्वि त्रि.सा. २६४ वेंतरणिलयतियाणि य भवण पुरावासभवणणामाणि । दीव शतिस्तव, वेदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग-ये छह आवश्यक सदा समुद्दे दहगिरितरुमि चित्तावणि म्हि कमे ॥२६४ भवनपुर, अवास करने चाहिए। (मू आ ५१६) (रा.वा ६/२२/११/५३०/११) (भ.आ./ अर भवन ए वितर्रानलयनिके तीन ही नाम है। तहाँ क्रम करि द्वीप वि. ११६/२७४/१६) (ध. ८/३,४१/८३/१०) (पु.सि.उ. २०१) (चा.सा. समुद्रनिविष भवनपुर पाईए है। बहुरि द्रह पर्वत वृक्ष इनविषै ५५/३) (अन.ध.८/१७) (भा.पा./टो.७७) आवास पाइए है बहुरि चित्रापृथिवी विर्षे नीचे भवन पाइए है। ३. अन्य सम्बन्धित विषय आवासक-दे. आवश्यक १. साधुके षडावश्यक विशेष-दे. वह वह नाम आविद्ध करण-पद्मनन्दि नं. २ का अपरनाम-दे पद्मनन्दि नं.२ २. श्रावकके षडावश्यक-दै श्रावक आविष्कार-(ध.५/प्र. २७) Discovery. Invention ..त्रिकरणोके चार-चार आवश्यक-- दे. करण ४/६ आवीचिका मरण-दे मरण १ ४. निश्चय व्यवहार आवश्यकोकी मुख्यता गौणता आवत्तकरण-क्ष सा. ४६७ अन्य प्रकृति रूप करके कर्मका नाश -दे, चारित्र ___ करना सो आवृतकरण है। आवश्यकापरिहाणि-स सि. ६/२४/३३६/४ षण्णामावश्यक आवष्ट-भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य ४ क्रियाणां यथाकालप्रवर्तनमावश्यकपरिहाणि । - छह आवश्यक आशसा-रा.वा. ७/३७/१/५५८/३३ आकाङ्गणमभिलाष आशंसेत्युक्रियाओंका (बिना नागा) यथा काल करना आवश्यकापरिहाणि है। (रा.का.६/२४/१२/१३०/१५) (ध.८/३,४१/८५/३) (चा.सा. ५६/३); च्यते। == आकांक्षा अर्थात अभिलाषाको आशसा कहते है। (भा.पा./टी.७७) आशय-औदारिक शरीरमें आशयोका प्रमाण-दे औदारिक १/७ २. एक आवश्यकापरिहाणिमें शेष १५ भावोंका समावेश आशा-१,-दे राग तथा अभिलाषा.२-रुचक पर्वत निवासिनी ध. ८/३,४१/८५/४ तीर आवासयापरिहीणदाए एकाए वि तित्थयरणाम- दिककुमारी देवी-दे. लोक ५/१३ । कमस्स मंधो होदि। ण च एत्थ सेसकारणाणामभावो ण च, दंसण- आशाधर- पं. लालाराम कृत सागारधर्मामृतका प्राकथन । जैन विमुद्दि (आदि). विणा छावासएम णिरदिचारदा णाम संभव दि । हितैषी पत्रमें प्रकाशित 'जीके परिचयके आधारपर ' आपका जन्म तम्हा एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स चउत्थकारण। -उस एक ही नागौरके पास सपादलक्ष (सवा लाख) देशमें माण्डलगढ़ नगर में वि. आवश्यकापरिहीनतासे तीथंकर नामर्म का बन्ध होता है। इसमें १२३० में हुआ। बादशाह शहाबुद्दीन कृत अत्याचारके भयसे आप शेष कारणोंका अभाव भी नहीं है, क्योंकि दर्शनविशुद्धि (आदि) देश छोडकर वि, १२४१ में मालवा देश की धारा नगरी में जा बसे । ...के बिना छह आवश्यकोमें निरतिचारता सभव ही नहीं है। उस समय वहाँके राजा विन्ध्यवर्माके मन्त्री विल्हण थे। उन्होने ३. अन्य सम्बन्धित विषय उनका बहत सत्कार किया। पीछे उनके पुत्र सुभट वर्माका राज्य * एक आवश्यकापरिहाणिसे ही तीर्थकरत्वका बन्ध होनेपर आप बहाँसे छोडकर १० मील दूर नलगच्छ ग्राममें चले गये। आपके पिताका नाम सल्लक्षण (सलखण) और माताका नाम सम्भव है-दे. भावना २ श्री रत्नी था। आपकी जाति बघेरवाल थी। धारा नगरी में 4. महा* साधुको आवश्यक कर्म नित्य करनेका उपदेश बीरसे आपने व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया और उच्च काटिके विद्वान् -दे. कृतिकर्म २ हो गये, तथा पं. आशाधर नामसे प्रसिद्ध हुए। आपके अनेको शिष्य *श्रावकको आवश्यक कर्म नित्य करनेका उपदेश हुए-१.पं. देवचन्द्र, २. मुनि वादीन्द्र, ३. विशालकीति, ४. भट्टारक देवभद्रः विनयभद्र, ६. मदन कीति(उपाध्याय),७ उदय-दे. श्रावक ४ सैन मुनि । आप अनेकों विद्वानो व साधुओके प्रशसा-पात्र हुए है* साधुके दैनिक कार्यक्रम-दे, कृतिकर्म १. धारा नगरी के राजा बिन्ध्यवर्माके मन्त्री विरहण, २ दिगम्बर मुनि उदयसेनने आपका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया है, और आवास-ति प. ३/२३ द हसलदुमादीणं रम्माणं उबरि होति आपके शाखोको प्रमाण बताया है, ३ उपाध्याय मदनकीति आदि आबासा। णागादीण वे सि तियणि लया भावमेक्कमसुराण ॥२३॥ इनके सभी शिष्योने इनकी स्तुति की है। (अन ध./प्रशस्ति) समय - रमणीय तालाब, पर्वत और वृक्षादिक के ऊपर स्थिन व्यन्तर -वि १२३०-११०० (ई. ११७३--१२४३) (पं वि/प्र.३४/A.N.up.) आदिक देवों के निवास स्थानोको आवास कहते है। कृतियाँ-१.क्रिया कलाप (अमर कोश टीका-व्याकरण) सस्कृत, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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