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आशिष
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२. व्यारूपालङ्कार टोका (रुद्रट कृत काव्यालंकार टोका) सं., ३.प्रमेय रत्नाकर (न्याय) सस्कृत, ४. वाग्भट्ट संहिता (न्याय) संस्कृत, ५.भव्य कुमुद चन्द्रिका (न्याय) संस्कृत, ६,अध्यारम रहस्य (अध्यात्म), ७. ईष्टापदेश टोका (अध्यात्म) संस्कृत, ८.ज्ञान दीपिका सस्कृत, ६. अष्टाङ्ग हृदयोद्योत सस्कृत, १० अनगार धर्मामृत (यत्याचार) सस्कृत, ११. मूलाराधना (भगवतो आराधनाको टोका) संस्कृत, १२. सागार धर्मामृत (श्रावकाचार) संस्कृत, १३. भरतेश्वराभ्युदय काव्य सस्कृत, १४. त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र सस्कृत, १५. राजमति विप्रलम्भ सटीक सस्कृत, १६. भूपाल चतुर्विंशतिका टीका सस्कृत, १७. जिनयज्ञ काव्य सस्कृत, १८. प्रतिष्ठा पाठ संस्कृत, १६. सहस्रनाम स्तव सस्कृत, २० रत्नत्रय विधान टोका संस्कृत। (ती.४/४१), (जै.२/१२८)। आशिष-ध. ६/४,१,२०/८५/५अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशी.।
-अविद्यमान अर्थ को इच्छाका नाम आशीष है। आशीर्वाद दे.ऋद्धि ८/१। आशीविष-अपर विदेहस्थ वक्षार, व कूट व उसका रक्षक वेव ।
-दे.लोक ५/३ । आशीविष रस ऋद्धि-दे.ऋद्धिक आश्चर्य-पद्मदमें स्थित एक कूट-दे. लोक ५/७ । आश्रम-प्र. सा./ता.वृ.५५ विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानाश्रमम् । - विशुद्ध ज्ञान व दर्शनकी प्रधानता रूप आश्रम.. अर्थाद ज्ञान दर्शनकी प्रधानता ही आश्रमका लक्षण है।
२ चतुः आश्रम निर्देश म. पु ३९/१५२ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु
जैनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः॥१५२॥ - ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षक ये जैनियोके चार आश्रम है जो कि उत्तरोत्तर विशुद्धिको प्राप्त होते है। (चा. सा. ४१/५ मे उपासकाध्ययनसे उधृत) (साध.७/२०) आश्रय-१. आश्रय आश्रयी भाव-दे. सम्बन्ध; २. आत्माश्रय दोष -दे. आत्माश्रय, ३. अन्योन्याश्रय दोष-दे अन्योन्याश्रय; ४ आश्रयासिद्धत्व हेत्वाभास-दे. असिद्ध । आश्लेषा-एक नक्षत्र-दे, नक्षत्र । आषाढ-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । आसन
१. आसनके भेद ज्ञा २८/१० पर्यडूमीपर्यङ्का वज्र वीरासनं तथा। मुखारविन्दपूर्वे च
कायोत्सर्गश सम्मत' ॥१०॥ - पर्यकासन, अर्द्ध पर्यकासन, वज्रासन, बीरासन, सुखासन, कमलासन, कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये है।
२ आसन विशेषके लक्षण अन,ध/८३में उदधृत 'जड़धाया जपाया श्लिष्टे मध्यभागे प्रकीर्तितम्। पद्मासन' सुखाधायि सुसाध्यं सकलेजनैः । बुधैरुपर्यधोभागे जधयोरुभयोरपि। समस्तयो कृते ज्ञय पर्यङ्कासनमासनम् ॥२॥ उर्वोपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं धीरैर्न कातरै ॥३॥ जपाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जड्यया। पद्मासनमिति प्रोक्त तदासनविचक्षण।। स्याजघयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पयको नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिक । वामोंघि दक्षिणोरूध वामोरुपरि दक्षिण.। क्रियते यत्र तद्धीरो चित्त वीरासनं स्मृतम्।" -जंघाका दूसरी जंघाके मध्य भागसे मिल जाने पर पद्मासन हुआ करता है। इस आसन में बहुत सुख होता है, और समस्त लोक इसे बडी सुगमतासे धारण कर सकते हैं। दोनों जघाओं
को आपसमें मिलाकर ऊपर नीचे रखनेसे पर्यासन कहते हैं। पैरोंको दोनों जंघाओंके ऊपर नीचे रखनेसे वीरासन होता है। कातरं पुरुष इसे अधिक देर तक नहीं कर सकते, धीर वीर ही कर सकते हैं । (क्रि.क.१/६) किसी-किसीने इन आसनों का स्वरूप इस प्रकार मताया है कि-जम एक जंघाका मध्य भाग दूसरी जंघासे मिल जाये तम उस आसनको पद्मासन कहते हैं। दोनों पैरोंके ऊपर जंघाओंके नीचेके भागको रखकर नाभिके नीचे ऊपरको हथेली करके ऊपर नीचे दोनों हाथों को रखने से पर्यकासन होता है। दक्षिण जंघाके ऊपर वाम पैर और वाम धाके ऊपर दक्षिण पैर रखनेसे वीरासन मताया है जो कि धीर पुरुषोके योग्य है। बो.पा./टी. ५१ में उदधृत "गुल्फोत्तानकरांगुष्ठरेखारोमालिनासिका। समदृष्टि. समाः कुर्यान्नातिस्तब्धो न वामनः।"-दोनों पावके टखने ऊपरकी ओर करके अर्थात दोनों पाँवको अधाओंपर रखकर उनके ऊपर दोनों हाथोंको ऊपर नीचे रखें ताकि हाथके दोनों अंगूठे दोनों टखमों के ऊपर आ जायें। पेट ब छातीकी रोमावली व नासिका एक सीधमें रहें। दोनों नेत्रोंकी दृष्टि भी नासिकापर पड़ती रहे। इस प्रकार सबको समान सीधमें करके सोधे मैठे। न अधिक अकड़ कर और न झुककर । (इसको सुखासन कहते है।) * आसनोंकी प्रयोग विधि-दे. कृतिकर्म । आसन्न भव्य-दे. भव्य । आसन्न मरण-दे. मरण १ आसादन-स. आ.५४ पंचेव अस्थिकाया छज्जीवणिकाय महवया पंच । पवयणमादु पदत्या तेतीसञ्चासणा भणिया ॥५४॥ जीव आदि पाँच अस्तिकाय, पृथ्वीकायादि स्थावर व दो इन्द्रियसे पाँच इन्द्रिय तक प्रसकाय-इस तरह छह जीवनिकाय, अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समिति, व काय गुप्ति आदि तीन गुप्ति-ऐसे आठ प्रवचन माता और जीवादि नव पदार्थ-इस प्रकार ये तेंतीस पदार्थ है। इनकी आसादनाके भी ये ही नाम हैं। इन पदार्थोंका स्वरूप अन्यथा कहना, शंका आदि उत्पन्न करना उसे आसादना कहते हैं। ऐसा करनेसे दोष लगता है इसलिए उसका त्याग कराया गया है। स.सि.4/१०/६२७/१३ कायेन वाचा च परप्रकाशस्य ज्ञानस्य वर्जनमासादनम् ।-(कोई ज्ञानका प्रकाश कर रहा है) तब शरीर या बचनसे उसका निषेध करना आसादना है। * उपवात और आसादनमें अन्तर-दे, उपघात । आसिका-दे. समाचार। आसुरी-भ आ./म.१८३ अणुसंधरोसबिग्गहसंसत्तवो णिमित्तपडिसेबी। णिमिवणिराणुतावी आमुरिय भावण होदि। -जिसका कोप अन्य भवमें भी गमन करनेवाला है, और कलह करना जिसका स्वभाव बन गया है, वह मुनि रोष और कलहके साथ ही तप करता है ऐसे तपसे उसको असुरगतिकी प्राप्ति होती है। मू आ.६८ खुद्दी कोही माणी मायी तह संकिलितब चरिते। अणुबधबद्धवेरराई असुरेव बज्जदे जीवो ॥६॥-दुष्ट, क्रोधी, मानी, मायाचारी, तप तथा चारित्र पालने में क्लेशित परिणामोंसे सहित
और जिसने वैर करने में बहुत प्रीति की है ऐसा जीव आसुरी भावना से असुरजातिके बंगरोष नामा भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होता है। आस्तिक्य-गो.जी./जी.प्र.५६१ में उदधृत 'आप्ते श्रुते तत्त्वचित्तमस्तित्वसंयुतं । आस्विक्यमास्तिकैरुक्तं सम्यक्त्वेन सुते नरेश -जो सम्यग्दृष्टि जीव, सर्वज्ञ देववि, वतविर्षे, शास्त्रविष तत्त्वविर्षे 'ऐसे ही है' ऐसा अस्तित्व भाव करि संयुक्त चित्त हो है सो सम्यक्त्व सहित जीव विः आस्तिक्य गुण है।
जैनेन्द्र सिवान्त कोश
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