________________
आस्याविष ऋद्धि
खादो ३/१५६/१०/० हि सर्वज्ञोरागरगोजोबा रुचिरुपलक्षणम् । सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा प्रणीत जीवादिक तत्त्वों मैं रुचि हानेको आस्तिक्य कहते है । ६.४५,४६३ स्विः सिद्धं विनिश्यिति। धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽस्त्यादि धर्मवित् ॥४५२३ स्वात्मानुभूतिमात्र स्वादास्तिक्य परमो गुण' । भवेन्मा वा परद्रव्ये ज्ञानमात्र (त्रे) परत्वत ॥४६३ ॥ स्वत. सिद्ध नव तत्त्वोके सद्भाव में तथा धर्म में धर्मके हेतुमे और धर्म के फसमै यो निश्चय रखना है वह जीवादि पदार्थों में अस्तित्व बुद्धि रखनेवाला आस्तिक्य गुण है ॥ ४५२॥ केवल स्वात्मानुभूति रूप परम गुण है. परद्रव्यमें पररूपपनेसे ज्ञानमात्र जो स्वारमति है यह हो व न हो आस्याविष ऋद्धि-ि
भी
आस्रवजीवके द्वारा प्रतिक्षण मनसे, वचनसे या कायसे जो कुछ शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होती है उसे जीवका भावासव कहते है। उसके निमित्त से कोई विशेष प्रकारकी जडपुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर उसके प्रदेशो में प्रवेश करती है सो प्रयास है। सर्वसाधारणको तो कषायवश होनेके कारण यह आस्रव आगामी बन्धका कारण पडता है, इसलिए साम्परायिक कहलाता है, परन्तु वीतरागी जनोंको वह इच्छासे निरपेक्ष कर्मवश होती हैं इसलिए आगामी बन्धका कारण नही होता। और आनेके अनन्तर क्षण में ही झड जानेसे ईर्ष्यापथ नाम पाता है।
१. आस्रवके भेद व लक्षण
१. आस्रव सामान्यका लक्षण
तसू ६/१-२ कायवाङ्मन कर्मयोगः ॥ ॥ स आसव ॥ = काय, वचन, व मनकी क्रिया योग है | १|| वही आस्रव है ॥२॥
रा. वा. १/४/६.१६/२६ आस्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रव ॥१॥ पुण्यपापागमद्वारलक्षण आसव ॥ ९६४. आसव इवासव । क उपमार्थ । यथा महोदधे सलिलमापगामुखै रहरहरापूर्यते तथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टे कर्मभिरमात्मा श्रमांपूर्यत इति कर्म आवे सो आवत्र है, यह करण साधनसे लक्षण है। आस्रवण मात्र अर्थात् कर्मोंका आना मात्र आसव है. यह भावसाधन द्वारा लक्षण है। BEH पुण्यपापरूप कर्मोंके आगमन के द्वारको आसव कहते हैं । जैसे नदियो के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भर जाता है, वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतों से आत्मामें कर्म आते है (रा.मा.६/२/४.४/५०६) २. आवके भेद प्रभेव
( न च वृ / म् आस्रव १५२ )
1
1 भाव
ईय
(] (/४). (स.सि./४/१२०/८)
1
साम्परायिक
1
दृष्टि न
१. इन्द्रिय, कषाय, अवत और २५ क्रिया रूप भेद (त.सु. ६/५). (व सा.४/८)
२. मिश्रा, अविरति, कषाय और योग
(मा. अ. ५०). (स.सा / १६४, गोक / यू. ३. मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (द्र सं / बृ ३० ), ( अन ध २ / ३७)
४. शुभ और अशुभ
1
(रावा १/१४/३६/२५)
T
1
मन वचन काय
Jain Education International
E
२८२
३. द्रव्यास्त्रवका लक्षण
न च वृ १५३ लघूण तं णिमित्तं जोगं ज पुग्गले पदेसत्य परिणमदि कम्मभावं तं पि दव्वासवं बीजं ॥ १५३० - अपने-अपने निमित्त
रूप योगको प्राप्त करके आत्म प्रदेशो में स्थित पुद्गल कर्म भाव रूपसे परिणमित हो जाते है, उसे द्रव्यासव कहते है ॥१५- ४
इ.सं / पू. ३१ वाणावर जोग ओ अणेयभेओ जिणवादी ॥३१॥
पुग्गलं समासपदि व्यासव ज्ञानावरणादि कर्मोके योग्य पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ॥ १५३॥
४. भावास्त्रवका लक्षण
[भ] [ ३८/१४/१० आसवत्यनेनेत्यास आत्यागति जायते काना कारण नात्मपरिणामेन स परिणाम आव - आत्मा के जिस परिणामसे पुद्गल द्रव्य कर्म बनकर आत्मामें आता है उस परिणामको (भावास्रव) आस्रव कहते है । (द्र सं / मू. २१) इस टी २० निसरह वित्तिल शुभाशुभ परिणामेन शुभाशुभकर्मागमनमात्रव । == आस्रव रहित निजात्मानुभवसे विलक्षण जो शुभ अशुभ परिणाम है, उससे जो शुभ अशुभ कर्मका आगमन है सो आसव है ।
५. साम्परायिक आस्रवका लक्षण
त. सू. ६/४ सक्षायाक्षाययो' साम्परायिकेर्यापथयो ॥४॥ कषाय सहित कषाय रहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापिथ कर्मके आसव रूप है ।
स
जो
आस्रव
ससि ६/४/३२१/१ सम्पराय संसार । तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिक्म् । ==सम्पराय संसारका पर्यायवाची है । जो कर्म संसारका प्रयोजक है। वह साम्परायिक है ।
रा. वा ६/४/४-७/५०८ कर्मभिः समन्तादात्मन पराभवोऽभिभव' सम्पयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते यथा ऐन्द्रमहिकमिति ॥५॥ यावादीनामसम्पन्न स्वादपरमाना योगदान कर्मय मा आईपरे स्थितिमापमान साम्परायिकमित्यु
कर्मोके द्वारा चारो ओरसे स्वरूपका अभिभव होना साम्पराय है ||४|| इस साम्परायके लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आसव है ॥५॥ मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्म साम्पराय दशवे गुणस्थान तक क्षयका चेप रहने से योगके द्वारा आये हुए कर्म गीले चमडेपर धूलकी तरह चिपक जाते है। अर्थात् उनमें स्थिति बन्ध हो जाता है। यही साम्परायिकासव है।
* ईयपिय आसवका लक्षण
कर्म
६. शुभ अशुभ मानसिक वाचनिक व काकि आनक
लक्षण
!
रावा १/७/१४/३६/२५ तत्र कायिको हिसाऽनृतस्तेयाब्रह्मादिषु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञ । वाचिक परुषाक्रोशविशुनपरोपघातादिषु वचस्तु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञ' मानसो मध्याभिषायसूयादिषु मनस प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञ हिसा सत्य चोरी, कुशीस आदिमें प्रवृति अशुभ कायासव है । तथा निवृत्ति शुभ कायासव है । कठोर गाली चुगली आदि रूपसे परबाधक वचनोंकी प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभाव है । मिथ्या श्रुति ईर्षा मात्सर्य षड्यन्त्र आदि रूपसे मन्की प्रवृत्ति मानस अशुभासव और निवृत्ति मानस शुभाव है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org