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मालोनो
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आवजित करण
(आगम बाल वा चारित्र बाल मुनिके) पास सम्पूर्ण अपराधोंकी आलोचनाकी है मन, वचन, कायसे और कृत. कारित, अनुमोदनासे किये हुए अपराधोकी मैने आलोचना की है ऐसे जो समझता है उसको यह आलोचना करना नौवे दोषसे दृष्ट है ॥५६॥ १० तत्सेवी-पार्श्वस्थ मुनि, पार्श्वस्थ मुनिके पास जाकर उसको अपने दोष कहता है. क्योकि यह मुनि भी सर्व व्रतो में मेरे समान दोषोसे भरा हुआ है ऐसा वह समझता है। यह मेरे मुखिया स्वभावको और वतोके अतिचारो को जानता है, इसका और मेरा आचरण समान है, इसलिए यह मेरे को बड़ा प्रायश्चित्त न देगा ऐसा विचार कर वह पार्श्वस्थ मुनि गुरुको अपमे अतिचार कहता नहीं और समान शीलको अपने दोष बताता है । यह पार्श्वस्थ मुनि कहे हुए सम्पूर्ण अतिचारोके स्वरूपको जानता है, ऐसा समझ कर व्रत भ्रष्टोंसे प्रायश्चित्त लेना यह आगम निषिद् तत्सेवी नामका दसवाँ दोष है ।६०१-६०३॥ (रा.वा १/२२/२/६२१/१), (चा सा १३८/३), (द पा/टी हमें उद्धृत),
(अन ध७/४०-४४) ३. आलोचना निर्देश १. आलोचना वीतरागी गुरुके ही समक्ष को जानी
चाहिए भ आ /मु.व वि./६८६ । आलोयणा वि हु पसत्यमेव कादविया तत्थ ३५८६ ... आलोचनागोचाराद्यतिचारविषया। तथा क्षपकसमीपे। पसत्थमेव कादव्या यथासौ न शृणोति तथा कार्या। बहुषु युक्ताचारेषु सरिघु सत्सु । -योग्य आचारोंको जाननेवाले आचार्योंके पास ही सूक्ष्म अतिचार विषयक आलोचना करना हो तो वह भी प्रशस्त ही करनी चाहिए अर्थात वह क्षपक सुन न सके ऐसी आलोचना करनी चाहिए।
२ आलोचना सुननेकी विधि भ.आ./मुर वि ५६० पाचीणोदीचिमुहो आयदणमुहो व सुहणिसण्णो ह। ६०॥ नियाकुलमासीनस्य यत् श्रवण तदालोचयितु' सम्माननं । यथा क्यचिच्छ्रवणे मयि अनादरो गुरोरिति नोत्साह परस्य स्यात् । पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख अथवा जिनमन्दिराभिमुख होकर मुख से बैठकर आचार्य आलोचना सुनते है । अथवा निर्व्याकुल बैठकर गुरु आलोचना सुनते है, इस प्रकारसे सुननेसे आलोचना करनेवाले का सम्मान होता है। इधर-उधर लक्ष देकर सननेसे गुरुका मेरे सम्बन्ध में अनादर भाव है ऐसी आलोचककी समझ हागा, जिससे दोष कहनेमे आलाचना करनेवालेका उत्साह ना होगा। ३ एक आचार्यको एक ही शिष्यकी आलोचना सुननी
चाहिए भ आ./म व वि ५६०.. आलोयण पडिच्छाद एक्को एक्कस्स विरहम्मि । एक एव शृणुयात्सरिल ज्जापरो बहूना मध्ये नात्मदोष प्रकटयितु- मोहते। चित्तखेदश्चास्य भवति । तथा कथयत एकस्यैवालोचना शृणुयात् । दुखधारवाद्य गदनेकवचनसदर्भस्य । तद्दोषनिग्रह नाय बराक प्रतीच्छति । आचार्य एक क्षपककी ही आलोचना सुनता है। एक ही आचार्य एकके दोष सुने, यदि बहुत गुरु सुनने बैठेगे तो आलोचना करनेवाला क्षपक लज्जित होकर अपने दोष कहनेके लिए तैयार होनेपर भी उसके मन में खेद उत्पन्न होगा। अत' एक ही आचार्य एक ही के दोष सुने, एक कालमें एक आचार्य अनेक क्षपको की आलोचना सुननेकी इच्छा न करे, क्योकि अनेकोका वचन ध्यान रखना बडा क ठन कार्य है। इसलिए उनके दोष सुनकर योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकेगा। ४. आलोचना एकान्तम सुननी चाहिए। भ आम्. व वि५६० आलोयणं पडिच्छदि विरहम्मि ६०॥ इत्यनेनैव गत्वाद्विरहम्मि इति वचनं निरर्थक । यद्यन्येऽपि तत्र
स्युन एकेकैव श्रुतं स्यात् । न लज्जत्ययमस्य अपराधश्चास्य अनेनावगत एवेति नान्यस्य सकाशे शृणुयात इति । एतत्सूच्यते विरहम्मि एकान्ते आचार्य शिक्षेति ।- एकान्तमे ही आचार्य आलोचना सुनता है ॥५६०॥ प्रश्न-(एक समय में एक ही शिष्यकी तथा एक ही आचार्य आलोचना सुने उपरोक्त) इतने विवेचन मे ही एकान्तमें गुरुके बिना अन्य कोई नहीं होगा ऐसे समय में आलोचना सुननी चाहिए तथा करनी चाहिए' ऐसा सिद्ध होता है अत 'विरहम्मि' यह पद व्यर्थ है । उत्तर -यदि वहाँ अन्य भी होगे तो आल चकके दोष बाहर फूटने सम्भव है, एक गुरु यदि होगे तो उस स्थानमें प्रच्छन्न रीतिसे दूसरेका प्रवेश होना योग्य नहीं है, यह सूचित करने के लिए आचार्य ने 'विरहम्मि' ऐसा पद दिया है। ५. आलोचनाका माहात्म्य रा. वा. ६/२२/२/६२१/१३ लज्जापरपरिभवादिगण नया निवेद्यातिचार यदि न शोधयेद अपरोक्षितायव्ययाधमर्ण वदवसीदति। महदपि तपस्कर्म अनालोचनपूर्वकम् नाभिप्रेतफलप्रदम् आविरिक्तकायगौषधवत कृतानालोचनस्यापि गुरुमतप्रायश्चित्तमकुर्वतोऽपरिकर्मसस्यवत् महाफल न स्यात्। कृतालाचनचित्तगत प्रायश्चित्त परिमृष्टदर्पणतलरूपवत् परिभ्राजते। -लज्जा और पर तिरस्कार आदिके कारण दोषोका निवेदन करके भी यदि उनका शोधन नही क्यिा जाता है तो अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब न रखनेवाले कर्जदारकी तरह दुखका पात्र होना पड़ता है। बडी भारी दुष्कर तपस्याएँ भी आलोचनाके बिना उसी तरह इष्ट फल नही दे सक्ती जिस प्रकार विवेचनसे शरीर मलकी शुद्धि किये बिना खायी गयी औषधि । आनचिना करके भी यदि गुरुके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तका अनुठान नही किया जाता है तो वह बिना सबारे धान्यकी तरह महा फलदायक नही हो सकता। आलोचना युक्त चित्तसे किया गया प्रायश्चित्त मॉजे हुए दर्पण के रूपकी तरह निरवरकर चमक जाता है। ६ अन्य सम्बन्धित विषय * निश्चय व्यवहार आलोचनाकी मुख्यता गौणता.
-दे, चारित्र * सातिचार आलोचना मायाचारी है-दे माया २ * किस अपराधमे आलोचना प्रायश्चित किया जाता है
-दे प्रायश्चित्त * तदुभय प्रायश्चित्त-दे, प्रायश्चित्त आवरक व आवरणस सि ८/२/३८०/३ आवृणोत्यावियतेऽनेने ति वा आवरणम्। जो
आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। (गो जी जी प्र३३/२७/१०)। ध६/१६-१.५1८1५ अप्पणा विरोहिदम्य सणिहाणे स ते विज णिम्मूलदो ण विणस्सदि.तमाबरिज्जमाग,इदर चावरया-अपने विरोधी द्रव्यके सन्निधान अर्थात् सामीप्य होनेपर जो निर्मूलत नही विनष्ट होता, उसे आद्रियमाण कहते है, और दूसरे अर्थात् आवरण करनेवाले विरोधी द्रव्यको आवरक कहते है। " आजित करण-क्ष.सा/मु ६२१-६२३ हेठा दंडस्तो मुहृत्तमा
बज्जिद हवे करण । तच समुग्धादस्स य अहिमुहभावो जिणिदस्स ॥ सणे आवज्जिद करणे बियस्थ ठिदिरस पहदी। उदयादि अवठ्ठिदया गुण सेढी तरस दम च ॥ जोगिस्स सेसकाली गय जोगी तस्स सखभागो य। जाव दियं तावदिया आवज्जिद करणगुणसेढी । सयोगकेवली जिनको केवली समुदधात करनेके अन्तर्मुहूर्त पहिले आवजित नामा करण हो है। समुद्रात क्रियाको सम्मुखपना, सो ही आवजित करण कहिए। आवजित यहाँ स्थिति व अनुभागका काण्डक घात नहीं होता। अवस्थित गुण श्रेणी आयाम द्वारा घात
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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