________________
आलब्ध
प्रतिपालनमें तत्पर रहती हैं, कोध, बेर, मामाचारी इन तीनों रहित होती हैं । लोकपवाद भय रूप लज्जा, परिणाम, न्याय मार्ग में प्रवर्तने रूप मर्यादा दोनों कुलके योग्य आचरण-इन गुणोंकर सहित होती हैं। शास्त्र पड़ने पड़े शाखके पाठ करने में सुनने अथवा अनित्यादि भावनाओं और तप, विनय और संयम इन सबमें तत्पर रहती हैं तथा ज्ञानाभ्यास शुभ योगयुक्त रहती हैं ॥१८॥ जिनके वस्त्र विकार रहित होते है, शरीका आकार भी विकार रहित होता है, शरीर पसेब व मलकर लिप्त है तथा संस्कार (सजावट) रहित है। क्षमादि धर्म गुरु आदिकी सन्तान रूप कुल, यश, व्रत इनके समान जिनका शुद्ध आचरण है ऐसी का होती है।
४. आर्यिका को न करने योग्य कार्य सु. बा. १६३ रोहन भोयमपण सुख छबिहार मे विरदान पादमकरण घोवण गेय च ण य कुज्जा ॥ १३॥ - आर्थिकाओंको अपनी वसतिकामें तथा अन्यके घर में रोना नहीं चाहिए, बालकादिक्रोंको स्नान नहीं कराना । चालकादिकोंको जिमाना, रसोई करना, सूत कातना, सीना, असि, मस आदि छः कर्म करना, संयमी जनके पैर धोना, साफ करना, राग पूर्वक गीत, इत्यादि किया नहीं करना चाहिए ॥११३॥
५. आर्यिका विहार सम्बन्धी
मू. आ / १६२ ण य पर गेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्स गमणिज्जे गणिमीमा ११२ आर्थिकाको बिना प्रयोजन पराये स्थान पर नहीं जाना चाहिए। यदि अवश्य जाना हो तो भिक्षा आदि कालमें बडो आर्थिकाओको पूछ कर अन्य आयिकाओं को साथ लेकर जाना चाहिए ।
६. आर्यिका अन्य पुरुष व साधुके संग रहने सम्बन्धी -दे, संगति नय
* आर्यिकाको नमस्कार करने सम्बन्धी आलब्ध- - कायोत्सर्गका अतिचार-दे व्युत्सर्ग / १ । आलय - स सि ४/२४ / २५५ / २ एत्य तस्मिन् लोयन्त इति आलय आवास आकर जिसमें लयको प्राप्त होते है वह आलय या आवास कहलाता है । (रावा. ४/२४/१/२४२ ) आलयांग
एक भेद
आलाप जी / श्री.प्र ७०७/११४०/९४ गुणस्थाने चतुर्दवा मार्गणास्थाने च प्रसिद्ध विशतिविधानां गुणजीवेत्यादीनां सामान्यपर्यापर्यामात्र आसाचा भवन्ति तथा वेदरुपायविभिन्नेषु अनिवृतिषु अपि पृथक् पृथग्भवन्ति ।
DISE
गो. जी / जी प्र. ७०६/११ तत्रापर्याप्त लाप लन्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्तश्चेति द्विविधो भवतिओ को गुणस्थान और चौदह मार्गणा स्थान ये परमागम विषै प्रसिद्ध है । सो इनिविषै 'गुण जीवा पज्जती' (पं. स / प्रा. १ / २ ) इत्यादिक बीस प्ररूपणानिका सामान्य पर्याप्त, अपर्याप्त ए तीन आलाप हो है । बहुरि वेद अर कषाय करि भेद हैं जिन विषै ऐसे अनिवृत्तिकरण के पाँच भाग तिनि विषै पाँच आलाप जुदे जुदे जानना । (वें पॉच इस प्रकार है- सवेद भाग, क्रोध भाग समान भाग, समाया भाग, बादर कृष्टि लोभ भाग । ) तहाँ अपर्याप्त आप दो प्रकारका निवृत्यपर्याप्त आलाप पद्धति-आचार्य देवसेन (वि. १२०-१०१२) द्वारा संस्कृत गद्य में रचित प्रमाण नय विषयक सूत्र ग्रन्थ (ती २ / ८२) आलापन बन्ध
आलंच्छन सोचना है।
Jain Education International
•
आलेपन --- दे. बन्ध १० आलोक
त्या वि/वृ १/१२/२००/१५ आलोको दर्शनम् - आलोकका नाम दर्शन है । आलोचना
आलोचना
उदित होनेवाली कथायों फनिस को बत रंग व बाह्य दोष साधकको प्रतीतिमें आते हैं, जीवन शोधनके लिए उनका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है इस प्रयोजनकी सिद्धिके लिए आलोचना सबसे उत्तम मार्ग है। गुस्के समक्ष निष्कप्ट भाव से अपने सर्व छोटे या बड़े दोषों को कह देना आलोचना कहलाता है। यह वीतरागी गुरुके समक्ष ही की जाती है, रागी व्यक्ति के समक्ष नहीं । १. भेद व लक्षण
१. आलोचना सामान्यके लक्षण
ससा / मूवआ/ ३८५जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडिय अणेयविधथरविसेस | तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया ॥ ३८५॥ - जो वर्तमान कालमें शुभ अशुभ कर्म रूप अनेक प्रकार ज्ञानावरणादि विस्तार रूप विशेषको लिए हुए उदय आया है उस दोषको जो ज्ञानी अनुभव करता है, वह आत्मा निश्चयसे आलोचना स्वरूप है । ( स सा./ आ. ३८५)
नि. सा / मू १०१ जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम | आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥१०६॥ - जो (जीव) परिणामको समभाव में स्थाप कर (निज) आत्माको देखता है, वह आलोचन है ऐसा परम जिनेन्द्रका उपदेश जानना ।
--
ससि १/२२/४४०/६ तत्र गुरवे प्रमाद निवेदनं दशदोषविवजितमासोचनम् । गुरुके समय दश दोषोंको टाल कर अपने प्रमादका निवेदन करना) जातोचना है (रा ना. १/२२ / २ / ६२० ). ( त सा / ७/२२), (अन घ / ७/३८) १२/५.४/१२/१०/रुणमपरिश्समान सुवरहस्थानं बीयराया तिरयणे मेरू व शिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्त । अपरिसव अर्थाद आससे रहित के रहस्यको जाननेवाले
राग और रत्नत्रय में मेरुके समान स्थिर ऐसे गुरुओ के सामने अपने दोषका निवेदन करना (व्यवहार) आलोचना नामका प्रायश्चित्त है । भ. आ / वि. ६/३२ / २ स्वकृतापराधगुपनत्यजनम् आलोचना ।
[भ] आ./थि १०/४६/६ कृतादिचारजुगुप्सापुर सर वचनमालोचनेति । अपने द्वारा किये गये अपराधों या दोषों को दबानेका प्रयत्न न करके अर्थात छिपानेका प्रयत्न न करके उसका त्याग करना निश्चय आलोचना है। तथा चारित्राचरण करते समय जो अतिचार होते हैं । उसकी पश्चात्ताप पूर्वक निन्दा करना व्यवहार आलोचना है । २. आलोचनाके भेद
भ / २३३ आलोयादुविहाय होदि पदविभागीय आघेण मूलपत्तस्स पर्याविभागीय इदरस्स ||३३|| - आलोचनाके दो ही प्रकार है- एक ओघालोचना दूसरी पदविभागी आलोचना अर्थात् सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना ऐसे इनके और भी दो नाम हैं । वचन सामान्य और विशेष, इन धर्मोका आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है. अलोचना के उपर्युक्त दो भेद है। सुआ / ६९६ आलोचणं दिवसिय राजि हरिया
प
चादुम्मास संरमुत्तम च ॥१६॥ गुरुके समीप अपराधका कहना आलोचना है । वह देवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक समितिमा इस तरह सात प्रकारकी है। नि सा / म २०८ आलोयणमालंच्छण विग्रडीकरणं च भावसुद्धी य चविहमिह परिकहियं आलोयण लक्खण समए ॥१०८॥ आलोचना कामरूप आलोचन, तुंच्छन अविकृतिकरण और भानसुद्ध ऐसे चार प्रकार शास्त्रमें कहा है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org