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आर्यकमांड देवी
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आयिका
उपरोक्त अन द्वि प्राप्त आयों मे भी कार्य तीन प्रकारके हैं- सावध कार्य, अल्पसावध कार्य असावा कार्य । अल्प सावध कार्य छ प्रकारके होते है-असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या व शिसपके भेदसे । (इन सबके लक्षणोके लिए-दे साबद्य) चारित्रार्य दो प्रकार के हैं - अधिगत चारित्रार्य और अनधिगम चारित्रार्य । दर्शनार्य दश प्रकार के है-आज्ञा, मार्ग, उपदेश सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ, परमावगाढ रुचिके भेद से। लक्षणों के लिए-वे सम्यग्दर्शन I/१ । दश प्रकारके सम्यग्दर्शनके भेद )
५ क्षेत्रार्यका लक्षण रा. वा ३/३६/२/२००/३० तत्र क्षेत्रार्या काशी कौशलादिषु जाताः ।
-काशी, कौशल आदि उत्तम देशोमे उत्पन्न हुओको क्षेत्रार्य कहते है।
६ जात्यायका लक्षण रा वा.३/३/२/२००/३१ इक्ष्वाकुज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाता
जात्यार्या । इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदिक उत्तम कुलोमें उत्पन्न हुओ को जात्यार्य कहते है।
७ चारित्रार्यका लक्षण रा.वा ३/३६/२/२०१/ह तद्भेद अनुपदेशोपदेशापेक्षभेदकृत । चारित्रमोहस्योपशमात याच्च बाह्योपदेशानपेक्षा आत्मप्रसादादेव चारित्रपरिणामास्कान्दिन उपशान्तकषायाश्चधिगतचारित्रार्या । अन्तश्चारित्रमोहश्योपशमसद्भावे सति बाह्योपदेशनिमित्तविरतिपरिणामा अनधिगमचारित्रार्या । - उपरोक्त चारित्रार्य के दो भेदउपदेश व अनुपदेशकी अपेक्षा क्येि गये है। जो बाह्योपदेशके बिना आत्म प्रसाद मात्रसे चारित्र मोहके उपशम अथवा क्षय होनेसे चारित्र परिणामको प्राप्त होते है, ऐसे उपशान्त कषाय व क्षीण कषाय जीव अविगत चारित्रार्य है । और अन्तरग चारित्र मोहके क्षयोपशमका सद्भाव होनेपर बायोपदेशके निमित्तसे विरति परिणामको प्राप्त अनधिगम चारित्रार्य है। आर्य कृष्मांड देवी-एक विद्याधर विद्या-दे. विद्या। आर्यखण्ड-१. आर्यखण्ड निर्देश ति प/४ २६६-२६७ गगासिधुर ईहि वेवड्दण गेण भरहखेत्तम्मि।
छक्खड सजाद ॥२६६॥ उत्तरदक्विणभरहे खडा णि तिणि होति पत्तेक्क । दभिवण तियख डेसु मज्झिमत्त डस्म बहुमज्झे । गगाव सिन्धु नदी और विजया पर्वतसे भरत क्षेत्रके छ' खण्ड हो गये है ॥२६६॥ उत्तर और दक्षिण भरत क्षेत्रमें से प्रत्येकके तीन तीन खण्ड है। इनमें से दक्षिण भरतके तीन खण्डोमें मध्यका आर्य खण्ड है। २. आर्य खण्ड मे काल परिवर्तन तथा जीवो व गणस्थानों
सम्बन्धी विशेषताएँ ति प.४/३१३-३१४,३१६ भरहक्लेत्तम्मि इमे अज्जख डम्मि कालपरि
भागा। अवसपिणि उस्सप्पिणिपज्जाया दोणि होति पुढ ॥३१३॥ णरतिरियाण आऊ उच्छेह विभूदिपहदिय सव्वं । अवसप्पिणिए हायदि उस्सप्पिणियासु वड् ढेदि ॥३१४॥ दोण्णि वि मिलिदे कप्पं छन्भेदा होति तस्य एक्केवक । सुसमसुसम च सुसम तइज्जयं सुसमदुस्ममय ॥३१६॥ दुस्समसुसमं दुस्समम दिदुस्समय च तेसु पढमम्मि । -भरत क्षेत्र के आर्य खण्डमे ये कालके विभाग है । यहाँ पृथक् पृथक, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप दोनो ही कालोकी पर्याय होती है ॥३१३॥ अवसर्पिणी काल में मनुष्य एव तियचोकी आयु, शरीरकी ऊँचाई और विभूति इत्यादिक सब हो घटते तथा उत्सर्पिणी काल में बढते रहते है ॥१४॥ दोनोको मिलाने पर एक कल्प काल होता है । अवसर्पिणी और उत्सपिणी में से प्रत्येकके छह भेद है- सुषमासुषमा, सुषमा. सुषमा-दुष्षमा, दुषमसुषमा, दुष्षमा और अतिदुष्षमा।
ति प४/२६३४-२६३६.२६.८ पज्जत्ताणिवत्तियपज्जत्ता लद्धियायपज्जत्ता । सत्तरिजुत्तमदजाखडे पुणिदरलद्धि णरा ॥३६३४३ पणपण अज्जारबडे भरहेरावदम्मि मिच्छगुण ट्ठाणं । अवरे वरम्मि चोहसरत
आइ दीसति ॥२:३५॥ पच विदेहे सठ्ठिसमण्णिदसद अज्जबडए अवरे। छग्गुण ठाणे तत्तो चोद्दसपेर त दीसं ति ॥२६६. विज्जाहरसेढीए तिगुणट्ठाणाणि सव्वकाल म्मि । पणगुण ठाणा दीसइ छ डिदवि
उजाण चोद्दसट्ठाण ॥२६॥ ति. प५/३००-३०२ पण पण अज्जखडे भरहेगवदखिदिम्मि मिनछत्त ।
अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइ दीसंति ॥३०॥ पचविदेहेसटिण्णिदस अज्जवरवंडा तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सर्यपहगिरीदो ॥३०॥ सासण मिस्स विहीणा तिगुण टाणाणि थोवकालम्मि । अवरेवरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसति ॥३०२||-१ मनुष्यकी अपेक्षा पर्याप्त निवृत्य पर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तके भेदसे मनुष्य तीन प्रकार के होते है । एक सौ सत्तर आर्य खण्डों में पर्याप्त, निवृत्यपर्याप्त और लध्यपर्याप्त तीनो प्रकारके ही मनुष्य होते है ॥२६३४॥ भरत व ऐरावत क्षेत्र के भीतर पाँच-पाँच आर्य वण्डो में जघन्य रूपसे मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं । ॥२६३५॥ पाँच विदेह क्षेत्रोके भीतर एकसौ साठ आर्य खण्डों में जघन्य रूपसे छ गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे चौदह गुणस्थान तक पाये जाते है ॥२६३६॥ विद्याधर श्रेणियोमें सदा तीन गुणस्थान (मिथ्यात्व, अमयत और देशसयत ) और उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान हाते है। विद्याओको छोड देने पर वहाँ चौदह भी गुणस्थान होते हैं ॥२६३८॥ २. तिर्यन्चों की अपेक्षा-भरत और ऐरावत क्षेत्रके भीतर पाँच पाँच आर्य खोमें जघन्य रूपसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूपसे कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते है ॥३००॥ पाँच विदेहोके भीतर एक सौ साठ आर्य खण्डोंमें, विद्याधर श्रेणियों में और स्वयप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें सासादन एवं मिश्र गुणस्थानको छोडकर तीन गुणस्थान जघन्य रूपसे स्तोक कालके लिए होते है । उत्कृष्ट रूपसे पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं ॥३०१-३०२॥
* आर्यखण्डमे सुषमा दुषमा आदिकाल - दे. काल ४।
* आर्यखण्डमे नगर पर्वत व नगरियाँ -दे मनुष्य ४। आर्यनन्दि-पञ्चस्तूप संघकी पट्टावलीके अनुसार (दे इतिहास७/७) चन्द्रसेनके शिष्य तथा वीरसेन (धवलाकार) के गुरु थे । तदनुसार इनका समय-ई० ७६७-७१८ आता है (आ. अनु.'प्र.८) AN Up , H.L Jain), (ह पु/पं. पन्नालाल )। आर्यमङ क्ष-दिगम्बर आम्नाय में आपका स्थान आ० पुष्पदन्त तथा भूतबली के समकक्ष है । आ० गुणधरसे आगत पेज्ज दोसपाहुड के ज्ञानको आचार्य परम्परा द्वारा प्राप्त करके आपने तथा नागहस्तिने यतिवृषभाचार्य को दिया था। समय-वी.नि.६००-६५० (ई ७३१२३ ) । विशेष दे कोश १ । परिशिष्ट ३/३)। आर्यवती-एक विद्याधर विद्या-दे. विद्या आयिका-१. आयिका योग्य लिंगदे. लिंग/१
२. आयिकाको महावत कहना उपचार है--दे. वेद/७
३. आर्यिकाको करने योग्य कार्य सामान्यमू आ./१८८-१८६ - अण्णोणाणुकूलाओ अण्णोण्ण हिरक्वणाभिजुताओ । गयरोसवेरमाया सलज्जमज्जाद किरियाओ॥१८८॥ अज्झयणे परियठे सवणे कणेतहाणुपेहाए । तव विणयसंजमेसु य अविहिदुपओगजुत्ताओ ॥१८॥ अविकारवत्थवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाआ। धम्मकुलकितिदिक्खापडिरूपविसुद्धचरियाओ ॥१०॥ आर्यिका परस्परमें अनुकूल रहती हैं, ईर्ष्या भाव नहीं करती, आपसमें
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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