Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 292
________________ आलोचना २७७ २. आलोचनाके अतिचार व लक्षण ३. आलोचनाके भेदोंके लक्षण भ आ /मू ५३४-५३५ ओधेगालोचेदि हु अपरिमिदवराधसम्बघादी वा। अज्जोपाए इत्थ सामण्णमहं खु तुच्छेति ॥५३४॥ पठव ज्जादो सव्य कमेण ज जत्थ जेण भावेण । पडिसेविद तहा त आलोचिंतो पद विभागी ॥५३॥ -जिसने अपरिमित अपराध किये है अथवा जिसके रत्नत्रयका-सर्व व्रतोका नाश हुआ है, वह मुनि सामान्य रोतिसे अपराबका निवेदन करता है। आजसे मै पुन मुनिहोने को इच्छा करता हूँ. मैं तुच्छ हूँ अर्थात मै रत्रत्रयसे आप लोगोंसे छोटा हूँ ऐसा कहना सामान्य आलोचना है।५३॥ तीन काल में, जिस देशमे, जिस परिणाम से जो दोष हो गया है उस दोषकी मै आलोचना करता हूँ। ऐसा कहकर जो दोष क्रमसे -आचार्यके आगे क्षपक कहता है उसको वह पदविभागी आलोचना है ॥५३६॥ नि सा /मू.११०-११२ कम्ममहोरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो। साहीणो समभावो आलुच्छणमिदि समुद्दिहूँ ॥११० कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमल गुणणिलयं मज्झत्थ भावणाए वियडीकरणं त्ति। विष्णेयं ॥११॥ मदमाणमायालोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहिदं भवाणं लोयालोयप्पद रसीहिं ११२॥ -कर्म रूपी वृक्षका मूल छेदने में समर्थ ऐसा जो समभाव रूप स्वाधीन निज परिणाम उसे आलंच्छन कहा है ॥११०॥ जो मध्यस्थ भावनामें कर्मसे भिन्न आत्माको-कि जो विमल गुणोका निवास है उसे भाता है उस जीवको अविकृति करण जानना ॥१११॥ मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भावशुद्धि है । ऐसा भव्योंको लोकके द्रष्टाओने कहा २. आलोचनाके अतिचार व लक्षण १. आलोचनाके १० अतिचार भ.आ./भू ५६२ आकपिय अणुमाणिय जं दिह्र बादर च सुहमं च । छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी। -आलोचनाके दश दोष है-आक पित, अनुमानित. यदृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवी। (मू आ.१०३०). (स सि ६/२२/४४०/४), (चा. सा. १३८/२) २. आलोचनाके अतिचारोके लक्षण भ आ./मू ५६३-६०३ भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण । अणकंपेऊण गणि करेइ आलोयणं कोई ॥५६३॥ गणह य मज्झ थाम अगाण दुव्बलदा अणारोग। णेव समत्थोमि अह तव विकट्ठ पि का'जे ॥५७०॥ आलोचेमि य सव्वं जइ मे पच्छा अणुग्गह कुणह। तुझ सिरीए इच्छ सोधी जह णिच्छरेज्जामि ॥५७१॥ अणुमाणेदुण गुरु' एवं आलोचण तदो पच्छा। कुणइ ससक्लो सो से विदियो आलोयणा दोसो॥५७२॥ जो होदि अण्ण दिह्रत आलोचेदि गुरुसयासम्मि । अहिट्ठ गृह तो माथिल्लो हो दि णायवो ॥५७४। दिल वा अदि बा जदि ण कहेड परमेण विणएण । आयरियपायमूले तदिओ आलोयणा दोसो ॥४७॥ बादरमालोचतो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो। मुहम पच्छादेतो जिणवयणपरंमुहो होइ॥५७७॥ इह जो दोस लहुग समालोचेदि गृहदे चूलं । भयमयमायाहिदओ जिणपरणपर मुहो होदि ॥५८१॥ जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सइ तदिए चउस्थए पंचमे च वदे ॥५८४॥ को तस्स दिज्जइ तवो केण उवाएण वा द्रवदि मुद्धो। झ्य पच्छण्णं पुच्छदि पायच्छित्तं करिस्स दि ॥१८॥ पच्छण्णं पुच्छिय साधु जो कुण इ अप्पणो सुद्धि । तो सो जणेहि वृत्तो छठो आलोयणा दोसो ॥१८६॥ पक्षियचडमासिय संवच्छरिएसु सोधिकालेसु । बहु जण सद्दाउलए कहेदि दोसो जहिच्छाए॥५१०॥ इय अव्वत्तं जइ सावेतो दोसो कहेइ सगुरुणं । आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुसयासे ॥५६११ तेर्सि असहह तो आइरियाण पुणोवि अण्णाणं । जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो हू अट्ठमओ ॥५६६॥ आलोचिदं असेसं सब एदं मएत्ति जाणादि । बालस्सालोचेतो णवमो आलोनणाए दोसो ॥५६॥ पासत्थो पासस्थस्स अणुगदो दुक्कड़ परिकहेह। एसो वि मज्झरिसो सव्वविदोस सचइयो ॥६०६॥ जाणादि मज्झ एसो सुहसीलत्त च सव्वदोसे या तो एस मेण दाहिदि पायच्छित्त महल्लित्ति ॥६०२॥ आलोचिद असेस सम्ब एदं मएत्ति जाणादि । सोपवयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो ६०॥ = १. आकपित-स्वत भिक्षालब्धिसे युक्त होने से आचार्यको प्रासुक और उद्गमादि दोषोसे रहित आहार-पानीके द्वारा वैयावृत्य करना, पिछी, कमण्डलु बगैरह उपकरण देना, कृतिकर्म वन्दना करना इत्यादि प्रकारसे गुरुके मनमें दया उत्पन्न करके दोष कहता है सो आकपित दोषसे दूषित है ।। ६३॥ २ अनुमानित-हे प्रभो । आप मेरा सामर्थ्य क्तिना है यह तो जानते ही है, मेरी उदराग्नि अतिशय दुर्वल है, मेरे अंगके अवयव कृश है, इसलिए मै उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ है, मेरा शरीर हमेशा रोगी रहता है। यदि मेरे ऊपर आप अनुग्रह करेंगे, अर्थात् मेरेको आप यदि थोडा सा प्रायश्चित्त देंगे तो मै अपने सम्पूर्ण अतिचारोंका कथन करूगा और आपकी कृपासे शुद्धि युक्त होकर मै अपराघोसे मुक्त होऊगा ॥५७०-५७१। इस प्रकार गुरु मेरेको थोडा सा प्रायश्चित देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे, ऐसा अनुम न करके माया भावसे जो मुनि पश्चात आलोचना करता है,वह अनुमानित नामक आलोचनाका दूसरा दोष है। ३.यदृष्ट-जो अपराध अन्य जनोंने देखे है, उतने ही गुरुके पास जाकर कोई मुनि कहता है और अन्यसे न देखे गये अपराधोंको छिपाता है, वह मायावी है ऐसा समझना चाहिए। दूसरोंके द्वारा देखे गये हों अथवा न देखे गये हों सम्पूर्ण अपराधोंका कथन गुरुके पास जाकर अतिशय विनयसे कहना चाहिए, परन्तु जो मुनि ऐसा नहीं करता है वह आलोचनाके तीसरे दोषसे लिप्त होता है, ऐसा समझना चाहिए ॥५७४-५७५॥ ४. बादर-जिन-जिन बतोंमें अतिचार लगे होंगे उनउन व्रतो में स्थूल अतिचारोकी तो आलोचना करके सूक्ष्म अतिचारों को छिपाने वाला मुनि जिनेन्द्र भगवान्के वचनोंसे पराड मुख हुआ है ऐसा समझना चाहिए ॥५७०॥ ५ सूक्ष्म-जो छोटे-छोटे दोष कहकर बडे दोष छिपाता है, वह मुनि भय, मद और कपट इन दोषोंसे भरा हुआ जिनवचनसे पराड्मुख होता है। बडे दो यदि मैं कहूँगा तो आचार्य मुझे महा प्रायश्चित्त देंगे, अथवा मेरा त्याग कर देगे, ऐसे भयसे कोई बडे दोष नहीं कहता है । मैं निरतिचार चारित्र हूं ऐसा समझ कर स्थूल दोषोंको कोई मुनि कहता नहीं, कोई मुनि स्वभावसे ही कपटी रहता है अतः वह भी बडे दोष कहता नहीं. वास्तव में ये मुनि जिनवचनसे पराडमुख है। १६.प्रच्छन्नयदि किसी मुनिको मुलगुणों में अर्थात पाँच महावतो में और उत्तर गुणोमें तपश्चरणमें अनशनादि बारह तपोंमें अतिचार लगेगा तो उसको कौन-सा तप दिया जाता है, अथवा किस उणयसे उसकी शुद्धि होती है ऐसा प्रच्छन्न रूपसे पूछता है, अर्थात मैने ऐसा-ऐसा अपराध किया है उसका क्या प्रायश्चित्त है। ऐसा न पूछकर प्रच्छन्न पूछता है, प्रच्छन्न प्रछकर तदनन्तर मै उस प्रायश्चित्तका आचरण करूंगा, ऐसा हेतु उसके मन में रहता है। ऐसा गुप्त रीतिसे पूछ कर जो साधु अपनी शुद्धि कर लेता है वह आलोचनाका छठा दोष है ॥५८४-५८६॥ ७ शब्दाकुलित अथवा बहुजन-पाक्षिक दोषों की आलोचना, चातुर्मासिक दोषो की आलोचना, और वाषिक दोषों की आलोचना सम यति समुदाय मिलकर जम करते है तब अपने दोष स्वेच्छासे कहना यह बहुजन नामका दोष है। यदि अस्पष्ट रीतिसे गुरुको सुनाता हुआ अपने दोष मुनि कहेगा तो गुरुके चरण सान्निध्य में उसने सातवाँ शब्दाकुलित दोष किया है। ऐसा समझना ॥५80४६१॥ ८ बहुजन पृच्छा--परन्तु उनके द्वारा (आचार्य के द्वारा) दिये हुए प्रायश्चितमें अश्रद्धान करके यह आलोचक मुनि यदि अन्यको पूछेगा अर्थात आचार्य महाराजने दिया हुआ प्रायश्चित्त योग्य है या अयोग्य है ऐसा पूछेगा तो यह आलोचनाका बहुजन पृच्छा नामक आठवाँ दोष होगा ॥५६६॥ १ अव्यक्त-और मैंने इसके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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