________________
आर्तध्यान
१. भेद व लक्षण
२. आर्तध्यानका आध्यात्मिक लक्षण चा सा. १६७/५ स्वसवेद्यमाध्यात्मिकार्तध्यानं । - (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य आर्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक आर्तध्यान कहते है। ३ आर्तध्यानके भेद ज्ञा २५/२४ अनिष्टयोगजन्याद्य तथेष्टार्थात्ययात्प्रम् । रुक्प्रकोपात्तीय स्यान्निदानातुर्यमङ्गिनाम् ॥२४॥ - पहिला आर्तध्यान तो जीवो के अनिए पदार्थोंके सयोगसे होता है। दूसरा आतध्यान इष्ट पदार्थ के वियोगसे होता है। तीसरा आर्तध्यान रोगके प्रकोपकी पीडासे होता है और चौथा आर्सध्यान निदान कहिये आगामी कालमें भोगोंकी वांछाके होनेसे होता है। इस प्रकार चार भेद आर्तध्यानके हैं । (म.पु २१/३१
३६), (चा सा १६७/४) चा सा १६७/४ तत्रातं बाह्याध्यात्मिकभेदाद द्विविकल्प । -बाह्य और अध्यात्मके भेदसे आर्तध्यान दो प्रकारका है। और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकारका होता है। द्र, स./टी ४८/२०१ इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम् । = इष्ट वियोग, अमिष्ट सयोग और रोग इन तीनो को दूर करने में तथा भोगो वा भोगोंके कारणो में बांछा
रूप चार प्रकारका आर्तध्यान होता है। (चा.सा १६७/४) आतध्यान
मनोज्ञ
अमनोज्ञ
अनुत्पत्ति
सप्रयोग सकप
अनुत्पत्ति
विप्रयोग सकल्प
का अ./मू. ४७३ दुक्खयर-विसय-जोए केम इम चदि इदि विचि-. तंतो। चेट्ठदि जो विक्वित्तो अट्ठ-ज्माणं हवे तस्स॥४७३॥ -- दुरखकारी विषयोका सयोग होने पर 'यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है उसके बात ध्यान होता है। ज्ञा. २५/२५-२८ ज्वलनजनविषास्त्रव्यालशार्दूलदै त्यै स्थलजलमिलसत्त्व दुर्जनारातिभूपैः । स्वजनधनशरीरध्वसिभिस्तर निष्टैर्भवति यदिह योगादाद्ययात्त तदेतत ॥२॥ तथा चरस्थिरैर्भावैरनेकै समुपस्थित.। अनिष्टैर्यन्मन क्लिष्ट स्यादात्तं तत्प्रकीर्तितम् ॥२६॥ श्रुतैदष्टै: स्मृतज्ञत प्रत्यासत्तिं च संसृत । योऽनिष्टार्थमन क्लेश' पूर्वमान्त तदिष्यते ॥२७॥अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम् । यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञै पूर्वमा प्रकीर्तितम् ॥२८॥ - इस जगत में अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करनेवाले अग्नि, जल, विष सर्प. शस्त्र, सिंह, देश्य तथा स्थल के जीव, जलके जीव, बिल के जीव तथा दुष्ट जन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थोंके सयोगसे जो हो सो पहिला आर्तध्यान है ।२५ तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थोंके संयोग होने पर जो मन क्लेश रूप हो उसको भी आर्तध्यान कहा है । जो सुने, देखे, स्मरण में आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थोसे मनको क्लेश होता है उसे पहिला आर्तध्यान कहते है।२७। जो समस्त प्रकारके पदार्थोंके संयोग होने पर उनके वियोग होनेका बार-बार चिन्तन हो उसे भी तत्त्वके जानने वालोंने पहिला अनिष्ट सयोगज नामा आर्तध्यान कहा है ॥२८॥
५. इष्ट वियोगज आर्तध्यानका लक्षण त.सूह/३१ विपरीत मनोज्ञस्य ॥३१॥-मनोज्ञ वस्तुके बियोग होनेपर उसकी प्राप्तिकी सतत चिन्ता करना दूसरा आर्त ध्यान है । (भ.आ./ मू १७०२) स. सि.१/३१/४४७१ मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेविप्रयोगे तत्संप्रयोगाय सकसपश्चिन्ताप्रबन्धो द्वितीयमार्तमवगन्तव्यम् । मनोज्ञ अर्थात अपने इष्ट पुत्र स्त्री और धनादिक्के वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिके लिए सकल्प अर्थात निरन्तर चिन्ता करना दूसरा आर्तध्यान जानना चाहिए। (रा वा/६/३१/१/६२८)(म पु २१/३२,३४) चा. सा.१६६/१ मनोज्ञ नाम धनधान्यहिरण्यसुवर्ण वस्तुवाहनशयनासनरकचन्दनबनितादिसुखसाधन मे स्यादिति गर्द्धनं । मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसकल्पाध्यवसानं तृतीयात। । धन, धान्य, चांदो, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चन्दन और स्त्री आदि मुखो के साधनको मनोज्ञ कहते है। ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिन्तवन करना, मनोज्ञ पदार्थ के वियोग होने पर उनके उत्पन्न होनेका बार-बार चिन्तन करना आतध्यान है। का अमू.४७४ मणहर विसय-विओगे-कह तं बावेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सोच्चिय अट्ट हवे झाण ॥४७४॥ -मनोहर विषयका वियोग होनेपर 'कैसे इसे प्राप्त करू'' इस प्रकार विचारता हुआ जो
दु खसे प्रवृत्ति करता है यह भी आर्तध्यान है। ज्ञा,२५/२६-३१ राज्यैश्वर्यकलत्रबान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगास्यचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्व सभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोक्मोहविवशैर्यरिखद्यतेऽहर्निश तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमा ध्यान कलङ्कास्पदम् ॥२६दृष्टश्चतानुभूतेस्ते। पदार्थ श्चित्तरजकै। बियोगे यम्मन खिन्न स्यादात तदद्वितीयकम्॥३०॥मनोज्ञवस्तुविभवसे मनस्तत्संगमार्थिभि.। क्लिश्यते यत्तदेतत्स्यादद्वितीयातस्य लक्षणम् ॥३१॥-- जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, सौभाग्य भोगादिके नाश होनेपर, तथा चित्तको प्रीति उत्पन्न करनेवाले सुन्दर स्त्रियों के विषयोका प्रध्यस होते हुए, सन्त्रास, पीडा, भ्रम, शोक, मोहके कारण निरन्तर खेद रूप होना सो जीवोके इष्ट वियोग जनित आतध्यान है, और यह ध्यान पापका स्थान है ॥२६॥ देखे, सुने, अनुभव क्येि, मनको र जायमान करनेवाले पूर्वोक्त पदार्थोका वियोग होनेसे जो मनको खेद हो वह भी दुसरा आर्तध्यान है॥३०॥अपने मनकी प्यारी वस्तुके विध्वस होनेपर पुनः
आध्यात्मिक
बाह्य
आध्यात्मिक
चेतन अचेतन शारीरिक मानसिक शारीरिक मानसिक कृत कृत चेतनकृत
अचेतनकृत ४. अनिष्ट योगज आर्तध्यानका लक्षण त.सू ६/३० आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहार ॥३०॥ - अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोगके लिए चिन्ता
सातत्यका होना प्रथम आर्तध्यान है। स सि १/३०/६ अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशखादि, तहबाधाकारणस्वाद 'अमनोज्ञम' इत्युच्यते। तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम न मे स्यादिति सकल्पश्चिन्ता प्रबन्ध स्मृतिसमन्वाहार प्रथममात मित्याख्यायते। -विष, कण्टक, शत्रु और शास्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधाके कारण होनेसे अमनोज्ञ कहे जाते है। उनका सयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकारका सकल्प चिन्ता प्रबन्ध अर्थात स्मृति समन्याहार यह प्रथम आत्तध्यान कहलाता है। (रा बा.६/३०/
१-२/६२८), (म पु २१/३२,३५)।। नि.सा /ता वृह अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमातध्यानम् । - अनिष्टके
संयोगसे उत्पन्न होने वाला जो आर्तध्यान । चा.सा.१६८/५ एतद्दु खसाधनसद्भावे तस्य विनाशकाइनोत्पन्न विनाशसकल्पाध्यवसानं द्वितीयात । -(शारीरिक, व मानसिक) दुखोके कारण उत्पन्न होने पर उनके विनाशकी इच्छा उत्पन्न होनेसे उनके विनाशके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आर्तध्यान है।
१८
मनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org