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आराधना सार
बसु. श्रा २९८ जं कि पि गिहारंभ बहु थोग वा सयाविधज्जेइ ।
आरम्भणियत्तमई सो अट्ठमु सावओ भणिओ ॥२६८॥ जो कुछ भी थोडा या बहुत गृह सम्बन्धी आरम्भ होता है उसे जो सदाके लिए त्याग करता है, वह आरम्भसे निवृत्त हुई है बुद्धि जिसको, ऐसा
आरम्भ त्यागी आठवाँ श्रावक कहा गया है। .सं./टी, ४५/१६५ आरम्भादिसमस्तव्यापारनिवृत्तोऽष्टम । -आरम्भादि सम्पूर्ण व्यापारके त्यागसे अष्टम प्रतिमा (होती है।)
२ आरम्भ त्याग व सचित्त त्याग प्रतिमामें अन्तर ला.सं.७/३२-३३ इत पूर्वमतीचारो विद्यते वधर्मण । सचित्तस्पर्शनत्वाद्वा स्वहस्तेनाम्भसा यथा॥३२॥इत. प्रभृति यद्रव्य सचित्त सलिलादिवत् । न स्पर्शति स्वहस्तेन बहारम्भस्य का कथा ॥३३॥ -- इस आठवी प्रतिमा स्वीकार करनेसे पहले वह सचित्त पदार्थोंका स्पर्श करता था जैसे-अपने हाथ से जल भरता था, छानता था और फिर उसे प्रामुक करता था, इस प्रकार करनेसे उसे अहिंसा ब्रतका अतिचार लगता था, परन्तु इस आठवीं प्रतिमाको धारणकर लेनेवे अनन्तर वह जलादि सचित्त द्रव्योको अपने हाथ से छूता भी नहीं है। फिर भला अधिक आरम्भ करनेकी तो बात ही क्या है। आर-चतुर्थ नरकका प्रथम पटल-दे. नरक ५/११ । आरट-१. (म.प्र /प्र ५०/प. पन्नालाल) पंजाबके एक प्रदेशका
नाम: २ भरत क्षेत्रका एक देश-दे मनुष्य ४ आरण-१. कल्पवासी देवाका एक भेद व उनका अवस्थान-दे. स्वर्ग ३/१:२. स्वर्गों का पन्द्रहवाँ कल्प--दे. स्वर्ग ५/२, ३. आरण स्वर्ग
का द्वितीय पटल व इन्द्रक विमान-दे, स्वर्ग ५/३। आरातोय-मसि १/२०/१२४/१ आरातीय पुनराचाय. ।-आरा
त्योंके द्वारा अर्थात आचार्यों के द्वारा। आराधना-भ आ./मू २ उज्जोवणमुज्जवण णिव्वाहण साहणं च णिच्छरणं । दसणणाणचरित्त तवाणमाराहण भणिया। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान,सम्यकचारित्र व सम्यक्तप इन चारोंका यथायोग्य रीतिसे उद्योतन करना, उनमें परिण ति करना, इनको दृढतापूर्वक धारण करना, उसके मन्द पड जानेपर पुन:-पुन. जागृत करना, उनका आमरण पालन करना सो (निश्चय) आराधना कहलाती है। (.सं. ५४)२२१ पर उद्धृत). (अन ध, १/१२/१०१) स सा./मू. ३०४-३०५ संसिद्धिराध सिद्ध साधिय माराधिय च एयट्ठ। अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥३०४॥ जो पुण गिरवराधो चेया णि स्सकिओ उ सो होइ । अवराहणार णिच्च वट्ट इ अह ति आणंतो ॥३०५॥ =संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित ये शब्द एकार्थ है । इसलिए जो आत्मा राधसे रहित हो वह अपराध है ॥३०४॥ और जो चेतयिता आत्मा अपराधी नहीं है, वह शका रहित है और अपनेको 'मै हूँ' ऐसा जानता हुआ आराधना कर हमेशा बर्तता है। न.च.यू. ३५६ समदा तह मज्झत्थं मुद्धो भावो य बीयरायत्त । तह
चारित्तं धम्मो सहावाराहणा भणिया ३३५६ समता तथा माध्यस्थ, शुद्ध भाव तथा वीतरागता, चारित्र तथा धर्म यह सब ही स्वभावकी आराधना कहलाते है। द्र.स./टी. ५४/२२२ में उद्धत "समत्त सण्णाणं सच्चारित्त हि सत्तबो
चेव । चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरण ।" = सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ये चारों आत्मामें निवास
करते हैं इसलिए आत्मा ही मेरे शरणभूत है। अन.ध. १/८/१०५ वृत्तिर्जातसुदृष्टयादेस्तद्गतातिशयेषु या। उद्द्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥ = जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके है, ऐसे पुरुषको उन सम्यग्दर्शनादिकमें
रहनेवाले अतिशयो अथवा उद्योतादिक विशेषो में जो वृत्ति उसी को दर्शनादिककी भक्ति कहते है। और इसी भक्तिका नाम ही आराधना है।
२. आराधनाके भेद भ.आ/मू. २,३ दसणणाणचरित्त' तबाण माराहणाभणिया ॥२॥ दुविहा पुण जिण वयणे आराहणासमासेण । सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तम्मि ॥३॥-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारको आराधना कहा गया है ॥२॥ अथवा जिनागममे संक्षेपसे आराधनाके दो भेद कहे है-एक सम्यक्त्वाराधना, दूसरा चारित्राराधना। नि सा./ता वृ ७५ दर्शनज्ञानचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधा
राधनासदानुरक्ता । -ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तपनामकी चतुर्विध आराधनामें सदा अनुरक्त। गो. जी |जी : ३६८/७४०/१२ दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थ स्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेष च वर्ण यति । -दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मस स्कार, अर्थात् यथायोग्य शरीरका समाधान, सल्लेखना, उत्तम अर्थ स्थानको प्राप्त उत्तम आराधना इनिका विशेष प्ररूपिये है। * निश्चय आराधनाके अपर नाम-दे, मोक्षमार्ग २/५
३. उत्तम, मध्यम, जघन्य आराधनाके स्वामित्व भ आ /मू १९१८-१९२१ सुक्काएँ लेस्साए उक्कस अंसयं परिणमित्ता।
जो मर दि सो है णियमा उक्कस्साराधओ होई ॥१६१८॥ खाइयदसणचरणं खओवसमिय च णामिदि मग्गो । त होइ खीणमोहो आराहिता य जो हु अरह तो ॥१९११॥ जो सेसा सुकाए दु असया जे य पम्मलेस्साए। तक्लेस्सापरिणामो दु मज्झिमाराधणा मरणे ॥१९२०॥ तेजाए लेस्साए ये असा तेसु जो परिणमित्ता। काल करेइ तस्स हु जहणियाराधणा भणदि ॥१६२१॥ = शुक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अशोसे परिणत होकर जो क्षपक मरणको प्राप्त होता है, उस महात्माको नियमसे उत्कृष्ट आराधक समझना चाहिए ।१९१८॥ क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र और क्षयोपशमिक ज्ञान इनकी आराधना करके आत्मा क्षीणमोही बनता है और तदनन्तर अरहन्त होता है ॥१६१६ (क्षेपक गाथा) शुक्ल लेश्याके मध्यम अंश, और जघन्य अशोसे तथा पद्म लेश्याके अशोसे जो आराधक मरणको प्राप्त करते हैं, वे मध्यम आराध क माने जाते है ।१९२०॥ पीत लेश्याके जो अंश हैं, उनसे परिणत होकर जो मरणवश होते हैं, वे जघन्य आराधक माने जाते है।
४. सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्टादि आराधनाओंका स्वामित्व भ. आ /मू. ५१ उक्कम्साकेवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिट्ठीण । अविरतसम्मादिठुिस्स स किलिस्स हू जहण्णा ॥५५॥ = उत्कृष्ट सम्यक्त्वकी आराधना अयोग केवलीको होती है। मध्यम सम्यग्दर्शनकी आराधना बाकीके सम्यग्दृष्टि जीवो को होती है। परन्तु परिषहोसे जिसका मन उद्विग्न हुआ है ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टिको जघन्य
आराधना होती है। (भभा/वि ५१/१७५) आराधना-भगवती आराधनाका अमितगति (वि.१०५०-१०७३) - कृत सस्कृत रूपान्तर । (ती २/३६४) आराधना कथा कोश-दे. कथाकोश। आराधना पंजिका भगवतो आराधनाकी टीका है-दे.भ.आ.। आराधना संग्रह-आ. पद्मनन्दि ८ (वि.१३६२ ई.-१३०५) कृत। आराधना सार-१.आ. देवसेन (वि.६६०-१०१२) कृत ११५ पद्मबद्ध चतुर्विध आराधना विषयक संस्कृत ग्रन्थ । २. आ. रविचन्द्र
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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