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आयु
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४. आठ अपकर्ष काल निर्देश
त्रिभाग (कथचित् त्रिभागका त्रिभाग और कथ चित् त्रिभाग-त्रिभागका त्रिभाग) शेष रहने पर पर-भव सम्बन्धी आयुर्मको बाँधते है।" इस व्यारव्या-प्रज्ञप्ति सूत्रके साथ कैसे विरोध न होगा ? उत्तर- नहीं, क्यो कि, इस सूत्रसे उक्त सूत्र भिन्न आचार्य के द्वारा बनाया हुआ होनेके कारण पृथक् है । अत उससे इसका मिलान नही हो सकता। ५. अन्तिम समयमें केवल अन्तर्महर्त प्रमाण ही आयु
बंधती है
गो क /जौ प्र ५१८/६१३/२० असंक्षेपाद्धाभुज्यमानायुषोन्त्यावस्येस ख्येयभाग तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्महतं मात्रसमयप्रवद्वान् परभवायुनियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमा ज्ञातव्य। -भुज्यमान आयुके काल में अन्तिम आवलोका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त कालमात्र समय प्रबद्धोंके द्वारा परभवकी आयुकौ माँधकर पूरी कर है ऐसा नियम है अर्थात अन्तिम समय केवल अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थितिवाली परभव सम्बन्धी आयुको बाँध कर निष्ठापन
गो.क./जी.प्र. १५८/१२/१ देवनारकाणा स्वस्थितौ षण्मासेषु भोगभूमि
जाना नवमासेषु च अवशिष्टेषु त्रिभागेन आयुर्वन्धसंभवात् । - देव नारकी तिनिकै तो छह महीना आयुका अवशेष रहै अर भोगभूमियाँ
कै नव महीना आयुका अवशेष रहै तब त्रिभाग करि आयु बंधै है। गो.जी |जो प्र. ५१८/६१४/२४ निरुपक्रमायुष्का अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषिषड्मासावशेषे परभवायुबन्धप्रायोग्या भवन्ति । अत्राप्यष्टापकर्षा स्यु । समयाधिपूर्वकोटिप्रभृतिविपलितोपम पर्यंत सख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्याऽपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्य । -निरुपक्रमायुष्क अर्थात् अनपवर्तित आयुष्क देवनारकी अपनी भुज्यमान आयु में (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहने पर परभव सम्बन्धी आयुके बन्ध योग्य होते है। यहाँ भी (कर्म भूमिजो वत्) आठ अपकर्ष होते है। समयाधिक पूर्व कोटिसे लेकर तीन पक्ष्यकी आयु तक सख्यात व असरख्यात बर्षायुष्क जो भोगभूमिज तियंच या मनुष्य है वे भी निरुपक्रमायुष्क ही है, ऐसा जानना चाहिए । (गो.क./जी प्र ६३६-६४३/८३६-८३७)
३. आठ अपकर्ष कालोंमें न बँधे तो अन्त समयमें बंधती है गो जी /जी प्र. ५१८/६१३/२० नाष्टमापकर्षेऽन्यायुबन्धनियम , नाप्य
न्योऽपकर्षस्तहि आयुर्वन्ध कथं । असंखेयादा भुज्यमानायुषोऽन्त्याबज्यसंख्येयभाग तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्महृतमात्रसमय प्रश्रद्धान् परभवायुनियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्य । प्रश्नआठ अपकर्षों में भी आयु न बधै है, तो आयुका बन्ध कैसे होई. उत्तर-सौ कहे है-'असखे याद्धा' जो आवलीका असख्यातवाँ भाग भुज्यमान आयुका अवशेष रहै ताकै पहिले (पर-भविक आयुका बन्ध करें है)। गो. क./जी. प्र. १५८/१९२/२ यद्यष्टापकर्षेषु क्वचिन्नायुर्बद्धं तदावल्य
संख्ययभागमात्राया समयोनमुहूर्तमात्राया वा असंक्षेपाद्धाया प्रागेवोत्तरभवायुरन्तर्मुहूर्तमानसमयप्रबद्धात् बद्ध्वा निष्ठापयति। एतौ द्वावपि पक्षी प्रवाह्योपदेशत्वात अङ्गीकृती। यदि क्दाचिद क्सिी ही अपकर्ष में आयु न बधै तो कौइ आचार्य के मतसे तौ आवलीका असख्यातवा भागप्रमाण और कोई आचार्य के मतसे एक समय घाटि मुहूर्तप्रमाण आयुका अवशेष रहै तीहिके पहले उत्तर भवकी आयुर्मको...माँधे है। ए दोऊ पक्ष आचार्यनिका परम्परा उपदेश करि अंगीकार किये है। ४. आयुके त्रिभाग शेष रहनेपर ही अपकर्ष काल आने
सम्बन्धी दृष्टिभेद ध. १०/४,२,४,३६/२३७/१० गोदम । जीवा दुविहा पण्णत्ता सखेज्जवस्साउआ चेव असखेज्जवस्साउआचेव। तरथ जे ते असखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसे सियसि याउगसि परभविय आयुग णिवधता बंधति। तस्थ जे ते सखेज्जवस्साउआ ते विहा पण्णत्ता सोववाम्माउआ णिरुवसम्माउआ ते त्रिभागावसेससियं सि याउग सि परभविय आयुग कम्म णिबधंता बधति । तत्थ जे ते सोबक्कमाउआ ते सिआ तिभागतिभागावसेसय ति यायुगंसि परभवियं आउग कम्मं णिबंधंता मंधति । एदेण विहायपण्णत्तिमुत्तेण सह कध ण विरोहो। ण एदमहादो तस्स पुधसूदस्स आइरियभेएण भेदभावण्णस्स एयत्ताभावादो। -प्रश्न- हे गौतम । जीव दो प्रकारके कहे गये है-संख्यात वर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुष्क। उनमें जो असंख्यात वर्षायुष्क हैं वे आयुके छह मास शेष रहने पर पर भविक आयुको बाँधते हुए बाँधते है। और जो संख्यात वर्षायुष्क जीव है वे दो प्रकारके कहे गये हैं।-सोपक्रमायुष्क और निरुपक्रमायुष्क। उनमें जो निरुपकमायुष्क है वे आयुमें विभाग शेष रहने पर पर-भविक आयुकर्म को भाँधते हुए आँधते है। और जो सोपक्रमायुष्क जौवहै वे कथंचित
६. आठ अपकर्ष कालोंमें बँधी आयका समीकरण गो क /जो प्र. ६४३/८३७/१६ अपकर्षेषु मध्येप्रथमवारं वर्जित्वा द्वितीयादिवारे बध्यमानस्यायुषो वृद्धिर्हानिरव स्थितिर्वा भवति । यदि वृद्धिस्तदा द्वितीयादिवारे अद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्यं। अथ हानिस्तदा पूर्वबद्धाधिकस्थितेरेव प्राधान्य। -आठ अपकर्षनि विर्षे पहली बार बिना द्वितीयादिक बारविर्षे पूर्वे जो आयु बाँध्या था, तिसको स्थिति की वृद्धि वा हानि वा अवस्थिति हो है। तहाँ जो वृद्धि होय तो पीछे जो अधिक स्थिति बन्धी तिसकी प्रेधानता जाननी। पहुरि जो हानि होय तौ पहिली अधिक स्थिति बंधी थी ताकी धानता जाननी । (अर्थात आठ अपकर्षांमे बंधी हीनाधिक सर्व स्थितियों मेंसे जो अधिक है वह ही उस आयु की बंधी हुई स्थिति समझनी चाहिए)। ७. अन्य अपकर्षोंमें आयु बन्धके प्रमाणमें चार वृद्धि व
हानि सम्भव है ध १६/पृ ३७०/११ चदुग्णमाउआणमवटिद-भुजगारसंकमाण कालो जहण्ण मुक्कस्सेण एगसमओ। पुचबंधादो समउत्तर पबद्धस्स जहिदि पडुच्च जट्ठिदिसंकयो त्ति एत्य घेत्तव । देव-णिरयाउ-आणं अप्पदरसंकमस्स जट्ठ० अतोमुहूत्त, उक्क, तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिरिक्वमणुसाउआण जह, अंतोमूहुत्तं, उक्क, तिण्णिपलिदोवमाणि सादिरेयाणि । -चार आयु कर्मों के अवस्थित और भुजाकार सक्रमोंका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय मात्र है। पूर्व बन्धसे एक समय अधिक बाँधे गये आयु कर्मका ज. स्थितिको अपेक्षा यहाँ ज स्थिति सक्रम ग्रहण करना चाहिए। देवायु और नरकाय के अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्महुर्त और उत्कर्षसे साधिक तेतीस सागरोपम मात्र है। तियंचायु और मनुष्याय के अल्पतर संक्रमका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक तीनतीन पत्योपम मात्र है। गो क /मू ४४१/१६३ सकमणाकरणूणा गवरणा होति सव्व आऊणं ।
। च्यारि आयु तिनकै सक्रमणकरण बिना नबकरण पाइए है। ८ उसी अपकर्ष कालके सर्व समयोंमें उत्तरोत्तर हीन
बन्ध होता है म.ब २/६२७१/१४५/१२ आयुगस्स अस्थि अव्यत्तबंधगा अप्पतरबंधगाय । म.ब २/६३५६/१८२/६ आयु अत्यि अवत्तव्यबधगा य असंखेज्जभागहाणिबधगा य ।-१, आयु कर्मका अवक्तव्य बन्ध करनेवाले जीव हैं,
और अल्पतर बन्ध करनेवाले जीव है। विशेषार्थ-आय कर्मका प्रथम समय में जो स्थितिबन्ध होता है उससे द्वितीयादि समयोंमें उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है ऐसा नियम है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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