Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 277
________________ आयु २६२ ६ आयुबन्ध सम्बन्धी नियम किया गया है, इस पदसै एक समय अधिक पूर्व कोटि आदि उपरिम ३. भोगभूमि मनुष्य व तिर्यचगतिके जीवोंमे आयु विकल्पोंसे सयुक्त तियंचो व मनुष्योंका ग्रहण नहीं करना ___ गो.क /जी प्र. ६३६-६४०/८३६/८ भोगभूमिजा षण्मासेऽवशिष्टे देवं । चाहिए। = बहुरि भोग भूमिया छह मास अवशेष रहे देवायु ही को बाँधे । ३.बवायुष्कवधातायुवक देवोंकीआय सम्बन्धीस्पष्टीकरण ५. आयुके साथ वही गति प्रकृति बँधती है घ./४/१६,६७/३८५ पर विशेषार्थ “यहाँ पर जो बद्धायुघातकी अपेक्षा नोट-आयुके साथ गतिका जो बन्ध होता है वह नियमसे आयुके सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देवोके दो प्रकारके कालकी प्ररूपणाकी है, समान ही होता है । क्योकि गति नामकर्म व आयुकर्मकी व्युच्छित्ति उसका अभिप्राय यह है कि, किसी मनुष्यने अपनी सयम अवस्थामें एक साथ ही होती है-दे. बन्ध व्युच्छित्ति चार्ट । देवायुमन्ध किया। पीछे उसने संक्लेश परिणामोके निमित्तसे संयमकी ६. एक भवमें एक ही आयका बन्ध सम्भव है विराधना कर दी और इसलिए अपवर्तन घातके द्वारा आयुका पात भी कर दिया। सयमकी विराधना कर देने पर भी यदि वह सम्यग्दृष्टि है, गो क /मू.६४२/८३७ एक्के एक्कं आऊ एकभवे बंधमेदि जोग्गपदे । तो मर कर जिस कल्पमें उत्पन्न होगा, वहाँको साधाणत निश्चित अडवार वा तत्थवि तिभागसेसे व सव्वस्थ ॥६४२॥-एक जीव एक आयुसे अन्त मुहूर्त कम अर्ध सागरोपम प्रमाण अधिक आयुका समय विषै एक ही आयु को बाँधै सो भी योग्यकाल विषै आठ बार धारक होगा। कल्पना कीजिए किसी मनुष्यने सयम अवस्थामें ही बाँधै, तहाँ सर्व तीसरा तीसरा भाग अब शेष रहे माँधै है। अच्युत कल्पमें संभव बाईस सागर प्रमाण आयुबंध किया । ७. बद्धायुष्कोमें सम्यक्त्व व गुणस्थान प्राप्ति सम्बन्धी पीछे संयमको विराधना और बॉधी हुई आयुकी अपवर्तना कर प. प्रा १/२०१ चत्तारि वि छेत्ताई आउयबंधेण होइ सम्मत्तं । असंयत सम्यग्दृष्टि हो गया। पीछे मर कर यदि सहस्रार कल्पमें अणुवय-महव्वाइंण लहइ देवउ मोतं ।२०१-जीव चारों ही क्षेत्रों उत्पन्न हुआ, तो वहाँकी साधारण आयु जो अठारह सागरकी है, उससे की (गतियोकी) आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता घातायुष्क सम्यग्दृष्टि देवकी आयु अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर अधिक है। किन्तु अणुवत और महावत देवायुको छोडकर शेष आयुका बन्ध होगी। यदि वही पुरुष संयमकी विराधना केसाथ ही सम्यक्त्वको होने पर प्राप्त नहीं कर सकता (ध.११,१,८५/१६६/३२६),(गो.क./मूघिराधना कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है, और पीछे मरण कर उसी ३३४), (गो जी./म् /६५३/११०१) सहस्रार करूपमें उत्पन्न होता है, तो उसकी वहाँकी निश्चित अठारह की वहाँकी निश्चित अठारह ध.१/१,१.२६/२०८/१ बद्धायुरसंयतसम्यग्दृष्टिसासादनानामिव न सम्यसागरकी आयुसे पस्योपमके असंख्यात भागसे अधिक होगी। ऐसे ग्मिथ्यादृष्टिसंयतासयतानां च तत्रापर्याप्तकाले संभव' समस्ति तत्र जीवको घातायुष्क मिथ्यादृष्टि कहते है। तेन तयोविरोधात ।-जिस प्रकार बद्धायुष्क असं यतसम्यग्दृष्टि और ४. चारों गतियों में परस्पर आयुबन्ध सम्बन्धी सासादन गुण स्थानवालोंका तिथंच गतिके अपर्याप्त कालमें सम्भव है, उस प्रकार सम्यग् मिथ्यादृष्टि और सयतासंयतोंका तिर्यंचगतिके १. नरक व देवगतिके जीवोंमे अपर्याप्त कालमें सम्भव नही है, क्योंकि, तियंचतिमें अपर्याप्तकाल के घ.१२/४,२,७,३२/२७/५ अपज्जत्ततिरिक्खाउ देव-णेरइया ण बंधति। साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासयतोंका विरोध है। - अपर्याप्त तिर्यच सम्बन्धी आयुको देव व नारकी जीव नहीं ध.१२/१,२,७,१६/२०/१३ उक्कस्साणुभागेण सह आउयबधे संजदासंजदा. माँघते। दिहेछिमगुणठाणाणं गमणाभावादो। - उत्कृष्ट अनुभागके साथ गो.क./जी.प्र.४३९-४४०/८३६/६ परभवायु: स्वभुज्यमानायुष्युत्कृष्टेन आयुको बाँधनेपर संयतासंयतादि अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं षण्मासेऽवशिष्टे देवनारका नारं तैरश्च बघ्नन्ति तद्वन्धे योग्या' होता। स्युरित्यर्थः ।...सप्तमपृथ्वीजाश्च तैरश्चमेव । --भुज्यमान आयुके उत्कृष्ट गो जी/जी प्र७३१/१३२५/१४ बद्धदेवायुकादन्यस्य उपशमश्रेण्यमरणाछह मास अवशेषर हैं देव नारकी है ते मनुष्यायु वा तिर्यचायुको आँधै __ भावात् । शेषत्रिकबद्धायुष्कानां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात् । है अर्थात तिस काल में बन्ध योग्य हो है। .. सप्तम पृथ्वीके नारकी -देवायुका जाकै बन्ध भया होइ तिहिं बिना अन्य जीवका उपशम तिर्यचायु ही को बाँधे है। श्रेणी विर्षे मरण नाहीं । अन्य आयु जाकै बंधा होइ ताकै देशसंयम सकलसंयम भी न होइ। २. कर्म भूमिज तिर्यंच मनुष्य गतिके जीवोमे नोट-सम्यग्दृष्टि मनुष्य व तियं च केवल देवायु व मनुष्यायुका हो। गो क./जी.प्र.३३४/४८६/१३नरकतिर्यम्देवायुस्तु भुज्यमानबद्यमानोभयबन्ध करते हैं-दे. बन्धव्युच्छित्ति चार्ट। प्रकारेण सत्वेसु सत्सु यथासंख्यंदेशवता' सकलवताःक्षपका नैव स्युः। रा.बा.२/४६/८/१५५/देवेषुत्पद्य च्युत मनुष्येषु तिर्यश्च चोत्पद्य अपर्याप्त- गो.क./बी प्र ३४६/४६८/११ असंयते नारकमनुष्यायुषी व्युच्छित्ति', कालमनुभूय पुनर्दवायुमंध्या उत्पद्यते लब्धमन्तरम् ।-देवोंमें उत्पन्न तत्सत्त्वेऽणुवताघटनात् । १. बद्भयमान और भुज्यमान दोउ प्रकार होकर वहाँसे च्युत हो मनुष्य वा तियचोंमें उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त काल अपेक्षा करि नरकायुका सत्त्व होते देशव्रत न होई,तिर्सचायुका सत्त्व मात्रका अनुभव कर पुन. देवायुको बाँधकर वहाँ ही उत्पन्न हो गया। होते सकलबत न होई, नरक तिर्यच व देवायुका सत्त्व होते क्षपक इस प्रकार वेव गतिका अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र ही प्राप्त होता है। श्रेणी न होई । २.असंयत सम्यग्दृष्टियोंके नारक व मनुष्यायुकी अर्थात अपर्याप्त मनुष्य वा तिर्यच भी देवायु बन्ध कर सकते हैं। व्युच्छित्ति हो जाती है क्योंकि उनके सत्त्वमें अणुव्रत नहीं होते। गो.क./जी.प्र.४३९-४४०/५३६/७ नरतिर्यचत्रिभागेऽवशिष्टे चत्वारि। .. ८.बद्धधमान वेवायुष्कका सम्यक्त्व विराधित नहीं होता एक विकलेन्द्रिया नारं तेरचं च। तेजो वायव'.. तैरश्चमेव महरि गो क./भाषा ३६६१५२६/३बहुरि बद्धयमान देवायु अर भुज्यमान मनुष्यायु मनुष्य तिर्यच भुज्यमान आयुका तीसरा भाग अवशष रह च्यास्यों युक्त असंयतादि च्यारि गुणस्थानवर्ती जीव सम्यक्त्व ते भ्रष्ट होह आयुकौबाँधे है...एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय नारक और तिथंच आयुको मिथ्यादृष्टि विर्षे होते नाही। बाँधै है। तेजकायिक वा वातकायिक तिथंचायु ही बान्धे हैं। गो, क./जी.प्र. ७४५/१०/१ उद्वेलितानुद्वेलितमनुष्यद्विक्तेजोवायूना ९.बंध उदय सत्व सम्बन्धी संयमी भंग मनुष्यायुरबन्धादत्रानुत्पत्ते । - मनुष्य-द्विककी उद्वेलना भये वान गो. कम.६४१४८३६ सगसगगदीणमाउँ उदेदि बंधे उदिण्णगेण सम। भमै तेज वातकायिकनिके मनुष्यायुके बन्धका अभाव मनुष्यनिविर्षे दो सत्ता हु अबंधे एक्कं उदयागदं सत्तं ॥६४॥ -नारकादिकनिके उपजना नाही। अपनी-अपनी गति सम्बन्धी ही एक आय उदय हो हैं। बहुरि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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