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आयु
हरने में लगे रहना, नित्य मैथुन सेवन करना, काम भोगोंकी अभिलाषा सदा ही जाज्वल्यमान रखना, जिन भगवान्की आसादना करना, साधु धमका उच्छेद करना, बिल्ली, कुत्ते, मुर्गे इत्यादि पापी प्राणियोको पालना, शोलवत रहित बने रहना और आरम्भ परिग्रहको अति बढाना, कृष्ण लेश्या रहना, चारो रौद्रध्यान में लगे रहना, इतने अशुभ कर्म नरकायुके आसत्र हेतु है । अर्थात् जिन कर्मोको क्रूरकर्म कहते है और जिन्हे उपसन कहते है, ने सभी नरकायुके कारण है । (रा. वा. ६/१५/३/५२५/३१) ( म पु १०/२२-२७) गो.क./मू. ०४/१०२ मियो हू महार भो पिस्सीलो तिलोत रिया निबंध पाईपरिणामी जी जीन मियातमरूप मिथ्यादृष्टि होइ, बहुत आर भी होड़, शोल रहित होइ, तीव्र लोभ संयुक्त होइ, रौद्र परिणामी होइ, पाप कार्य विषै जाकी बुद्धि होह सो जीव नरकाको माँ है।
४. नरकाय विशेषके बन्धयोग्य परिणाम
वि. २/ २६६.२१५३०१ धम्मपरिचतो अप
बहुकोही किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमते ॥ २६६ ॥ । बहुसा जीलाए जम्मदि तं चेत्र धूमतं ॥ २६८ | काऊए सजुत्तो जम्मदि घम्मादिमेषं तं ॥ ३० ॥ दया, धर्मसे रहित, वैरका न छोडने वाला, प्रचड कलह करने वाला और काधी जीव कृष्ण लेश्या के साथ बहुत धूमप्रभासे लेकर अन्तिम पृथ्वी तक जन्म लेता है ॥२६६ ॥ • आहारादि चारों सज्ञाओंमें आसक्त ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमवभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ॥२८॥ । कापोत लेश्यासे सयुक्त हा कर घर्मासे लेकर मेत्रा पृथ्वी तक में जन्म लेता है ।
४. कर्मभू मज तिथंच आयुके बन्धयोग्य परिणाम
तसू ६ / ९६ माया तेर्यग्योनस्य ॥ १६ ॥ - माया तियं चायुक्त सत्र है । स.सि./९६/३/३ तरच मिध्यात्वधिवेशनानि शीतासि सन्धानप्रिया नीलका पोलेश्या ध्यानमरणकालादि धर्मोपदेशमें मिथ्या बार्तोको मिलाकर उनका प्रचार करना, शोलरहित जीवन बिताना, अति संधानप्रियता तथा मरणके समय नील व कापोत तेश्या और जार्त ध्यानका होना आदि तिर्याआ है। रा. वा. ६/१६/१/५२६/८ प्रपञ्चस्तु मिथ्यात्वोपष्टम्भा धर्मदेशना-नपरम्परा ति निकृति कूटकर्मा पनिभेदम पनि शीताशब्दवचनातिसन्धानप्रियता भेदकरणारसस्पर्शाग्यत्वापादन-जातिकुली पण विसादनाभिसन्धिमि ब्याजी सद्गुणरूपपणा सगुणख्यापन-नीलका सश्यापर नाम- जार्त ध्यानमरणकालादिलक्षण प्रत्येतस्य मिध्यात्वयुक्त अधर्मका उपदेश महुआरम्भ, बहुपरि अतिबंचना कूटकर्म पृथ्वीको रेखाके समान रोषादि, नि शील्ता, शब्द और स बेतादिसे परिवचनाका षड्यन्त्र, छल-प्रपञ्चको रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण, रस, गन्ध आदिको विकृत करनेकी अभिरुचि, जातिकुलशीलदूषण, विवाद रुचि, मिध्याजीवित्व, सगुण सोप असद्गुणख्यापन, नीलकापोतलेश्या रूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समयमें आर्य रोड परिणाम इत्यादि तियंचारके बासयके कारण है। (रा. सा, ४/१५-१६) (और मो देस आगे आयु२/१२) गोक / म. ८०५/१८२ उम्मग्गदेसगो मग्गणासगो गूढहियमाइल्लो सठसीलो य ससल्लो तिरियाउ' बधवे जीवो ॥८०५॥ =जो जीव विपरीत मार्ग का उपदेशक होई. भामार्ग नाशक होई, गूट और जानने में न आवै ऐसा जाका हृदय परिणाम होइ, मायावी कटी होई अर राठ मूर्खता गयुक्त जाका सहज स्वभाव होइ, शल्यकरि सयुक्त होइ सो जीवतियंच आयुको बाँधे है ।
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६. भोग भूमिज तिथंच आयुके बन्धयोग्य परिणाम त. प. ४/३७२-३७४ दादूण केइ दाण पत्तविसेसेसु के वि दाणाण अणुमोदणेण तिरिया भोगविदीए वि जायंति ॥ ३७२ ॥ गहिदूण जिलिंग
३. आयुकर्मके बन्धयोग्य परिणाम
संजम सम्मत्तभाव परिवत्ता । मायाचारपयट्टा चारितं णसयंति जे पावा ॥ ३७३ ॥ दादूण कुलिंगीण णाणादाणाणि जे जरा मुद्धा । तव्वेसधरा
भोगीत तिरिया ॥ ३७४॥ - कोई पात्र विशेषको दान देकर और कोई दानों की अनुमोदना करके वियच भी भोगभूमिमैं उत्पन्न होते है || ३७२ || जो पापी जिनलिंगको ( मुनित्रत) को ग्रहण करके सयम एवं सम्यक्त्व भावको छोड देते हैं और पश्चाद मायाचार में प्रवृत्त होकर चारित्रको नष्ट कर देते हैं; तथा जो कोई मूर्ख मनुष्य कुलिगियो का नाना प्रकारके दान देते हैं या उनके भेषको धारण करते हैं वे भोग भूमिमें तिर्यच होते हैं।
७ कर्मभूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम
सू. ६/१७-१८ पारम्भपरियहत्व मानुषस्य ॥१७॥ स्वभावमान च ।। १८ ।। = अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह वालेका भाव मनुष्यायु का आसन है ||७|| स्वभावकी मृदुता भी मनुष्यायुका आसव है। ससि ६/१७-१८ / ३३४/८ नारकायुराभवो व्याख्यात । तद्विपरीतो मानुषस्यायुष इति संक्षेप । तहव्यास - विनीतस्वभाव' प्रकृतिभद्रता गुणपाहाता तवात्पवं मरण कालास क्लेशतादि ॥१७॥...स्वभावेन मार्दवम् उपदेशानपेक्षभिस्वर्थ । एतदपि मानुषस्यायुष आसव | = नरकायुका आस्रव पहले कह आये हैं। उससे विपरीत भाव मनुष्यायुका आखत्र है । सक्षेप में यह सूत्रका अभिप्राय है । उसका विस्तारसे खुलासा इस प्रकार है-स्वभावका विनम्र होना, भक्ष प्रकृतिका होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषायका होना तथा मरण के समय सक्लेश रूप परिणतिका नहीं होना आदि मनुष्यायुके आघव है। स्वभावसे मार्दव स्वभाव मार्दव है। आशय यह है कि बिना किसीके समझा बुझा मृदुता अपने जीवन में उतरी हुई हो इसमें किसीके उपदेशकी आवश्यकता न पडे । यह मी मनुष्यायुका आस्रव है । (रा, वा ६/१८/१/५२६/२३)
रा. वा ६/१०/१/५२६/९४ मिथ्यावदर्शनालिङ्गितामसि विनीतस्वभावताप्रकृतिभद्रता मार्दवार्जव समाचार सुखप्रज्ञापनीयता बालुवाराजिसदृशरोष-प्रगुण व्यवहारप्रायात्पारम्भपरिग्रहस्तोवाभित प्राप्युप घातविरमणप्रदोषविकर्म निवृति स्वागताभिभाषणाप्रकृतिम रता - लोकयात्रानुग्रह - औदासीन्यानुसूया रूप संवलेशता - गुरुदेवतातिथिपूजा विभागशीलता को लेश्य पश्लेय-धर्म ध्यानमरणासादिलक्षण। भदमिध्यात्वविनीत स्वभाव प्रकृतिभद्रता, मार्दव आर्जव परिणाम, सुख समाचार कहनेकी रुचि, रेकी रेखाके समान कोपादि. सरस व्यव्हार रोख, हिसाविर दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागततत्परता कम बोलना, प्रकृति मधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसं क्लेश, देव-देवता तथा अतिथि पूजा में रुचि दानशीलता, कपोतपीत लेश्या रूप परिणाम, गरम काममै धर्मध्यान परिणति आदि मनुष्यामुळे आस्रव कारण हैं ।
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रावा. ६/२०/१५२०/१५ अव्यक्तसामायिक- विराधितसम्यग्दर्शनता भयनाद्यायुष महर्द्धिमानुषस्य वा । अव्यक्त सामायिक और समयदर्शक विराधमा आदि महदिक मनुष्यकी आयुके आ कारण है। (और भी दे, आयु २/१२)
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आ/४४/६५२/१३ तत्र ये हिसाक्ष्य परिणामा मध्यमास्ते मनुजगनिका सिकाया दारुणा, गोमूकिया, कई मरागेण समाना यथासख्येन क्रोधमानमायलोभा. परिणामा । जीवघात कृत्वा हा दुष्ट कृतं यथा दुखं मरणं वास्माक अप्रियं तथा सर्वजीवानां । अहिसा शोभना वय तु असमर्था हिसादिकं परिहर्तुमिति च परिणाम | मृषापरदोषसूचकं परगुणानामसहन वचन वासज्जनाधार। साधूनामयोग्यवान का नाम साधुतास्माकमिति परिणाम तथा दाम्रप्रहारादप्यर्थ पापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकुटुम्बविनाशी नेतरव तस्मादुष्टकृतं
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