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आयु
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३. आयकर्मके बन्धयोयर परिणाम
अतश्चैतदेवं यत् क्षीणायुषोऽन्नादिसंनिधानेऽपि मरणं दृश्यते ।... देवेषु नारकेषु चान्नाद्यभावाद भवधारणमायुरधीनमेवेत्यवसैयम् । प्रश्न-जीवनका निमित्त तो अन्नादिक है, क्योंकि, उसके लाभसे जीवन और अलाभसे मरण देखा जाता है। उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि अन्नादि तो अयुके अनुग्राहकमात्र हैं, मूल कारण नहीं है। क्योंकि आयुके क्षोण हो जानेपर अन्नादिको प्राप्तिमें भी मरण देखा जाता है। फिर सर्वत्र अन्नादिक अनुग्राहक भी तो नहीं होते, क्योंकि देवों और नारकियोंके अन्नादिकका आहार नहीं होता है । अत' यह सिद्ध होता है कि भवधारण आयुके ही आधीन है।
२ गतिबन्ध जन्मका कारण नहीं आयुबन्ध है ध.१/१,१.८३/३२४/५ नापि नरकगतिकर्मणः सर तस्य तत्रोत्पत्ते कारणं
तत्सत्त्व प्रत्यविशेषतः सकलपञ्चेन्द्रियाणामपि नरकप्राप्ति प्रसङ्गात् । नित्यनिगोदानामपि विद्यमानत्रसकर्मणा सेषूरपत्तिप्रसङ्गात् । -नरकगतिका सत्व भो (सम्यग्दृष्टिके) नरकमें उत्पत्तिका कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, नरकगतिके सत्त्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी पंचेन्द्रियोंकी नरकगतिका प्रसग आ आयेगा। तथा नित्य निगोदिया जीवोंके भी सकर्मकी सत्ता विद्यमान रहती है, इसलिए उनको भी त्रसों में उत्पत्ति होने लगेगी।
३ जिस भवकी आयु बंधी नियमसे वहीं उत्पन्न होता है रा वा.८/२१/१/१८३/१८ न हि नरकायुर्मखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायु विपच्यते। -'नराकायु' नरकायु रूपसे ही फल देगी तिर्यंचायु वा
मनुष्यायु रूपसे नहीं। ध.१०/४,२,४,४०/२३६/३ जिस्से गईए आउअ बद्ध तस्थेव णिच्छएण उपजत्ति त्ति ।-जिस गतिकी आयु माँधी गयी है। निश्चयसे वहाँ ही उत्पन्न होता है। ४. देव वनारकियोंको बहलताको अपेक्षा असंख्यात
वर्षायुक कहा गया है ध.११/४.२,६,८/१०/१ देवणेरहएम सखेजबासाउसत्तमिदि भणिवे सच्चं ण ते असखेजवासाउआ. किंतु सखेज वासाउआ चेव: समयाहियपुवकोडिप्पहुडि उवरिमाउअवियप्पाण असंखेजवासाउ अत्तब्भुवगमादो। कधं समयाहियपुत्रकोडीए संखेजवासाए असं खेज्जवासत्तं । ण, रायरुक्खो व रूढिवलेण परिचत्तसगट्ठस्स असंखेज्जवस्सहस्स आउअक्सेिसम्मि वट्टमाणस्स गहणादो।प्रश्न-देव व नारकी तो संख्यात वर्षायुक्त भी होते हैं, फिर यहाँ उनका ग्रहण असरूपात वर्षायुष्क पदसे कैसे सम्भव है । उत्तर-इस शंकाके उत्तर में कहते है कि सचमुच में वे असंख्यात वर्षायुष्क नहीं हैं, किन्तु सख्यात वर्षायुष्क ही है। परन्तु यहाँ एक समय अधिक पूर्व कोटिको आदि लेकर आगेके आयु विकल्पोंको असंख्यातवर्षायुके भीतर स्वीकार किया गया है। प्रश्न-एक समय अधिक पूर्व कोटिके असरख्यातवर्ष रूपता कैसे सम्भव है : उत्तर-नहीं, क्योंकि, राजवृक्ष (वृक्षविशेष) के समान 'असख्यात वर्ष' शब्द रूढिवश अपने अर्थको छोड़कर आयुबिशेषमें रहनेवाला यहाँ ग्रहण किया गया है। ३. आयुकर्मके बन्धयोग्य परिणाम
१. मध्यम परिणामोंमें ही आयु बंधती है घ. १२/४,२,७,३२/२७/१२ अइजहण्णा आउवधस्स अप्पाओग्गं । अइमहवला पि अप्पाओग्ग चेव, सभाबियादो तत्थ दोणं विच्चाले दिया परियत्तमाणमज्झिपरिणामा बुच्च ति। -अति जघन्य परिणाम आयु बन्धके अयोग्य हैं । अत्यन्त महान् परिणाम भी आयु मन्धके अयोग्य ही हैं क्योंकि ऐसा स्वभाव है। किम्तु उन दोनों के मध्यमें अवस्थित परिणाम परिवर्तमान मध्यम परिणाम कहलाते है। (उनमें यथायोग्य परिणामोंसे आयु बन्ध होता है।)
गो. क.मू ५१८/११३ लेस्साणां खलु अंसा छन्वीसा होति तत्यमज्झिमया। आउगबंधणजोग्गा अवगरिसकालभवा । लेश्यानिके छब्बीस अश है तहाँ छही लेश्यानिकै जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदकरि अठारह अश है, बहुरि कापोत लेश्याके उत्कृष्ट अंश तै आगै अर तेजो लेश्याके उत्कृष्ट अश तै पहिलै कषायनिका उदय स्थानकनिविषे आठ मध्यम अश है जैसे छबीस अश भए । तहाँ आय कर्म के बन्ध योग्य आठ मध्यम अंश जानने। (रा. वा. ४/२२/१०/ २४०/१) गो, क /जी. प्र.५४६/७२६/२१ अशेषक्रोधकषायानुभागोदयस्थानान्यसंख्यातलोकमात्रषड्ढानिवृद्धिपतितासंख्यातलोकमात्राणि तेष्वसख्यातलोकभक्तबहुभागमात्राणि सक्लेशस्थानानि तदेकमात्रभागमात्राणि विशुद्धस्थानानि । तेषु लेश्यापदानि चतुर्दश लेश्याशा षड्विंशति । तत्र मध्यमा अष्टौ आयुर्बद्धनिबन्धना.। समस्त क्रोध कषाय के अनुभाग रूप उदयस्थान असंख्यात लोकमात्र षट् स्थानपतित हानि को लिये असंख्यात लोकप्रमाण है । तिनको यथायोग्य असंख्यात लोकका भाग दिए तहाँ एक भाग बिना बहभाग प्रमाण तौ संक्लेश स्थान हैं। एक भाग प्रमाण विशुद्धिस्थान है। तिन विर्षे लेश्यापद चौदह हैं । लेश्यानिके अश छब्बीस है। तिन विषै मध्यके आठ अश आयुके बन्धको कारण हैं। २ अल्पायुके बन्ध योग्य परिणाम भ. आ./वि ४४६/६५४/४ सदा परप्राणिधातोद्यतस्तदीयप्रियतमजो वितविनाशनात् प्रायेणाल्पायुरेव भवति ।- जो प्राणी हमेशा पर जीवोका घात करके उनके प्रिय जीवितका नाश करता है वह प्राय अल्पायुषी ही होता है। ३. नरकायु सामान्यके बन्ध योग्य परिणाम तसु६/१५.१६ बहारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष ॥१५॥ निश्श लबतित्व
च सर्वेषाम् ॥१६-बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहवालेका भाव नरकायका आस्रव है ॥१५॥ शीलरहित और बतरहित होना सब
आयु ओंका असव है ॥१६॥ स. सि. ६/१५/३३३/६ हिंसादिक्रूरकर्माजस्रप्रवर्तनपरस्वहरणविषयातिगृद्धिकृष्णलेश्याभिजातरौद्रध्यानमरण कालतादिलक्षणो नारकस्याय्ष आत्रवो भवति ।-हिसादि क्रूर कार्यों में निरन्तर प्रवृत्ति, दुसरेके धनका हरण, इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्ति, तथा मरनेके समय कृष्णलेश्या और रौद्रध्यान आदिका होना नरकाय के आस्रव है। ति. ५.२/२६३-२६४ आउस्स बधसमए सिलोव्व सेलो वेशमले य। किमिरायकसायाणं उदयम्मि अधेदि णिरयाउ ॥२६॥ किण्हाय णोलकाऊणुदयादोबंधिऊण णिरयाऊ । मरिऊण ताहि जुत्तो पावर णिरयं महाघोरं ॥२६४ आयु बन्धके समय सिलकी रेखाके समान क्रोध, शलके समान मान, बाँसकी जडके समान माया, और कृमिरागके समान लोभ कषायका उदय होनेपर नरक आयुका बन्ध होता है।श कृष्ण नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओंका उदय होनेसे नरकायुको बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महाभयानक नरकको प्राप्त करता है ।२६४॥ त सा. ४/३०-३४ उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥३०॥ अजस्र जीवधातित्व सततानृतवादिता। परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥३१॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्य चातिप्रवृद्धता । जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥३२॥ मारिताम्रचूडादिपापीय प्राणिपोषणम् । नै शोल्य च महारम्भपरिग्रहतया सह ॥३३॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् । आयुषो नारकस्येति भवन्त्यास्रबहेतवः ॥३४॥ = कठोर पत्थरके समान तीव्रमान, पर्वतमालाओं के समान अभेद्य क्रोध रखना, मिथ्याष्टि होना, तीच लोभ होना सदा निर्दयी बने रहना, सदा जीवधात करना, सदा ही झूठ बोलने में प्रेम मानना, सदा परधन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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