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आयु
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२. आयु निर्देश
* काय सम्बन्धी स्थिति -दे. काल ५६ * भव स्थिति व काय स्थितिमे अन्तर -दे स्थिति २ * गति अगति विषयक ओघ आदेश प्ररूपणा-दे जन्म ६ * आयु प्रकृतियोंकी बन्ध उदय व सत्त्व प्ररूपणा तथा
तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान-दे 'वह वह नाम' * आयु प्रकरणमे ग्रहण किये गये पल्य सागर आदिका
-दे. गणित I//t
अर्थ
१. भेद व लक्षण
१. बाय सामान्यका लक्षण रा.वा. ३/२७/३/१९१/२४ आयुर्जीवितपरिणामम् । रा.वा ८/१०/२/५७५/१२ यस्य भावात् आत्मन जीवित भवति यस्य
चाभावात मृत इत्युच्यते तद्भवधारण मायुरित्युच्यते। -जीवनके परिणामका नाम आयु है। अथवा जिसके सद्भावसे आत्माका जीवितव्य होता है तथा जिसके अभावसे मृत्यु कही जाती है उसी प्रकार
भवधारणको हो आयु कहते है। प्रसा./त प्र १४६ भवधारणनिमित्तमायु प्राण । -भवधारणका निमित्त
आयु प्राण है। २. आयुष्यका लक्षण गो.जो /भाषा २५८/५६६/१५ आयुका प्रमाण सो आयुष्य है।
३. आयु सामान्यके दो भेद (भवायु व श्रद्धायु) भ.आ./वि.२५४८५/१६ तत्रायुविभेदं अद्धायुर्भवायुरिति च ।। अर्थापक्षया
द्रव्याणामनाद्यनिधनं भवत्यद्धायुः । पर्यायापेक्षया चतुर्विधं भवत्यनाद्यनिधनं, साद्यनिधनं, सनिधनमनादि, सादिसनिधनमिति ।
आयुके दो भेद है- भवायु और अद्धायु । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका अद्धायु अनाद्यनिधन है अर्थात् द्रव्य अनादि कालसे चला आया है और वह अनन्त काल तक अपने स्वरूपसे च्युत न होगा, इसीलिए उसको अनादि अनिधन भी कहते है। पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जब विचार करते है तो अद्धायुके चार भेद होते है, वे इस प्रकार है-अनाद्यनिधन, साद्यनिधन, सनिधन अनादि, सादि सनिधनता। ४. आयु सत्त्वके दो भेद (भुज्यमान व बद्धधमान) गो क /भाषा ३३६/४८७/१० विद्यमान जिस आयुको भोगवै सो भुज्यमान
अर आगामी जाका बन्ध किया सो मद्ध्यमान ऐसे दोऊ प्रकार अपेक्षा करि.. आयुका सत्त्व है।
१. भवायु व अद्धायु के लक्षण भ आ./वि. २८/८५/१६ भवधारणं भवायुर्भव शरीरं तच्च धियते आत्मन.
आयुष्कोदयेन ततो भवधारणमायुष्कारव्यं कर्म तदेव भवायुरित्युच्यते। तथा चोक्तम्-देहो भवोत्ति उच्चदि धारिजइ आउगेण य भवो सो। तो उच्चदि भवधारणमाउगकम्म भवाउत्ति । इति आयुर्व शेनैव जीवो जायतै जीवति च आयुष एवोदयेन । अन्यस्यायुष उदये सृति मृतिमुपैति पूर्वस्य चायुष्कस्य विनाशे । तथा चोक्तम्-आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदये । अण्णाउगोदये वा मरदिय प्रत्याउणासे वा इति॥ अद्धा शब्देन काल इत्युच्यते। आउगशब्देन द्रव्यस्य स्थितिः तेन द्रव्याण स्थितिकाल अद्घायु रित्युच्यते इति। -१. भव धारण करना वह भवायु है । शरीरको भव कहते हैं। इस शरीरको आत्मा आय का साहाय्य प्राप्त करके धारण करता है, अतः शरीर धारण कराने में समर्थ ऐसे आयु कर्मको भवायु कहते है । इस विषयमें अन्य आचार्य ऐसा कहते हैं-देहको भव कहते है। वह भव आय
कर्मसे धारण किया जाता है, अत: भत्र धारण करानेवाले आय कर्म को भवायु ऐसा कहा है, आयकर्म के उदयसे ही उसका जीवन स्थिर है, और जब प्रस्तुत आयु कर्मसे भिन्न अन्य आय कर्मका उदय होता है, तब यह जीव मरणावस्थाको प्राप्त होता है । मरण समयमें पूर्वायुका विनाश होता है। इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते है-कि आयु कर्म के उदयसे जीव उत्पन्न होता है और आयुकर्मके उदयसे जीता है। अन्य आयुके उदय में मर जाता है। उस समय पूर्व आयका विनाश हो जाता है। २ अद्धा शब्दका 'काल' ऐसा अर्थ है, और आयु शब्दसे द्रव्यकी स्थिति ऐसा अर्थ समझना चाहिए। द्रव्यका जो स्थितिकाल उसको अद्धायु कहते हैं। ६. भुज्यमान व बद्धधमान आयुके लक्षण गो क./भाषा ३३६/४८७/१० विद्यमान जिस आयुको भोगवे सो भुज्यमान अर अगामी जाका बन्ध किया सो बद्धधमान (आयु कहलाती है)। १० आयुकर्म सामान्यका लक्षण स सि.८/३/३७८/९ प्रकृतिः स्वभाव. I...आयुषो भवधारणम् । तदेवलक्षण कार्य। -प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है। भवधारण आयु कर्मकी प्रकृति है। इस प्रकारका लक्षण किया जाता है। स.सि ८/४/३८०/५ इत्यनेन नारकादि भवमेत्तीत्यायु -जिसके द्वारा
नारकादि भवोंको जाता है वह आयुकर्म है । (रा वा. ८/४/२/५६८/२), (गो क /जी प्र ३३/२८/११) ध.६/१,६-१,६/१२/१० एति भवधारणं प्रति इत्यायु । - जो भव धारण___ के प्रति जाता है वह आयुकर्म है । (ध १३/५.५,६८/३६२/६) । गो. क /मू. १९४८ कम्मकयमोहव वियस सारम्हि य अणादिजुत्तेहि । जीवस्स अवट्ठाण करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥११॥ आयु कर्मका उदय है सो कर्मकरि किया अर अज्ञान असंयम मिथ्यात्व करि वृद्धिको प्राप्त भया ऐसा अनादि संसार ताविषै च्यारि गतिनिमै जीव अवस्थानको करै है। जैसे काष्ठका खोडा अपने छिद्र में जाकर पग आया होय ताकि तहाँ हौ स्थिति करावै तैसे आयुकर्म जिस गति सम्बन्धी उदयरूप होइ तिस ही गति विषै जीवकी स्थिति करावै है। (इ.सं./ टी ३३/१२). (गो क./जी.प्र २०/१३)
८. आयकर्मके चार भेद (नरकायु आदि) त.सु. ८/१० नारकर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥ - नरकायु, तियंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयुकर्म के भेद हैं। (पं.सं./प्रा २/४) (ष.ख. ६,६-१/ २५/४८), (ष ख./पु. १२/४२,१४/सू. १३/४८३), (ष ख. १३/५.४/सु.६६/३६२) (म.ब/पु. १/8:/२८) (गो.क/जी,प्र.३३/२८/१९) (पं. सं./सं. २/२०)
६. आयु कर्मके असंख्यात भेद घ. १२/४,२.१४.१६/४८३/३ पज्जवट्ठियणए पुण अवलं बिजमाणे आउअपयडी वि असंखेजलोगमेत्ता भव दि, कम्मोदयवियप्पाणमसखेज्जलोगमत्ताणमुवलभादो। - पर्यायार्थिक नयका आवलम्बन करनेपर तो आयुकी प्रकृतियाँ भी असंख्यात लोकमात्र है। क्योंकि कर्मके उदय रूप विकल्प असंख्यात लोकमात्र पाये जाते हैं । १०. आयुकर्म विशेषके लक्षण स.सि ८/१०/८ नरकेषु तीवशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्त दीर्घजीवन
तन्नारकम् । एव शेषेष्वपि । -तीव शीत उष्ण वेदनावाले नरकों में जिसके निमित्तसे दीर्घ जीवन होता है वह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओमें भी जानना चाहिए। २ आय निर्देश
१. आयुके लक्षण सम्बन्धी शंका र 1.८/१०/३/५७१/१४ स्यादेतत-अन्नादि तन्निमित्तं तल्लाभालाभ
र्जीवितमरणदर्शनादिति, तन्न, किं कारणम् । तस्यानुप्राहकत्वात...
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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