Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 262
________________ आनुपूर्वी नामकर्म के समान वर्णवाले हरिवंश के प्रदोष और शिवादेवी माता के लाल ऐसे नेमिनाथ भगवान् जयवन्त हो । इत्यादि । कपा १/११/३२२/२८ / २ ज जेग कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुब्बाणुपुत्री णाम । तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुत्री जत्थ व तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि काढूण गणणा जत्थहो जो पदार्थ जिस क्रमसे सूत्रकारके द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा, जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रमसे गणना करना पूर्वानुपूर्वी है। उस पदार्थ की विलोम क्रमसे अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक गणना करना पश्चावानुपू है और जहाँ कहीसे अपने इच्छित पदार्थ को आदि करने गणना करना यापूर्वी है (. १/४.१०४५/१३५ / १) आनुपूर्वी नामक स. सि. ८/११/३६० / ९३ पूर्वशरीराकाराविनाशी वस्त्रोदया भवति तदानुपूर्व्यनाम जिसके उदयसे पूर्व शरीरका आकार विनाश नहीं होता यह बानुपूर्वी नाम है। (राजा ८/११/११/५००) (गो.क./जी. प्र. २२/२३/१६ . ६/११९.२८/६/२ पृथ्थरीराणमतरे एग दो तिमि समए - माणजीवम्स जस्स कम्मस्स उदएण जीवपदेसाणं विसिट्टो सठाणविसेसा होदि, तस्स आणुपुव्विति सण्णा । इच्छिदगदिगमणं... अणुपुत्रीदो। पूर्व और उत्तर शरीरोंके अन्तरालवर्ती एक, दो और तीन समय में वर्तमान जीवके जिस कर्म के उदयसे जीव प्रदेशोका विशिष्ट आकार विशेष होता है, उस कर्मकी 'आनुपूर्वी' यह सज्ञा है। . आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गतिमें गमन होता है । २ आनुपूर्वी नामकर्मके भेद ६/१४२०६म्म रिय गदियानाम तिरिखगदिपाओग्गः शुपुव्योषाम मणूसगदिया गामं देवदिया खोबणा दिजो आनुपूर्वी नाम है वह चार प्रकारका है- नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म और देवानाम (स.सि. ८ १९ / २६१/१), (प.म./१/४), (५.१२/४.२.११४/२०१६ (रावा ८/ ११/११/५/५७७/२२), (गो क / जी प्र. ३२/२६/२) दे नामकर्म (आनुपूर्वी कर्मके असख्याते भेद सभत्र हैं) । 9 ३ विग्रहगति-गत जीवके संस्थानमे आनुपूर्वीका स्थान रावा. ८/११/११/२००/२५ नामसाध्यं फल नानुपू नमो दोष पूर्वायुरुदसमकाल एवं पूर्वदारीरनिवृत्ती निर्माणनामोदयो निवर्तते तस्मिन्निवृत्तेऽष्टविधर्म तैजसकामणिशरीरसम्बन्धित आत्मन पूर्वशरीरसंस्थाना विनाशकारण मानू नामोति तस्य कालो गित जय समयः 1 समय ऋजुती तु पूर्वशरीराकार विनाशे सति उत्तरशरीर योग्यपणा निर्माणनामकर्मोदयव्यापार । प्रश्न(विग्रहगति में आकर मनाना) यह निर्माण नामकर्मका कार्य है आनुपूर्वी नामकर्मका नहीं ' उत्तर- इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व शरीर के नष्ट होते ही निर्माण नामकर्मका उदय समाप्त हो जाता हैं। उसके नष्ट होनेपर भी आठ कमौका पिण्ड कार्याण शरीर और तेजस शरीर से सम्बन्ध रखनेवाले आत्म प्रदेशोंका आकार विग्रहगतिमें पूर्व शरीर के आकार बना रहता है । विग्रहगतिमें इसका काल कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक तीन समय है। हाँ, जु गतिमें पूर्व शरीर के आकारका विनाश होनेपर तुरन्त उत्तर शरीर के योग्य पुगलका ग्रहण हो जाता है. अत यहाँ निर्माण नामकर्मका कार्य ही है। Jain Education International २४७ .६/९१-९२८/२६/४ संगमकम्मादो संठा होदिति पुि परियप्पा णिरस्थिया चे ण, तस्स सरीरगहिदपढमसमयादो उवरि उदयमागच्छमाणस्स विग्गहकाले उदयाभावा । जदि आणुपुव्विक्म्म ण होज तो विग्गहकाले अणिदसंठानों जीवो हज्ज । प्रश्नसंस्थान नामकर्म से आकार विशेष उत्पन्न होता है, इसलिए आनुपूर्वीकी परिकल्पना निरर्थक है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयसे ऊपर उदयमें आनेवाले उस संस्थान नामकर्मका विग्रहगतिके कालमें उदयका अभाव पाया जाता है। यदि आनुपूर्वी नामकर्म न हो, तो विग्रहगतिके काल में जीव अनियत संस्थान माला हो जायेगा ( १३२.२.१९६/२०२/२) ४. विग्रहगतिगत जीवके गमनमे आनुपूर्वीका स्थान ६९.२-१.२८/५६/०सरी सरीरतरमधे द्विदजीवरस महादिविहायमदीदो किम हादि । ण, तस्स तिह सरीराणमुदरण विणा उदयाभावा आणुपुत्री सठाणम्हि वावदा क्ध गमणहेऊ होदित्ति चे ण, तिस्से दोसु विकज्जेसु बाबारे विरोहाभावा । अचत्तसरीरस्स जीवस्स विग्गहगई उई वा गम त कस्स फलं तस्य पुनरि चायाभावेग गमनाभावा । जोवपदेसाणं जा पसरो सरेण णिक्कारणो तस्स आउअसतफलत्ता दो। प्रश्न पूर्व शरीरको छोडकर दूसरे शरीरको नहीं ग्रहण करके स्थित जीवका इच्छित गतिमें गमन किस कर्म से होता है। उत्तर- आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गति में गमन होता है। प्रश्न- विहायोगति नामकर्म से इच्छित गतिमे गमन क्यो नहीं होता है ? उत्तर- नहीं, क्योकि विहायागति नामकर्मका औदारिकादि तीनों शरोरोके उदयके बिना उदय नहीं होता है। प्रश्न आकार विशेषको बनाये रखने में व्यापार करनेवाली आनुपूर्वी इच्छित गतिमें गमनका कारण कैसे होती है । उत्तर - नहीं, क्योकि, आनुपूर्वीका दोनो भी कार्योंके व्यापार में विरोधका है अर्थात् निग्रहगति में आकार विदोषको बनाये रखना और इतिगतिमे गमन कराना, ये दोनो आनुपूर्वी नामकर्मके कार्य है प्रश्न पूर्व शरीरको न छोडते हुए जीवके अथवा ऋजुगति में (मरण-समुद्रातके समय ) जो गमन होता है वह किस कर्म का फल है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीरको नहीं छोडने वाले उस जीव के पूर्व क्षेत्रके परित्यागके अभाव से गमनका अभाव है। पूर्व शरीरको नहीं छोडनेपर भी जीव प्रदेशोंका जो प्रसार होता है वह निष्कारण नहीं है, क्योंकि वह आगामी भव सम्बन्धी आयुकर्म का फल है । - * आनुपूर्वी प्रकृतिका बंध उदय व सत्य प्ररूपणा आनुपूर्वी संक्रमण - दे. संक्रमण १० । आपातातिचार अतिचार आत आपूच्छना समाचार आपेक्षिक गुण दे स्वभाव । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे. वह वह नाम । आप्तनिसा / ७ जिससेस दोसरहिओ केवलवाणा परमविभव जुदो । सो परमप्पा उच्च तठित्रवरीओ ण परमप्पा ॥७॥ नि. सा / तावृ. ५/११ आप्त शंकारहित । शंका हि सकलमोहरागद्वेषादय । = निशेष दोषो से जो रहित है और केवलज्ञान आदि परम वैभव से जो संयुक्त है, वह परमात्मा कहलाता है; उससे विपरीत वह परम रमा नहीं है । आप्त अर्थात् शका रहित शंका अर्थात् सकल मोह रागपादिक (दोष)| र कथा/ ५७ आप्तेनोदोषेण सर्वशेनागमेशिना । भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्यासता भवेत् ॥५॥ क्षुत्पिपासाज रातङ्कजन्मातङ्कभयस्मया । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्त स प्रकीर्त्यते ॥ ६॥ परमेष्ठी परं ज्योमिक्सी मध्यान्त सार्थ शारी पलाश्यते ॥७॥ - नियमसे वीतराग और सर्वज्ञ, तथा आगमका ईश www.jainelibrary.org

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