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चाहिए क्योकि आचार विषयक ज्ञान होनेपर इनके अध्ययन करने में कोई दोष नहीं है ।
आगम
मो.मा.प्र. ० / ४३२ / १० बहुरि व्याकरण न्यायादिक शाख है, तिनका भी थोरा बहुत अभ्यास करना । जातैं इनिका ज्ञान बिना बड़े शास्त्रनि का अर्थ भास नाही । बहुरि वस्तुका भी स्वरूप इनकी पद्धति जाने जैसा भास तसा भाषादिक करि भास नाही । तातै परम्परा कार्यकारी जानि इनका भी अभ्यास करना ।
७. आगम में व्याकरणको गौणता
पका / ता वृ १ / ३ प्राथमिक शिष्यप्रति सुखबोधार्थमत्र ग्रन्थे सधेर्नियमो नास्तीति सर्वत्र ज्ञातव्यम् - प्राथमिक शिष्योको सरलतासे ज्ञान हो जावे इसलिए ग्रन्थमे सन्धिका नियम नहीं रखा गया है ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए ।
८. अर्थ समझने सम्बन्धी कुछ विशेष नियम ध, १/१,१,१११/३४९/४ सिद्धासिद्धाश्रया हि कथामार्गा।
प. २१/१.१.११०/३६२/९० सामान्यबोधनाथ विशेषेष्यन्थिन परम्पराएँ प्रसिद्ध और असि इन दोनों के आश्रयसे प्रवृत्त होती है। सामान्य विषयका बोध कराने वाले वाक्य विशेषों में रहा करते है। घ. २/११/४४२/१० विशेषविधिना सामान्यविधिर्माध्यते ।
ध. २/१.१/४४२/२० परा विधिर्बाधको भवति । विशेष विधिसे सामान्य विधि बाधित हो जाती है।.. पर विधि बाधक होती है ।
घ. ३/९.२.२/१८/१० व्याख्याती विशेषप्रतिपत्तिरिति ।
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ध ३/१,२,८२/३१५/१ जहा उद्द ेसो तहा णिद्द सो व्याख्यासे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है उड़ शके अनुसार निर्देश होता है। [] ४/९०२, १४४/४०३/४ गौ-मुख्ययोर्मुख्ये सप्रत्यय-गीण और मुख्यमें विवाद होनेपर मुख्यमे ही सप्रत्यय होता है। १. सु. ३/१६ तिनिर्णय तर्क से इसका (कमभावका) निर्णय
होता है।
प.ध. / पू. ७० भावार्थ - सावन व्याप्त साध्यरूप धर्म के मिल जानेपर पक्षकी सिद्धि हुआ करती है । दृष्टान्तको ही साधन व्याप्त साध्य रूप धर्म कहते है।
पं. ध. / ७२ नामैकदेशेन नामग्रहणम् । नामके एकदेशसे ही पूरे नामका ग्रहण हो जाता है, जैसे रा. ल कहने से रामलाल
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प.प. ४६४ व्यतिरेकेण विना यज्ञान्यपक्षः स्वपक्षरक्षार्थम्। व्यतिरेकके बिना केवल अन्वय पक्ष अपने पक्षकी रक्षाके लिए समर्थ नहीं होता है।
६. विरोधी बातें आने पर दोनोंका संग्रह कर लेना चाहिए
च. १/१.१.२७/२२२/२ उस्त सिहंता आरिया कथं बचभीरुको इदि एस दोस्रो, दोहं मन्ये एकस्सेव संग कोरमाने बजभीरुतं विट्टति दो पि संग्रहकरे ताण माइरियाणं नज्म भीरुचाविणासाभावादो।
घ. १/१.१.२०/२१२/२ उपदेसमतरेण तदवगमाभावा दो पि संगही कायल्यो दोह संगई करें तो संसयनिन्दाहट्टी होदिति ण, तुमेव अस्थि ति सतस्स संदेहाभावादो। प्रश्न - उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु कैसे माने जा सकते है 1 उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों का वचनों में से किसी एक ही वचन संग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात् उच्छ ङ्खलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकारके वचनोंका, सग्रह करनेबाले चायके पापभीरुता नष्ट नहीं होती है, अर्थात् मनो रहती है। उपदेशके बिना दोनों में से कौन मंचन सूत्र रूप है यह नहीं जाना जा सकता, इसलिए दोनों बचनोका संग्रह कर लेना चाहिए । प्रश्न- दोनों वचनोंका संग्रह करनेवाला संशय मिध्यादृष्टि हो
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४. शब्दार्थ सम्बन्धी विषय
जायेगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि संग्रह करनेवाले के 'यह सूत्र कथित ही है इस प्रकारका श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके सन्देह नहीं हो सकता है।
[घ] २ / २.१.१३ / ११० / १०३ सम्माट्ठी जीवो उतु सद हृदि । सहहृदि असम्भाव अजाणमाणो गुरु णियोगा ॥ ११०॥ सम्यदृष्टि जीव जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु किसी तत्वको नहीं जानता हुआ गुरुके उपदेश विपरीत अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है ॥ ११०॥ (गो. जी / मू. २७), (लसा. / यू १०५)।
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१०. व्याख्यानकी अपेक्षा सूत्र वचन प्रमाण होता है
क.पा २ / १.९५ / ६४६३/४९७/७ मुखेण वसवाणं माहज्यदि ण वसामेण क्लाएर पुणो दो वि या दोन्दमेकदरस्त सुतासार तागमाभावादो ।... एत्थ पुण विसंयोजणा पक्खो चेव पहाणभावेणावलंबियो पबाइज्जमाणन्तादो। सूत्र के द्वारा व्याख्यान बाधित हो जाता है, परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता। इसलिए उपशम सम्पन् अनन्नुबन्धीको विस योजना नहीं होती यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहाँ दोनों ही उपदेशोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें से अमुक उपदेश सूत्रानुसारी है, इस प्रकारके ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता ... फिर भी यहाँ उपशम सम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है, यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि इस प्रकारका उपदेश परम्परासे चला आ रहा है।
११. पाका निर्णय हो जाने पर मूल सुधार लेनी
चाहिए
घ. १/१.१.३७/१४३/२६२ सुन्तादो तं सम्म दरिसिज्वंतं जदा प सहदि सोचै नदि मिट्ठी हु तदो पहूडि जीबोसूत्र से भले प्रकार आचार्यादिकके द्वारा समझाये जाने पर भी यदि जो जीव विपरीत अर्थ को छोडकर समीचीन अर्थका श्रद्धान नहीं करता तो उसी समयसे वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। ( गो जी / मू. २८), (ल. सा / म. १०६)
६. १३/५.२.१२०/३८१/५ एत्थ उनसे सण एवं
असच मिदि पिच्छओ कायव्वो । एदे च दो वि उबरसा मुत्तसिद्धा । - यहाँ पर उपदेशको प्राप्त करके यही व्याख्यान सत्य है, अन्य व्याख्यान असत्य है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। ये दोनों ही उपदेश सूत्र सिद्ध है ( १४/५.६.२६/४) (. १४/५.६.१९६/९५९/६). (ध. १४/५, ६, ६५२/५०८/६), (ध. १५/३१७/१)
४. शब्दार्थ सम्बन्धी विषय
१. शब्द में अर्थ प्रतिपादनको योग्यता व शंका
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प मु.३/१००,१०१ सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तु प्रतिपत्तिहेतवः ॥१००॥ यथा मेदय सन्ति ॥ १०१ ॥ शब्द और अर्थ में वाचक वाच्य शक्ति है । उसमें संकेत होनेसे अर्थात् इस शब्दका वाच्य यह अर्थ है ऐसा ज्ञान हो जानेमे शब्द आदिसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। जिस प्रकार मेरु आदि पदार्थ है अर्थात मेरु शब्द उच्चारण करने हो जम्बू द्वीपके मध्य में स्थित मेरुका ज्ञान हो जाता है। (इसी प्रकार अन्य पदार्थों को भी समझ लेना चाहिए)
२. भिन्न-भिन्न शब्दोंक भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं स.सि १ / १३/१४४ शम्यमेश्ररस्ति अर्थभेदेनाध्यवस्य भवितव्यम् । -यदि शब्दों में भेद है तो अर्थों में भेद अवश्य होना चाहिए। (रा. वा. १ / ३३/१०/१८/३१)
रा. बा. १/६/५/३४/१८ शम्यमेवे बोर्ममेव इति शब्दका भेद होनेपर अर्थ अर्थात् वाच्य पदार्थ का भेद भ्रम है ।
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