________________
आगम
३. जितने शब्द हैं उतने बाच्य पदार्थ भी हैं आस मी./घू. २० सेनि प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याते कचिद संज्ञावान पदार्थ प्रतिषेध्य कहिए निषेध करने योग्य वस्तु तिस बिना प्रतिषेध कहॅू नाहीं होय है ।
जो
रा. वा. १/६/५/३४/१८ में उद्धृत ( यावन्मात्रा' शब्दा' तावन्मात्रा परमार्था भवन्ति) जितियमित्ता सदा तिथिमिया होति परमरथा । जितने शब्द होते है उतने ही परम अर्थ हैं ।
2005
२३३
का.अ./. २५१ कि महमा उत्ते मतियमेतानि सति णामाणि तेत्तिय - मेत्ता अत्था सतिय नियमेण परमत्था। -अधिक कहने से क्या 1 जितने नाम है उतने ही नियमसे परमार्थ रूप पदार्थ हैं । ४. अर्थ व शब्दमें वाध्यवाचक सम्बन्ध फंसे
क. पा. ९/११-१४/३११८-२०० / २३२८/९ शब्दोऽस्य निस्यन्वस्थ कथं अचक इति चेत् । प्रमाणमर्थस्य निस्सबन्धस्य कथ ग्राहकमिति समानमेतत् । प्रमाणार्थ योग्यजनक लक्षण प्रतिमन्धोऽस्तीति चेत न वस्तुसामर्थ्यस्थान् समुत्पत्तिविरोधात १३१६८३ प्रमाणार्थयो स्वभावत एव ग्राह्यग्राहकभावश्चेत्; तर्हि शब्दार्थयो' स्वभावत एव वाच्यवाचकभाव किमिति नेष्यते अविशेषात् । प्रमाणेन स्वभावतोइसबर्द्धन किमितीन्द्रियमासोको वा अपेक्ष्यत इति समानमेतद शन्दार्थ सबन्ध कृत्रिमत्वाद्वा पुरुषव्यापारमपेक्षते ॥ १६६४..
अथ स्थात, न शब्दो वस्तु धर्म, तस्य ततो भेदात् । नाभेद भाकियाकारिवाद साधना उपा
भन्ने
यो
1
न विशेष्याजिन' विशेष अवस्थापते । ततो न वाचकभेदाभेद इति न प्रकाश्याद्भिज्ञामेव प्रमाणप्रदोष सूर्यमान का
सर्व
भात ततो भिन्नोऽपि शब्दोऽप्रतिपादक इसिसि ॥२००० ध. १/४,१.४५/१७६/३ अथ स्यान्न, नशब्दो अव्यवस्थापन्ते, ( ऊपर क. पा. में भो यही शका को गयी है) नैष दोष, भिन्नानामपि वस्त्राभरणादीनां विशेषणोपलम्भाद तो योग्यता शब्दार्यानाम्। स्वपराभ्याम्। न चैकान्तेनान्यत एव तदुत्पत्तिः स्वती वर्तमानानामर्थानां सहायकत्वेन वर्तमानमाह्यार्थीसम्भा - प्रश्न - शब्द व अर्थ में कोई सम्बन्ध न होते हुए भी वह अर्थ का वाचक कैसे हो सकता है ? उत्तर- प्रमाणका अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध न होते हुए भी वह अर्थका ग्राहक कैसे हो सकता है ? प्रश्न- प्रमाण व अर्थ में जन्यजनक लक्षण पाया जाता है। उत्तर-नहीं, वस्तुको सामर्थ्यको अन्यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। प्रश्न- प्रमाण व अर्थ में तो स्वभावसे ही ग्राह्यग्राहक सम्बन्ध है । उत्तर तो शब्द व अर्थ में भी स्वभावसे हो वाच्य वाचक सम्बन्ध क्यों नहीं मान लेते 1 प्रश्न- यदि इसमें स्वभावसे ही वाच्यवाचक भाव है तो वह पुरुषव्यापारकी अपेक्षा क्यो करता है ? उत्तर - प्रमाण यदि स्वभावसे ही अर्थ के साथ सम्बद्ध है तो फिर वह इन्द्रियव्यापार व आलोक (प्रकाश) की अपेक्षा क्यों करता है। इस प्रकार प्रमाण व शब्द दोनोंमें शंका व समाधान समान है। अतः प्रमाणकी भाँति हो शब्दमें भी अर्थप्रतिपादनकी शक्ति माननी चाहिए। अथवा, शब्द और पदार्थका सम्बन्ध कृत्रिम है । अर्थात् पुरुषके द्वारा किया हुआ है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखता है । प्रश्न- शब्द वस्तुका धर्म नहीं है, क्योंकि उसका वस्तुसे भेद है । उन दोनो में अभेद नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों भिन्न इन्द्रियोंके विषय है, दोनोकी अर्थ किया भिन्न है दोनोंके कारण भिन्न है. शब्द उपाय है और वस्तु उपेय है। इन दोनों में विशेष्य विशेषण भावकी अपेक्षा भो एकत्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि विशेष्य से भिन्न विशेषण नहीं होता है, कारण कि ऐसा माननेसे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
Jain Education International
४. शब्दार्थ सम्बन्धी विषय
६/४१,४५ / १०६/३ पर यही शंका करते हुए शंकाकारने उपरोक्त हेतुओंके अतिरिक्त ये हेतु और मी उपस्थित किये हैदोनों भिन्न इन्द्रियो के विषय है। वस्तु नियमेाह्य है और शब्द स्वगिन्द्रिय से ग्राह्य नहीं है । दूसरे, उन दोनों में अभेद मानने से 'झरा' और 'मोदक' शब्दोंका उच्चारण करनेपर क्रमसे सुख कटने तथा पूर्ण होनेका प्रसंग आता है, अत' दोनोमें सामानाधिकरण्य नही हो सकता ।] ( और भी दे नय ४ / ५) अतः शब्द वस्तुका धर्म न होनेसे उसके भेद अर्थभेद नहीं हो सकता उत्तर--नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार प्रमाण, प्रदीप, सूर्य, मणि और चन्द्रमा आदि पदार्थ घट पट आदि प्रकाश्यभूत पदार्थोंसे भिन्न रहकर हो उनके प्रकाशक देखे जाते है, तथा यदि उन्हें सर्वथा अभिन्न माना जाय तो उनके प्रकाश्य प्रकाशकभाव नहीं बन सकता है, उसी प्रकार शब्द अर्थसे भिन्न होकर भी अर्थका वाचक होता है, ऐसा समझना चाहिए । दूसरे, विशेष्यसे अभिन्न ही विशेषण हो यह कोई नियम नही, क्योकि विशेष्य से भिन्न भी वस्त्राभरणादिकोंको विशेषणता पायी जाती है। (जैसे- घडीवाला या लाल पगडीवाला) प्रश्न- शब्द वअर्थ में यह योग्यता कहाँ से आती है कि नियत शब्द नियतही अर्थ का प्रतिपादक हो 1 उत्तर-स्व व परसे उनके यह योग्यता आती है। सर्वथा अन्यसे ही उसकी उत्पत्ति हो, ऐसा नही है, क्योंकि, स्वयं बर्तनेवाले पदार्थों की सहायता से बर्तते हुए बाह्य पदार्थ पाये जाते है । क.पा १/१३-१४ / १२१५-२१८/२६५-२६८ अथ स्यात न पदवाक्यान्यर्थप्रतिपादिकानि तेषामसत्त्वात । कुतस्तदसत्त्वम् । [ अनुपलम्भात् । सोऽपि कुत ।] वर्णानां क्रमोत्पन्नानामनित्यानामेतेषां नामधेयाति (पाठ छूटा हुआ है) समुदायाभावात् । न च तत्समुदय (पाठ छूटा हुआ है अनुपलम्भात् न च वर्गादप्रतिपत्ति प्रतिवर्णमप्रति पचिप्रसगाव निश्वानिस्योभयपक्षेषु संकेतानुपपत्तेश्चन
1
योऽप्रतिपति नामंकेतितः शम्योऽर्य प्रतिपादक अनुप सम्भात्। ततो न हन्यादर्थप्रतिपत्तिरिति सिद्धम् ॥ २९५॥ नच वर्णपदाक्यव्यतिरिक्त निश्योऽक्रम अमूर्ती निरवयव सर्वगत अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति अनुपलम्भाद रङ्गशब्दात्मकनिमित्त च तेभ्य) क्रमेणोत्पन्नवर्ण प्रत्ययेभ्यः अक्रमस्थिति समुत्पन्नपदवाक्याध्यामर्थविषयप्रत्ययोपयुपलम्भात
1
न च वर्णप्रत्ययानां क्रमोत्पन्नानां पदवाक्यप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तानामक्रमेण स्थितिर्विरुद्धा; उपलभ्यमानत्वात् । न चानेकान्ते एकान्तबाद इव संकेतग्रहणमनुपपन्नः सर्वव्यवहाराणा [मनेकान्त एवं सुघटत्वात् । तत] वाच्यवाचकभावो घटत इति स्थितम् । - प्रश्न- क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अनित्य वर्णोंका समुदाय असत होनेसे पद और वाक्योंका ही जब अभाव है, तो वे अर्थप्रति चादक कैसे हो सकते हैं और केवल बर्णोंसे ही अर्थका ज्ञान हो जाय ऐसा है नहीं, क्योंकि 'घ' 'ट' आदि प्रत्येक वर्ग से अर्थ ज्ञानका प्रसंग आता है। सर्वथा निष्य, सर्वथा अनित्य और सर्वथा उभय इन तीनों पक्षों में ही संकेतका ग्रहण नहीं बन सकता इसलिए पद और वाक्योंसे अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि संकेत रहित शब्द पदार्थका प्रतिपादक होता हुआ नहीं देखा जाता । वर्ण, पद और वाक्य भिन्न, नित्य, क्रमरहित, अमूर्त, निरक्यय सर्वगत 'स्फोट' नामके तत्त्वको पदार्थोंको प्रतिपत्तिका कारण मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि, उस प्रकारकी कोई वस्तु उपलब्ध नहीं हो रही है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, बाह्य शब्दात्मक निमित्तों से क्रमपूर्वक जो 'घ' 'ट' आदि वर्णज्ञान उत्पन्न होते है, और जो ज्ञानमें अक्रमसे स्थित रहते है, उनसे उत्पन्न होनेवाले पद और वाक्योंसे वर्ष विषयक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है । पद और वाक्योंके ज्ञानकी उत्पत्ति में कारणभूत तथा क्रमसे उत्पन्न वर्ण विषयक ज्ञानोंकी अक्रमसे स्थिति माननेमें भी विरोध नहीं आता, क्योंकि, वह उपलब्ध होती है। तथा जिस प्रकार एकान्तवाद में संकेतका ग्रहण नहीं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org