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आचारवत्त्व
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इ. टी. २२/२१६ समस्त परद्रव्येानिरोधेन तथैवानशन आदि द्वादशतपश्चरण बहिर सहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं तत्राचरणं, परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचार. । = समस्त परद्रव्यकी इच्छाके रोकनेसे तथा अनशन आदि बारह तप रूप बहिरङ्ग सहकारि कारणसे जो निज स्वरूपमें प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चय तपश्चरण है। उनमें जो आचरण अर्थात परिमन निश्चयतपश्चरणाचार है । ६. वीर्याचारका लक्षण
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मू आ. ४९३ अभिहितवरियो परकामादि जो जगतमा उन्तो सुजदि य जहाधान बिरियाचारो ति गारो ४१ नहीं छिपाया है आहार आदिसे उत्पन्न बल तथा शक्ति जिसने ऐसा साधु यथोक्त चारित्रमें तीन प्रकार अनुमति रहित १७ प्रकार संयम विधान करनेके लिए आत्माको युक्त करता है वह बीर्याचार जानना ॥ ४१३॥ प्र.सा./२०२ / २५९ समस्तेत चारपवर्तकस्वशक्त्या निग्रहलक्षण वीर्याचार | समस्त इतर आचार में प्रवृत्ति करनेवाली स्वशक्ति अगोपन स्वरूप वीर्याचार है।
प्र. / टी, ७/१४ तत्रेव शुद्धात्मस्वरूपे स्वशक्त्यानवगूहनेनाचरणं परिणमनं वीर्याचार । ..बाह्यस्वशक्तय नवगूहनरूपो बाह्यवीर्याचार. |= उसी शुद्धात्म स्वरूपमें अपनी शक्तिको प्रकटकर आचरण परिणमन करना वह निश्चय वीर्याचार है। अपनी शक्ति प्रकटकर मुनिवतका आचरण यह व्यवहार वीर्याचार है।
.स / टी ५२/२११ तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशतपानवगूहन • निश्चयवीर्याचार । इन चार प्रकारके निश्चय आचारकी रक्षा के लिए अपनी शक्तिका नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है ।
* निश्रय पञ्चाचारके अपर नाम मोक्षमार्ग २/५ । _दे * दर्शनादि आचार व विनयमे अन्तरदे, विनय २ आचारवत्त्वानि ४१६ / ६०८ आधार पनि
प्रकार आचारं । चरदि विनातिचार चरति । पर वा निरतिचारे पंचविधे आधारे प्रवर्तयति । उवदिसदिय आयार उपदिशति च आचार । एसो णाम एष आचारवान्नाम ।
भ. आ / ४२० सहिद या वेज जो दो समायरियो | आयारव खु एसो पत्रयणमादासु आउत्तो ॥ ४२० ॥ जो मुनि पाँच प्रकारका आचार अतिचार रहित स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारोंमें दूसरोको भी प्रवृत्त करता है, जो आचारका शिष्योको भी उपदेश करता है, वह आवारवत्त्व गुणका धारक समझना चाहिए । जो दस प्रकार के स्थिति कल्पमें स्थिर है वह आचार्य आचारवन्व गुणका धारक समझना चाहिए। यह आचार्य तीन गुप्ति और समितियोंका जिनको प्रवचनमाता कहते है धारक होता है।
आचार वर्द्धनव्रत- - व्रत विधानसंग्रह / पृ. १०७ ।
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गणना - कुलसमय - ११६ दिन उपवास - १००; पारणा १६ । सुदृष्टितर गिणी / यन्त्र - १,२,३,४,५,६,७,८,६,१०ः ६,८,७,६५,४,३,२.१३ विधि-निभंग रूपेण एक उपवास एक पारणा, फिर दो उपवास एक पारगा, इस प्रकार ऊपर दर्शाये रूपसे बढाता हुआ १० उपवास एक पारणा, फिर घटाता हुआ अन्तमें एक उपवास एक पारणा करे । उपरोक्त अंक सर्व अकोसे तो उसने उतने उपवास जानना और बीचके (,) ऐसे स्थानों में सर्वत्र एक-एक पारणा जानना । आचारसार—आ वीरनन्दि ( ई श १२मध्य) कृत यत्याचार विषयक ग्रन्थ (ती. ३/२७१) ।
आचारांग अपना एक भेदे तहान III आचार्य - साधुओं को दीक्षा शिक्षा दायक, उनके दोष निवारक, तथा
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आचार्य
अन्य अनेक गुण विशिष्ट, सघ नायक साधुको आचार्य कहते हैं । वीतराग होनेके कारण पंचपरमेष्ठी में उनका स्थान है। इनके अतिरिक्त गृहस्थियोंको धर्म-कर्मका विधि-विधान कराने वाला गृहस्थाचार्य है। पुजा-प्रतिष्ठा बादि करानेवाला प्रतिष्ठाचार्य है । लेखनागत क्षपक साकी पर्या करानेवाला निर्यायकाचार्य है। इनमें से साधुरूपधारी आचार्य ही पूज्य है अन्य नहीं ।
१. साधु आचार्य निर्देश
१. आचार्य सामान्यका लक्षण
भ.आ./मू. ४१६ आयारं पञ्चविह चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं । उवदिसदिय आयारं एसो आयारव णाम । =जो मुनि पाँच प्रकार के आचार निरतिचार स्वयं पालता है, और इन पाँच आचारो में दूसरो को भी प्रवृत्त करता है, तथा आचारका शिष्योको भी उपदेश देता है उसे आचार्य कहते है (चासा १५०१४) । मूआ ५०६,५१० सदा आयारविद्दण्हू सदा आयरियं चरे । आयारमायारचतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥ ५०१ ॥ जम्हा पञ्चविहाचार आचरं तो पभासदि। आयरियाणि देसतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥५१०॥ - जो सर्वकाल सम्बन्धी आचारको जाने, आचरण योग्यको आचरण करता हो और अन्य साधुओं को आचरण कराता हो इसलिए वह आचार्य कहा जाता है ॥ ५०६ ॥ जिस कारण पाँच प्रकार के आचरणको पालता हुआ शोभता है, और आप कर किये आचरण दूसरों को भी दिखाता है, उपदेश करता है, इसलिए वह आचार्य कहा जाता है । नि.सा /मू ७३ पचाचारसमग्गा पंचिदियदतिदप्पणिद्दलणा । धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा हो तपाचासे परिपूर्ण पंचेन्द्रिय रूपी हाथी के मदका दलन करनेवाले, धीर और गुणगम्भीर, ऐसे आचार्य होते है ।
स.सि. १/२४/४४२ आचरन्ति तस्माद मानित्यापायी जिसके निमित्तसे व्रतोका आचरण करते है वह आचार्य कहलाता है। (रा. वा ६/२४/३/६२३/११)। १९११/२६-३१/४६ बासो । मेरु
यजत हि जलोर हायामल-बुद्धिfroreपो सूरो पचाणणो वण्णो ॥२१॥ देसकुलजाइ
दो सोमो सग संग उम्मुखो गयण व्य मिरवलेनो आयरियो एरिसो होई ॥३०॥ सगह - णिग्गह- कुसलो सुत्तस्य विसारओ पहियकित्ती सारण-वारण साहण किरिज्युतो हु आयरि ॥११॥
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घ. १/१.१.१/४६ / ६ पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयतीत्याचार्या. । चतुर्दशविद्यास्थानपारगा. एकादशाङ्गधरा । आचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्व समयपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चल' क्षितिरिव सहिष्णु सागर व महिमिल भयभिप्रमुक्ता आचार्य प्रद चनरूपी समुद्र के असके मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमात्मा परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मत हो गयी है, जो निर्दोष रीतिसे छह आवश्यकोका पालन करते है, जो मेरुके समान निष्कम्प है, जो शूरवीर है, जो सिहके समान निर्भीक है, जो गर्म अर्थात् श्रेष्ठ है, देश कुछ और जाति शुद्ध है, सौम्य मूर्ति है, अन्तरक और महिद परिवहसे रहित है, आकाशके समान निर्लेप है । ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते है । (२६३०) जो सघके संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित्त देनेमें कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और साधन अर्थात् व्रतोकी रक्षा करनेवाली क्रियाओ में निरन्तर उद्यत है, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए। (मू आ १५८) जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारोका स्वयं पालन करते है, और दूसरे साधुओंसे पालन कराते है उन्हे आचार्य कहते है। जो चौदह विद्या
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