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आगम
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५. आगमकी प्रामाणिकतामें हेतु
बनता है, उसी प्रकार अनेकान्तमें भी न बनता हो, सो भी ठीक नहीं है, क्योकि समस्त व्यवहार अनेकान्तबादमें ही सुघटित होते हैं। (अर्थात वर्ण व वर्ण ज्ञान कथचित् भिन्न भी है और कथंचित अभिन्न भी) अत बाच्यवाचक भाव बनता है, यह सिद्ध होता है। ५. शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त हैं रा.वा १/२६/४/८७/२३ शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव, द्रव्यपर्याया पुनः । संख्येया संख्येयानन्तभेदा । -सर्व शब्द तो सख्यात हो होते है। परन्तु द्रव्योकी पर्यायों के संख्यात अस रख्यात व अनन्तभेद होते है।
६. अर्थ प्रतिपादनकी अपेक्षा शब्दमें प्रमाण वनयपना रा.वा. ४/४२/१३/२५२/२२ यदा वक्ष्यमाणे. कालादिभिरस्तित्वादीनां धर्माणा भेदेन विवक्षा तदैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायनशक्त्याभावात क्रम'। यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुत्पते तदै केनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकरवापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात् यौगपद्यम् । तत्र यदा यौगपद्य तदा सकलादेशः: स एव प्रमाण मित्युच्यते । यदा तु क्रम' तदा विकलादेश स एक नय इति व्यपदिश्यते। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादि को अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते है, उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे क्रमसे प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते है। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों को कालादिककी दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है, तब एक भी शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोंका अखण्ड भावसे युगपत कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नय रूप है और सकलादेश प्रमाण रूप है।
७. शब्दका अर्थ देशकालानुसार करना चाहिए स.म १३.:२१ में उस साभाविकसामयसमयाभ्यामर्थ बोध निबन्धन शब्दः।" -स्वाभाविक शक्ति तथा संकेतसे अर्थका ज्ञान करानेवालेको शब्द कहते है। ८. भिन्न क्षेत्र-कालादिमें शब्दका अर्थ भिन्न भी होता है
१. कालकी अपेक्षा सम. १४/१७८/३० कालापेपया पुनर्यथा जैनाना प्रायश्चित्तविधी.. प्राचीनकाले षड्गुरुशब्देन शतमशीत्यधिकमुपवासानामुच्यते स्म. सांपतकाले तु तद्विपरीते तेनैव षड्गुरुशब्देन उपचासत्रयमेव संकेत्यते जीतकल्पव्यवहारानुसारात। -ज तकल्प व्यवहारके अनुसार प्रायश्चित्त विधिमें प्राचीन समयमें 'षड गुरु' शब्द का अर्थ एक सौ अस्सी उपवास किया जाता था, परन्तु आजकल उसी 'षड्गुरु' का अर्थ केवल तीन उपवास किया जाता है।
२. शास्त्रोंकी अपेक्षा स.म. १४/१७६/४ शास्त्रापेक्षया तु यथा पुराणेषु द्वादशीशब्देनै कादशी। त्रिपुराणवे च अलिशब्देन मदराभिषिक्तं च मैथुनशब्देन मधुसर्पिपोर्ग्रहणम् इत्यादि । =पुराणोमें उपवासके नियमोका वर्णन करते समय 'बादशी' का अर्थ एकादशी किया जाता है; शाक्त लोगोंके ग्रन्थों में 'अलि' शब्द मदिरा और 'मैथुन' शब्द शहद और धोके अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
३. क्षेत्रकी अपेक्षा सम.१४/१७८/२८ चौरशब्दोऽन्यत्र तस्करे रूढोऽपि दाक्षिणात्याना
मोदने प्रसिद्धः। यथा च कुमारशब्दः पूर्वदेशे आश्विनमासे रूढः । एवं कर्कटीशब्दादयोऽपि तत्तद्देशापेक्षया योन्यादिवाचका ज्ञेया। -'चौर' शब्दका साधारण अर्थ तस्कर होता है, परन्तु दक्षिण देशमें इस शब्दका अर्थ चावल होता है। 'कुमार' शब्दका सामान्य अर्थ युवराज होनेपर भी पूर्व देशमें इसका अर्थ आश्विन मास किया
जाता है। 'कर्कटी' शब्दका अर्थ ककडी होनेपर भी कहीं-कहीं इसका अर्थ योनि किया जाता है।
६. शब्दार्थकी गौणता सम्बन्धी उदाहरण स भ त ७०/४ उक्तिवावाच्यतै कान्तेनावाच्य मिति युज्यते । इति स्वामिसमन्तभद्राचार्यवचन कथं संघटते । न तदर्थापरिज्ञानात् । अय बलु तदर्थ , सत्त्वाद्य कैकधर्म मुखेन वाच्यमेव वस्तु युगपत्प्रधानभ्रतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यम् । = प्रश्न-अवाच्यताका जो कथन है वह एकान्त रूपसे अकथनीय है. ऐसा माननेसे अवाच्यता युक्त न होगी', यह श्री समन्तभद्राचार्यका कथन कैसे संगत होगा। उत्तर--ऐसी शका भी नहीं की जा सक्ती, क्योकि तुमने स्वामी समन्तभद्राचार्यजोके वचनोको नहीं समझा। उस वचनका निश्चय रूपसे अर्थ यह है कि सत्त्व आदि धर्मों में से एक-एक धर्मके द्वारा जो पदार्थ वाच्य है अर्थात कहने योग्य है, वही पदार्थ प्रधान भूत सत्त्व असत्त्व इस उभय धर्म सहित रूपसे अवाच्य है। रा.वा २/७/१/११/२ रूढिशब्देषु हि क्रियोपात्तकाला व्युत्पत्त्यर्थं व न
तन्त्रम् । यथा गच्छतीति गौरिति । रा,वा २/१२/२/१२६/३० कथ तह्यस्य निष्पत्ति 'प्रस्यन्तीति प्रसा" इति। व्युत्पत्तिमात्रमेव नार्थ प्राधान्ये नाश्रीयते गोशब्दप्रवृत्तिवत। एत्ररूढिविशेषबललाभाव क्वचिदेव वर्तते। -जितने रूढि छाब्द है उनकी भूत भविष्यत् वर्तमान कालके आधीन जो भी क्रिया है वे केवल उन्हे सिद्ध करने के लिए है। उनसे जो अर्थ द्योतित होता है वह नहीं लिया जाता है । प्रश्न -जा भयभीत होकर गति करे सो बस यह व्युत्पत्ति अर्थ ठीक नहीं है। (क्योकि गर्भस्थ अण्डस्थ आदि जीव त्रस होते हुए भी भयभीत होकर गमन नहीं करते। उत्तर'प्रस्यन्तीति त्रसा' यह केवल "गच्छतीति गौ" की तरह व्युत्पत्ति मात्र है। (रा वा. २/१३/१/१२७) (रा.वा २/३६/३/१४५) ५. आगमकी प्रामाणिकतामें हेतु
१. आगमको प्रामाणिकताका निर्देश ध.१/१.१,७५/३१४/५ चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव । - जैसे प्रत्यक्ष स्वभावत प्रमाण है उसी प्रकार आर्ष भी स्वभावत प्रमाण है।
२. वक्ताकी प्रामाणिकतासे वचनकी प्रामाणिकता ध.१/१.१ २२/१६६/४ वक्तृप्रामाण्याद्वचनपामाण्यम् ।वक्ताकी प्रमाणता
मे बचनमें प्रमाणता आती है। (ज.प १३/८४) ५ वि /१० सर्व विद्वीतरागोक्तो धर्मः सुनृतता बजेत् । प्रामाण्यतो यतः
सो वाच प्रामाण्यमिष्यते ॥१०॥ --जो धर्म सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा कहा गया है वही यथार्थताको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि पुरुषकी प्रमाणतासे ही वचनमें प्रमाणता मानी जाती है।
३. आगमकी प्रामाणिकताके उदाहरण ध४/१.५.३२०/३८२/११ तं कधं णव्यदे। आइरियपरंपरागदोबदेसादो।
यह कैसे जाना जाता है कि उपशम सम्यक्त्वक शलाकाएँ पस्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र होती है। उत्तर-आचार्य परम्परागत उपदेशसे यह जाना जाता है। (ध ।।१,६,३६/३१/१ (ध. १४/१६४/६, १६९/२, १७०/१३, १७३/१६, २०८/११, २०६/११, ३७०/
१०, ५१०/२) ध.६/१६-१,२८/६५/२ एईदियादिसु अव्बत्तचेट्ठ'सु कधं सुहवदुहवभावा णज्जते । ण तत्थ ते सिमव्यत्साणमागमेण अत्यित्तसिद्धीदो।-प्रश्नअव्यक्त चेष्टावाले एकेन्द्रिय आदि जीवों में सुभग और दुर्भग भाव कैसे जाने जाते है । उत्तर-नही, क्योंकि एकेन्द्रिय आदिमें अध्यक्त
रूपसे विद्यमान उन भावोका अस्तित्व आगमसे सिद्ध है। घ,७/२.१.५६/१६/८ ण दसणमस्थि विसयाभावादो। ध ७/२,१,५६/१८/१ अस्थि दसणं, मुत्तम्मिअट्ठकम्मणि साददो।.. इच्चादिउवसंहारसुत्तदंसणादो च ।-प्रश्न-दशन है नहीं, क्योंकि
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