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६.आगमकी प्रामाणिकताके हेतूओं सम्बन्धी शंका-समाधान
आगम
आधुनिक ज्ञान विज्ञानसे युक्त आचार्यों के उपदेशसे उसकी प्रामाणिकता जाननी चाहिए। क पा. १/१,१५/१६४/८२ जिणउवदितासो होद दवागमो पमाणं, किन्तु अप्पमाणीभूदपुरिसपवोलोकमेण आगयत्तादो अप्पमाणं बट्टमाणकालदव्वागमो, त्ति ण पञ्चबहादु जुत्तं; राग-दोष-भयादीदआयरियपव्वोलीकमेण आगयस्स अपमाणत्त विरोहाद।। =प्रश्नजिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट होनेसे द्रव्यागम प्रमाण होओ, किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुष परम्परासे आया हुआ है अतएव वर्तमान कालोन द्रव्यागममें अप्रमाण है । उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भयसे रहित आचार्य परम्परासे आया हुआ है, इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है।
२ पूर्वापर विरोध होते हुए भी प्रामाणिक कैसे है ध १/१,१,२७/२२१/४ दोहं क्यणाण मज्झे एक्कमेबसुत्त होदि, तदो जिणा ण अण्ण हा बाइयो, सदो तव्वयणाण विष्पडिसेहो इदि 'चे सच्चमेय, किन्तु ण तन्वयणाणि एयाइ आइल्लु आइरिय-वयाणाई, तदो एयाणं विरोहस्सत्थि सभवो इदि। -प्रश्न-दोनों प्रकारके बचनो में से कोई एक ही सूत्र रूप हो सकता है। क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते, अत इनके वचनोमें विरोध नहीं होना चाहिए ? उत्तर-यह कहना सत्य है कि वचनोमें विरोध नहीं होना चाहिए। परन्तु ये जिनेन्द्र देवके वचन न होकर उनके पश्चात
आचार्योंके वचन है, इसलिए उनमें विरोध होना सम्भव है। ध. ८/२,२८/१६/१० कसायपाहुडसुत्तेणेद सुत्त विरुज्झदि त्ति बुत्ते सच्च विरुज्झई कध सुत्ताण विरोहो । ण, सुत्तोवसंहारणमसयलसुदधारयाइरियपरतताण विगेहसभवदसणादो। - प्रश्न कषायप्राभृतके सूत्रसे तो यह सूत्र विरोधका प्राप्त होता है ? उत्तर --- सचमुच में यह सूत्र कषायप्राभृतके सूत्रसे विरुद्ध है। प्रश्न- सूत्र में विरोध कैसे आ सकता है। उत्तर-अल्प श्रुतज्ञानके धारक आचार्योंके परतन्त्र सूत्र व उपसहारोके विरोधकी सम्भावना देखी जाती है। ध. १/१,१,२७/२२१/७ कथ सुत्तत्तण मिदि। आइरियपरंपराए णिरंतरमागयाण बुद्धिसु ओहदतीसु बज्जभीरुहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्यएस चडावियाणं असुत्तत्तण-विरोहादो। जदि एवं, तो एयाणं पि वयणाण तदवयत्तादो सुत्तत्तण पावदि त्ति चे भवदु दोहं मझे एकस्स सुत्तत्तण, ण दोण्ह पि परोप्पर-विरोहादो। -प्रश्न-तो फिर (उन विरोधो वचनोंको). सूत्रपना कैसे प्राप्त होता है । उत्तर--आचार्य परम्परासे निरन्तर चले आ रहे (सूत्रोको)...बुद्धि क्षीण होनेपर पाप भीरु (तथा) जिन्होने गुरु परम्परासे श्रुतार्थ ग्रहण किया था, उन आचार्योंने तीर्थ व्युच्छेदके भयसे उस समय अवशिष्ट रहे हुए अर्थको पोथियोमे लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें अमूत्रपना नहीं आ सकता । (ध.१३/५,५,१२०/३८१/२) प्रश्न--यदि ऐसा है तो दोनो ही वचनोको द्वादशांगका अवयव होनेसे सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा । उत्तर-दोनो में से किसी एक वचनको सूत्रपना भले हो प्राप्त होओ,किन्तु दोनोको सूत्रपना प्राप्त नहीं हो सकता है, क्योकि उन दोनों वचनोमें परस्पर विरोध पाया जाता है। (ध १/१,१,३६/
२६१/२) ध १३/५,५,१२०/३८१/७ विरुद्धाणं दोण्णमस्थाणं कधं सुत्त होदि त्ति वुत्ते-सच्च, ज सुत्तं तमविरुद्धत्थपरूपयं चेव । किन्तु णेद सुत्त सुत्तमिव सुत्तमिदि एदस्स उवयारेण सुत्तत्तब्भुव गमादो। कि पुण सुत्तं । गणहर पत्तेयबुद्ध----सुदकेवलि• अभिण्णदसपुबिकहियं.. ॥३४॥ ण च भूदब लिभडारओ गणहरो पत्तेयबुद्धो सुद केवली अभिषणदसपुब्बी वा जेणेदं सुत्त होज्ज । प्रश्न-विरुद्ध दो अर्थों का कथन करनेवाला सूत्र कैसे हो सकता है। उत्तर--यह कहना सत्य है, क्योकि जो सूत्र है वह अविरुद्ध अर्थ का ही प्ररूपण करनेवाला होता है। किन्तु यह सूत्र नहीं है, क्योकि सूत्रके समान जो होता है वह
सूत्र कहलाता है, इस प्रकार इसमें उपचारसे सूत्रपना स्वीकार किया गया है। प्रश्न--तो फिर सूत्र क्या है ? उत्तर-जिसका गणधर देवोंने, प्रत्येक बुद्धोंने श्रुतकेवलियोंने तथा अभिन्न दश पूर्वियोंने कथन किया वह सूत्र है। परन्तु भूतबली भट्टारक न गणधर है, न प्रत्येक बुद्ध है, न श्रुतकेवली है, न अभिन्नदशपूर्वी ही है, जिससे कि
यह सूत्र हो सके। क.पा. ३/३-२२/६५१३/२६२/१ पुब्बिन्लवक्रवाणं ण भद्दय, सुत्तविरुद्ध
तादो। ण, वचरवाणभेदसंदरिसणठं तप्पत्तीदो पडिबक्रवणयणिरायरणमुहेण पउत्तणओ ण भद्दओ। ण च एत्थ पडिवखणिरायणमस्थि तम्हा वे वि हिरवज्जे त्ति घेत्तवं । प्रश्न-पूर्वोक्त व्याख्यान समीचीन नहीं है ! क्योंकि वे सूत्र विरुद्ध है। उत्तर- नहीं, क्योंकि व्याख्यान भेदके दिखलाने के लिए पूर्वोक्त व्याख्यानकी प्रवृत्ति हुई है। जो नय प्रतिपक्ष नयके निराकरण में प्रवृत्ति करता है, वह समीचीन नही होता है। परन्तु यहाँ पर प्रतिपक्ष नयका निराकरण नही किया गया है, अतः दोनों उपदेश निर्दोष है ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिए।
३. आगम व स्वभाव तर्कके विषय ही नहीं हैं: ध. १/१,१,२५/२०६/६ आगमस्यातर्कगोचरत्वात-आगम तर्कका विषय
नही है । (ध.४/१४/५,६,११६/१५१/८) ध.१/१,१.२४/२०४/३ प्रतिज्ञावाक्यत्वाद्धेतुप्रयोग कर्तव्य प्रतिज्ञामात्रत' साध्यसिद्वयनुपपत्तिरिति चेन्नेदं प्रतिज्ञावाक्यं प्रमाणत्वात, ण हि प्रमाणान्तरमपेक्षतेऽनवस्थापत्ते । प्रश्न-'नरक गति है) इत्यादि प्रतिज्ञा वाक्य होनेसे इनके अस्तित्व की सिद्धि के लिए हेतुका प्रयोग करना चाहिए, क्योकि केवल प्रतिज्ञा वाक्यसै सात्यकी सिद्धि नहीं हो सकती । उत्तर--नहीं, क्योंकि, ('नरकगति है' इत्यादि) वचन प्रतिज्ञा वाक्य न होकर प्रमाण वाक्य है। जो स्वयं प्रमाण स्वरूप होते हैं वे दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करते है। यदि स्वयं प्रमाण होते हुए भी दूसरे प्रमाणोकी अपेक्षा की जावे तो अनवस्था दोष आता है। ध. १११,१,४१/२७१/३ ते तादृक्षा सन्तीति कथमवगम्यत इति, चेन्न,
आगमस्यातर्कगोचरत्वात् । न हि प्रमाणप्रकाशितार्थावगति प्रमाणान्तरप्रकाशमपेक्षते । प्रश्न-साधारण जीव उक्त लक्षण (अभी तक जिन्होंने त्रस पर्याय नहीं प्राप्त की) होते हैं यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आगम तर्कका विषय नहीं है। एक प्रमाणसे प्रकाशित अर्थज्ञान दूसरे प्रमाणके प्रकाशकी
अपेक्षा नहीं करता है। ध.६/१,६-६.4/१५१/१ आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिदियत्थविसओ अचिंतियसहाओ जुत्तिगोयरादीदि । - जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्राय अतीन्द्रिय पदार्थोंको विषय करनेवाला है, अचिन्त्य स्वभावी है और युक्तिके विषयसे परे है, उसका नाम आगम है।
४ छनस्थोंका ज्ञान प्रामाणिकताका माप नहीं है ति, प. ७/६१३/पृ. ७६६/पं. ४ अदिदिएम पदत्थेसु छदुमयवियप्पाण
मविसंवादणियमाभावादो। तम्हा पुव्वाइरियवक्रवाणापरिच्चाएण एसा वि दिमा हेदुवादाणुसारिवियुपण्ण सिस्साणुग्गहण-अबुप्पण्णजणउपायणठं चदरिसेदव्या। तदो ण एत्थ सपदायविरोधो कायव्वो त्ति । -अतिन्द्रिय पदार्थोक विषयमें अक्पज्ञोके द्वारा किये गये विकल्पोके विरोध न होनेका कोई नियम भी नही है। इसलिए पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न कर हेतुवादका अनुसरण करने वाले अव्युत्पन्न शिष्योंके अनुग्रहण और अव्युत्पन्न जनोके व्युत्पादन के लिए इस दिशाका दिखलाना योग्य ही है, अतएव यहाँ सम्प्रदाय विरोधकी भी आशंका नहीं करनी चाहिए।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष
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