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आगम
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उसका कोई विषय ही नहीं है। उत्तर-दर्शन है क्योंकि सूत्रमें आठ कमका निर्देश किया गया है। इस प्रकारके अनेक उपसंहार सूत्र देखने से भी यही सिद्ध होता है कि दर्शन है। ४. अर्हत् व अतिशयज्ञानवालोंके द्वारा प्रणीत होनेके
कारण
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रा.बा. ८/१६/२६२ तदसिद्धिरिति चेद न अतिशयानाकरवाद ॥१८॥ अन्यत्राप्यतिशयज्ञानदर्शनादिति पेद, न अव तेषां समवाद ॥१७॥ आर्हतमेव प्रवचन तेषां प्रभव' । उक्त च सुनिश्चितं न परतन्त्रयुक्तिषु स्फुरन्ति या काश्चन सूक्तसपद । तवैव ता. पूर्वमहार्णवोत्थिता जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुष (द्वात्रि १ / ३) श्रद्धामात्रमिति चेत् भूयसामुपन्ये रत्नाकर १९८ उद्भावाम प्रामाण्यमिति चेत न, नि सारत्वात् काचादिवत् ॥ १६॥ - प्रश्न - अर्हत्का आगम पुरुषकृत होनेसे अप्रमाण है ? उत्तर-- ऐसा कहना
संगत नहीं है, क्योंकि वह अतिशय ज्ञानोंका आकार है। प्रश्न- अतिशय ज्ञान अन्यत्र भी देखे जाते है ! अतएव अर्हत् आगमको ही ज्ञानका आकार कहना उपयुक्त नही है ? उत्तर - अन्यत्र देखे जानेवाले अतिशय ज्ञानोका मूल उद्भवस्थान आर्हत प्रवचन ही है। कहा भी है कि यह अच्छी तरह निश्चित है कि अन्य मतोमे जो युक्तिवाद और अच्छी बातें चमकती हैं मे तुम्हारी ही है। वे चतुर्दशपूर्वरूपी महासागर से निकली हुई जिनवाक्य रूपी बिन्दुएँ है ।' प्रश्न - यह सर्व बाते केवल श्रद्धामात्र गम्य है ? उत्तर- श्रद्धामात्र गम्य नही अपितु युक्तिसिद्ध है जैसे गाँव नगर या बाजारों मे
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कुछ रत्न देखे जाते है फिर भी उनकी उत्पत्तिका स्थान रत्नाकर समुद्र ही माना जाता है। प्रश्न- यदि वे व्याकरण आदि अईवचनसे निकले है तो उनकी तरह प्रमाण भी होने चाहिए ? उत्तरनहीं, क्योंकि वे निस्सार हैं। जैसे नको रत्न क्षार और सीप आदि भी रत्नाकरसे उत्पन्न होते है परन्तु नि सार होनेसे त्याज्य है । उसी तरह जिनशाशन समुद्रसे निकले वेदादि नि सार होनेसे प्रमाण नहीं है।
रा. बा. ६/२०/२/५३२ अतिशयज्ञानत्वादभगवतामहतामतिशय वज्ज्ञानं युगपत्सर्वार्थावभासनसमर्थं प्रत्यक्षम् तेन दृष्टं तद्दृष्टं यच्छास्त्रं तद् यथार्थोपदेशकम्, अतस्तत्प्रमाण्याद् ज्ञानावरणाद्यासवनियमप्रसिद्धि ज्ञात्र अतिशय ज्ञानवाने युगपत् सर्वावभासन समर्थ प्रत्यक्षज्ञानी के वलीके द्वारा प्रणीत है, अत प्रमाण है। इसलिए शास्त्रमें वर्णित ज्ञानागरणादिकके आसयके कारण आगमानुगृहीत है। गी.जी./ जी प्र. ११६/४१८/९ मानां प्रवक्तरिपुरुष आप्ते सिद्धेसति तद्वाक्यस्यागमस्य सूक्ष्मान्तरितदूरार्थेषु प्रामाण्यसुप्रसिद्ध ।
= बहुत कहने करि कहा ' सर्व तत्त्वनिका बक्ता पुरुष जो है अश्वा की सिद्धि होते तिस आप्तके बचन रूप जो आगम ताकी सूक्ष्म अंतरित दूरी पदार्थ निनि प्रमाणाको सिद्धि हो है। रावा. हि. ९/२०/२२७ अहं सर्वज्ञ हे वचन प्रमाणभूत है...स्वभाव विषे तर्क नाहीं ।
५. वीतराग द्वारा प्रणीत होने के कारण
घ. १/१.१.२२/१३६/२ गटाशेषदोषावरण प्राप्ताशेषवस्तुविषयशोध स्वस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् अन्यथास्यापवस्यापि पी वेदप्रामाण्यवसाय जिसने सम्पूर्ण भावकर्म व द्रव्यकर्मको दूर कर देने से सम्पूर्ण वस्तु विषयक ज्ञानको प्राप्त कर लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। ऐसा समझना चाहिए। अन्यथा पौरुषेयत्व रहित इस आगमको भी पौरुषेय आगमके समान अप्रमाणताका प्रसंग आ जायेगा ।
घ. २/१.२.२/१०-११/१२ आगमोचनमा दोषाय विदुः दोन या वसंभवा ॥१०॥ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा बाह्यतस्तु नेते दोषास्तस्यमृतकारणं नास्ति।
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५. आगमकी प्रामाणिकताने हेतु
- आप्तके वचनको आगम जानना चाहिए और जिसने जन्म जरादि अठारह दोषोका नाश कर दिया है उसे आप्त जानना चाहिए। इस प्रकार जो व्यक्त दोष होता है, वह असत्य वचन नहीं बोलता है, क्योंकि उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण ही सम्भव नहीं है। ॥१०॥ रागसे, द्वेषसे, अथवा मोहसे असत्य वचन बोला जाता है, परन्तु जिसके ये रागादि दोष नहीं है उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण भी नही पाया जाता ॥ १०॥ ( ध १०/ ४,२,४६०/२८०/२) ध. १०/५,५,९२१/३८२ / १ पमाणत्तं कुदो णव्वदे। रागदोषमोहभावेण पाणी भूदपुरिसपर पराए आगमत्तादो । प्रश्न- सूत्रकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? उत्तर- राग, द्वेष और मोहका अभाव हो जानेसे प्रमाणीभूत पुरुष परम्परासे प्राप्त होनेके कारण उसकी प्रमाणता जानी जाती है ।
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स. म. १७/ २३७ / १ तदेवमाप्तेन सर्व विदा प्रणीत आगम प्रमाणमेव । तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनम् । सर्वज्ञ आप्त-द्वारा मनाया आगम ही प्रमाण है। जिस आगमका बनानेवाला सदोष होता है, वही आगम अप्रमाण होता है ।
अनघ २ / २० जिनोक्ते वा कुतो हेतुबाधगन्धोऽपि शङ्कयते । रागादिना विना को हि करोति वितथ वचः ॥२०॥ - कौन पुरुष होगा जो कि रागद्वेष के बिना तिथ मिथ्या वचन बोले। अतएव वीतरागके वचनो अश मात्र भी बाधाकी सम्भावना किस तरह हो सकती है। ६. गणधरादि आचायों द्वारा कथित होनेके कारण क. पा. १ / १,१२/३९९६/१५३ गेदाओ गाहाओ सुत गहरपतेयबुद्ध-दकेवल अभिपुण्य गुणहरमहारयस्स अभावदोष, पिहोसपक्खर सहे उपमाणेहि सुत्तेण सरिसत्तमत्थि त्ति गुणहराइरियगाहाणं पित्तत्त. वल भावादो... एद सव्व पित्तलक्खण जिणवयणकमलअसंभव हरमुहविणिग्गयगधरणार, सच (मुत्त) सारिच्यमस्सिन तत्थ विच पडि मिरोहाभावादो - प्रश्न – (कषाय प्राभृत सम्बन्धी) एक सी अस्सी गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकती है, क्योंकि गुणधर भट्टारक न गणधर है, न प्रश्येक बुद्ध है, न श्रुतवली है, और न अभिन्न दशपूर्वी ही हैं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि गुणधर भट्टारककी गाथाएँ निर्दोष है, अल्प अक्षरवाली है, सहेतुक है, अत वे सूत्र के समान है, इसलिए गुणधर आचार्यको गाथाओं में सूत्रत्व पाया जाता है। प्रश्न- यह सम्पूर्ण सूत्र लक्षण तो जिनदेव के मुखकमलसे निकले हुए अर्थ पदों में हो सम्भव है, गणधर के मुलसे निकली ग्रन्थ रचनामे नहीं ? उत्तर- नहीं, क्योंकि गणधरके वचन भी सूत्र के समान होते है इसलिए उनके वचनोंगे सूत्र होनेके प्रति विरोधका अभाव है ।
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प्रकार
७. प्रत्यक्ष ज्ञानियोंके द्वारा प्रणीत होनेके कारण स.सि ६/२६/४०५ व्याख्यातो समपक्षः बन्धपदार्थ अवधिमन पर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाण गन्यस्तदुपदिष्टा गनानुमेयः । == इस विस्तार के साथ बन्ध पदार्थका व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मन पर्यय ज्ञान और केवलज्ञानरूप प्रत्यय-प्रमाण गम्य है, और इन ज्ञानवाले जीवोंके द्वारा उपदिष्ट आगमसे अनुमेय है । ८. आचार्य परम्परासे आगत होनेके कारण
घ. १३/५-२-१२१/३८२/१ पातं कुदो वदे .. पानी भूवपुरिरुपरं पराए आगदत्तादो प्रश्न- सूत्रमें प्रमाणता कैसे जानी जाती है । उत्तर - प्रमाणभूत पुरुष परम्परासे प्राप्त होनेके कारण उसकी प्रमाणा जानी जाती है ।
१. समन्वयात्मक होनेके
कारण
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क.पा. १/१.१५/१२/०२ / २ च सहिय व उपदेश ग्रहण करके अर्थ कहना चाहिए ।
घ. १/९.१.२०/२२२/४ दोहे
गाणं मन्ये कं बय समिदि केवली केवली वा जागादि । प्रश्न- दोनों प्रकारके वचनों से
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